साहित्यिकी
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साहित्यिकी
राजेन्द्र निशेश
नहीं लौटते वे दिन
जो वक्त की हथेली से
फिसल जाते हैं।
आदमी पढ़ता रहता है
अपने हाथ की रेखाओं का गणित,
झड़ते रहते हैं पत्ते, फूल और फल
वक्त के पेड़ से।
किस्तों में मरता है सच
मरती है आदमियत,
पाने और खोने के बीच की रेखा
लड़ने की जद्दोजहद में
सिमट जाती है
हथेलियों की सरसराहट में।
खोई पहचान को पाने के लिए
हम लेते हैं सपनों का सहारा
लेकिन नहीं लौटते वे दिन
जो वक्त की हथेली से
फिसल जाते हैं
सूखे पत्तों की तरह!
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