इतिहास दृष्टि
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वास्तविक इतिहास को छिपाइये मत
डा.सतीश चन्द्र मित्तल
भारत के स्वतंत्र होते ही इंग्लैण्ड के प्रबुद्ध इतिहासकार सी.एच.फिलिप्स ने कहा, “अभी तक भारत का इतिहास वह पढ़ाया जाता रहा जो हमने (अंग्रेजों ने) लिखा, पर अब वे स्वयं भारत का सही इतिहास लिखेंगे।” लेकिन जर्मन विद्वान विलियम पीवाहेमर, जो 35 वर्षों तक भारत में रहे, ने 1981 में अपनी पुस्तक “इण्डिया-रोडस् टू नेशनहुड” में लिखा, “जब मैं भारत का इतिहास पढ़ता हूं तो मुझे लगता ही नहीं कि मैं यहां का इतिहास पढ़ रहा हूं। भारत के लोग हारे, पिटे-यही भारत का इतिहास नहीं है। भारत के लोग अपने इतिहास के बारे में जागरूक नहीं हैं।” अर्नाल्ड टायनवी ने भी माना कि भारतीय चिन्तन यूरोपीय चिंतन का शिकार है।
स्वतंत्रता से पूर्व भारत के अनेक महापुरुषों ने भारत के वास्तविक इतिहास लेखन का आग्रह किया। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने ग्रंथ “सत्यार्थ प्रकाश” में प्रामाणिक ग्रंथों की एक सूची देते हुए शेष को “जाल ग्रंथ” बतलाया है। स्वामी विवेकानन्द ने अंग्रेजों द्वारा लिखित इतिहास-ग्रंथों का अनुकरण न करने को कहा। रवीन्द्र नाथ टैगोर ने आंधी, तूफान, धूल तथा पतन के इतिहास के साथ सृजन तथा विकास का इतिहास भी पढ़ने को कहा। भगिनी निवेदिता ने स्वतंत्रता के बाद विश्वविद्यालय में पहला कार्य-अपने इतिहास को तैयार करने तथा पढ़ने को कहा।
महात्मा गांधी से लेकर वर्तमान काल तक के अनेक विद्वानों ने भारत के भ्रमित इतिहास को पढ़ने-पढ़ाने का प्रतिरोध किया। कश्मीर विश्वविद्यालय के उपकुलपति सरदार के.एम. पण्णिकर ने स्पष्ट कहा कि “झूठे व गलत इतिहास को बदलना ही होगा।” बी.डी. बसु ने स्पष्ट कहा कि “इंग्लैण्ड वालों से सही इतिहास की कल्पना करना व्यर्थ है।” डा. राम मनोहर लोहिया ने भारत के इतिहास की मुख्यधारा को “विदेशियों की गुलाम” बतलाया है। इसी भांति प्रसिद्ध विद्वान आनन्द के. कुमारस्वामी का कथन है कि किसी भी संस्कृति का ज्ञान इसके भीतर से ही ठीक तरह से देखा जा सकता है। अपने ही इतिहास से छेड़-छाड़, थोपा हुआ इतिहास हम कब तक पढ़ेंगे? पश्चिम के इतिहासकारों के सहारे कब तक रहेंगे? पराजय का बोध तथा हीनता के पोषक इतिहास के मंच पर हम विदूषकों ने पश्चिम की नकल में अपने को खो दिया है।
विकृत इतिहास
ब्रिटिश शासकों द्वारा राजसत्ता के हस्तांतरण के पश्चात कांग्रेस ने अपना राजनीतिक वर्चस्व बनाए रखने के लिए कम्युनिस्टों से मिलकर जहां सत्ता को बचाए रखा वहीं इतिहास की लगाम कम्युनिस्टों को सौंप दी। कम्युनिस्टों ने भारतीय शैक्षणिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् (एन.सी.ई.आर.टी.), विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यू.जी.सी.) तथा भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद् (आई.सी.एच.आर.) के माध्यम से इतिहास का भरपूर विकृतिकरण कर दिया। जहां पाठ्य पुस्तकें जाने-माने वामपंथियों से लिखवाई गईं वहीं यू.जी.सी द्वारा देशव्यापी तथा क्षेत्रीय संगोष्ठियों के माध्यम से स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम को बदलने के उपक्रम किए गए। स्कूलों की पाठ्य पुस्तकों में लगभग तीस वर्षों तक दर्जनों भाषा तथा तथ्य सम्बंधी गलतियों को सुधारने का भी प्रयत्न नहीं हुआ। इतना ही नहीं, शिक्षकों के लिए उपयोगी राष्ट्रवादी इतिहासकारों की पुस्तकें भी सन्दर्भ ग्रंथों से गायब कर दी गईं। इतिहास की पुस्तकें “तथ्यात्मक कम, मनमाने विश्लेषणात्मक ढंग से अधिक”, “सत्यांश कम, पर प्रचारात्मक अधिक” होती गईं। तथ्यात्मक रूप से गलत इतिहास को बदलवाने की दिशा में “शिक्षा बचाओ आन्दोलन” ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा इसके लिए कानूनी लड़ाई लड़कर लगभग 75 पैराग्राफ इन पुस्तकों से हटाने के लिए सरकार को मजबूर किया।
विसंगतियों से भरपूर इन पाठ्य पुस्तकों द्वारा अनेक सही तथ्यों को न देकर वर्ग भेद को प्रमुखता, धर्म तथा संस्कृति के प्रति अज्ञानता एवं भ्रम पैदा किया गया। इसमें राष्ट्र तथा राष्ट्रीयता, भारतीय संस्कृति तथा आध्यात्मिक चिंतन के प्रति अस्पष्टता को स्थान दिया गया। समाजवादी तथा वामपंथी विचारों को उभारा गया। साम्प्रदायिकता के विकास क्रम को बढ़ा-चढ़ा कर लिखा गया। यहां तक कि इसमें लोकमान्य तिलक, अरविन्द घोष तथा स्वामी विवेकानन्द जैसे महापुरुषों को भी नहीं बख्शा गया। वामपंथी लेखकों ने मुगलकाल की स्तुति कर उसे “शानदार” तथा उस युग को महान सफलताओं का तथा आक्रमणकारियों को राष्ट्रीय शासक बतलाया तथा अधिकांश का विस्तृत वर्णन किया। उन्होंने 1857 के महासंग्राम को उत्तरी भारत तक सीमित तथा मुख्यत: किसानों का साहूकारों के खिलाफ संघर्ष बताया। साथ ही संघर्ष के मुख्य नायकों-नाना साहेब को “धोखेबाज”, झांसी की रानी को ढुलमुल तथा कुंवर सिंह को तबाहशुदा बतलाने में कोई शर्मिंदगी महसूस नहीं की।
क्या छिपाया गया?
इतिहास का कोई भी सामान्य पाठक पाठ्यक्रम में निर्धारित किसी भी पुस्तक को पढ़कर निष्कर्ष निकाल सकता है कि वामपंथी इतिहासकारों ने अपनी समस्त ऊर्जा तथा प्रतिभा भारतीय छात्रों की प्राचीन भारत से नाता तोड़ने में लगाई है। यूनेस्को ने किसी भी पाठ्यक्रम में उस देश की सांस्कृतिक जड़ों से युक्त होना आवश्यक माना है। परन्तु भारत की पाठ्य पुस्तकों में वेद, आर्य, वैदिक संस्कृति आदि का वर्णन जानबूझकर नहीं दिया गया है। राम, कृष्ण, रामायण तथा गीता गायब हैं। चन्द्रगुप्त मौर्च, चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य, हर्षवर्धन का वर्णन नहीं है। महर्षि वेद व्यास, महर्षि वाल्मीकि तथा आदि शंकराचार्य का नाम भी नहीं है। वृहत्तर सांस्कृतिक भारत के इतिहास की कल्पना करना तो व्यर्थ ही है। इसी भांति मध्य काल के इतिहास में महाराणा प्रताप का वर्णन नहीं है। शिवाजी का वर्णन केवल एक पंक्ति में है और वह भी नकारात्मक। बप्पा रावल, राणा सांगा को कोई स्थान नहीं। इन सभी का वर्णन जानबूझकर नहीं दिया गया है।
भारत के वर्तमान काल के इतिहास को छिपाने में तो हद ही हो गई। भारत के प्रसिद्ध धार्मिक सुधार आन्दोलन में स्वामी दयानन्द व स्वामी विवेकान्द के अलावा सभी गायब कर दिए गए। लोकमान्य तिलक, लाला लाजपतराय, विपिन चन्द्र पाल की भूमिका नहीं दी गई है। क्रांतिकारियों का तो इतिहास से निष्कासन ही कर दिया गया। केवल आधा पृष्ठ शहीद भगत सिंह पर दिया है। सुभाष चन्द्र बोस तथा आजाद हिन्द फौज का वर्णन नाममात्र को है। राष्ट्रीय आन्दोलन में गांधी जी का वर्णन करना उनकी मजबूरी रही। इन इतिहासकारों ने राष्ट्रीय आन्दोलन में कम्युनिस्टों की काली तथा देशद्रोही करतूतों को भी जानबूझकर छिपाया।
उपरोक्त इतिहास के वर्णन से, जिसमें भारत के प्राचीन अतीत को विस्मृत करने, मध्यकाल के प्रेरक प्रसंगों को गायब करने, राष्ट्रीय आन्दोलन में अनेक समाज सुधारकों, राष्ट्रीय नेताओं तथा क्रांतिकारियों के यशस्वी कार्यों के छिपाने से क्या हम इतिहास के मूल उद्देश्यों का पूरा कर पाएंगे? ऐसे विवेचन से इतिहास का अध्ययन ही अर्थहीन होगा। वास्तविक इतिहास को छिपाना न तो समाज और राष्ट्र के लिए हितकारी होगा और न ही भावी पीढ़ी के लिए। इससे तो विभेदकारी तथा ध्वंसात्मक प्रवृत्तियों को ही प्रोत्साहन मिलेगा। इसलिए यह अत्यंत आवश्यक है कि देश की संतति को सही इतिहास बोध हो तथा देश के समाज सुधारक, विद्वान, चिंतक, विचारक इस पर देशव्यापी चर्चा करें।द
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