सरोकार
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विवाह के विधि–व्यवहार
मृदुला सिन्हा
दीदी के लिए गाय, गंगा, सूर्य, चांद, कुंआ, नदी-पहाड़ सबके सब हमारे जैसे ही थे। पेड़-पौधों से भी उनका पारिवारिक संबंध था। नदी मां, तो चांद मामा। कुंआ के पूजन के बिना कोई शुभ कार्य नहीं होता था। यूं तो घर, पड़ोस और नाते-रिश्तेदारियों के घर भी विवाह, उपनयन जैसे संस्कार उत्सव होते ही थे। बचपन में सबके लिए उनमें हिस्सेदारी भी होती थी। पर कुंआ पूजन, आम-महुआ का विवाह, खेत का पूजन, चाक का पूजन, हवा-बयार को मूंदना (बांधना) जैसे आयोजन दादी द्वारा ही संपन्न कराए जाते थे। दादी ही इन आयोजनों (विधि) में लगने वाली सामग्रियों की तैयारी करती थीं। सभी सामग्रियों के नाम भी बोलती जाती थीं। एक डाला (बांस की खपचियों से बुनी टोकरी) में उस सामान को डालती जातीं। इधर घर की सभी महिलाएं सजने संवरने में लगी रहतीं, दादी चिल्लातीं- “मैं कबसे नयी रील (धागा) मांग रही हूं। कोई देने के लिए तैयार नहीं। आम-महुआ ब्याहने जाने में देर हो रही है।”
मां अपनी चोटी बनाना छोड़ कर दौड़तीं। धागे की रील दादी को देतीं। दादी अन्य सामान इकट्ठा करने में उन्हें उलझा लेतीं। केला का वीर, सिन्दूर, अक्षत, दही-चूड़ा, न जाने कितने छोटे-मोटे सामान चाहिए होते थे। मां को अपने पास से भागती देख दादी कहतीं-“तुम भी तो सीखो, कौन-कौन से सामान लगते हैं। मैं बैठी नहीं रहूंगी। अपने नाती-पोतों के विवाह में कैसे करोगी?
दादी सबको सिखाना चाहतीं थीं विधि-विधान। मुझे अचम्भा हो रहा था। आम-महुआ का विवाह कैसे होगा? मेरी बड़ी बहन का विवाह था। मैंने देखा सभी महिलाएं गीत गाती हुई सड़क पर निकलीं। गांव के दो छोरों पर स्थित गांव की देवी और ब्रह्म बाबा की पूजा हुई। गीतगायक महिलाओं की टोली पीछे रह जाती थी। दादी, मां और डाला लिए चलने वाली महिला को लेकर आगे बढ़ जातीं। वे देवी की पिंडियों पर चावल, गुड़, सिंदूर और लाल चुंदरी चढ़ाती हुई गुनगुनाती थीं-
“लाल कोठरिया के लाल दरवाजा
लाल सिकरियों तोहार हे जगतारन मइया
मांगीले आंचल पसार हे जगतारण मइया।”
ब्रह्मस्थान जाकर भी पूजा। ब्रह्मस्थान पर जनेऊ चढ़ाती थीं।
“झकाझूमर खेले अइली बरहम (ब्रह्म) राउर अंगना
हमर टीकवा भुलायल बरहम राउर अंगना
बरहम दीउ न आशीष घर जायब अपना।”
गीतगायक महिलाएं भी पहुंच जातीं। वे भी देवी-देवता के गीत गातीं। फिर चल पड़तीं दादी सड़क पर। बागीचे में पहुंचकर वहां खड़ी होती जहां आम और महुआ के पेड़ आसपास ही खड़े होते। दादी अपनी सास का स्मरण करतीं। पूरा किस्सा सुनातीं। कैसे गांव भर की सुविधा के लिए मेरे दादाजी को कह-कह कर आम के पेड़ से थोड़ी दूर पर महुआ लगवाया था। तबसे आज तक (पचास वर्षों में) न जाने गांव में कितनी बेटियां ब्याही गईं। सबकी माएं यहां आम-महुआ ब्याहने आती रहीं। मैं बड़े ध्यान से आम और महुए के वृक्षों को देख रही थी। उनमें कोई हलचल नहीं। पत्ते अवश्य डोल रहे थे। दादी ने मां से कहा-“पहले दोनों वृक्षों का जड़ों की सिन्दूर, अक्षत, चावल-गुड़ और फूल से पूजन करो। जल चढ़ाओ। फिर धागे से दोनों पेड़ बांधो। 21 बार लपेटो।”
मां ने वैसा ही किया। पूरी रील (सिलाई करने वाला सफेद धागा) समाप्त हो गई। फिर पूजन। दादी ने कहा-“अब तुम सबलोग धागा लूट लो।” सभी सुहागन महिलाएं धागा लूटने लगीं। सबके हाथ थोड़ा-थोड़ा आया। उन्होंने अपने कानों पर रख लिया।
दादी आगे बढ़ीं। मैंने पूछा-“अब कहां चलीं? मेरे पैर दु:ख रहे हैं। बरात कब आएगी? दीदी की शादी कब होगी?”
“चल चल। घर पहुंचकर पैर दबा दूंगी। बरात आने से पहले इन सबको पूजना पड़ता है। इन सबका आशीष लेना है। पेड़-पौधे, कुंआ या चाक अपने से चलकर हमारे दरवाजे आकर वर-बधू को आशीष नहीं देंगे। इसलिए हम यहां आए हैं। चल, अभी चाक पूजने जाना है।”
“वह क्या होता है?”
शायद दादी बताना नहीं, दिखाना चाहती थीं। पहुंच गए हम एक झोपड़ी में। वह कुम्हार टोला था। लोचन कुम्हार चाक के पास ही बैठा था। वही चाक जिस पर मिट्टी के बर्तन गढ़े जाते हैं। दादी पहुंचीं। मां और दीदी से चाक का पूजन करवाने से पहले कुम्हार को कपड़े और नगद दिए। फिर लोचन कुम्हार ने चाक चलाया। गीली मिट्टी से कुछ सीढ़ीनुमा गढ़ा। मां ने जिसे आंचल में ले लिया। उसे सीढ़ी ही कहते हैं। घर पहुंचकर देखा- जब शाम को बारात दरवाजे लग रही थी, पूजा घर में बैठी दीदी बार-बार चुटकी से उस सीढ़ी पर सिन्दूर डालती जा रही थी। यह क्रम तब तक चला जब तक बरात दरवाजे पर रही। दादी ने उस विधि-व्यवहार का नाम “सीढ़ी पूजन” ही बताया था।
ऐसे छोटे-मोटे ढेरों विधान और व्यवहार शादियों में होते हैं। इन्हें भले ही लोकव्यवहार कहा जाए, ये लोकरीतियां कही जाएं, पर हैं तो वैज्ञानिक और जीवन के प्रति दूर दृष्टि रखने वाले प्रतीकात्मक रीति रिवाज।
अब तो मैं भी दादी बन गई। उन रीति-रिवाजों को अपनाती हूं। अंधविश्वासी नहीं हूं। विवाह से पूर्व आम-महुआ के वृक्ष की पूजा का अर्थ विवाह के लिए तैयार होती युवती का पर्यावरण से परिचित होना और उसकी रक्षा की सोचना ही माना जा सकता है। चाक तो चाक है। सृष्टि का चक्र। कुंआ पूजन, अर्थात जल का महत्त्व। बांस की पूजा अर्थात वंशवृद्धि के लिए संकल्प।
दादी अंधविश्वासी नहीं थीं। उन्हें “क्षिति जल पावक गगन समीरा, पंचतत्व यह अधम शरीरा” कंठाग्र था। विवाह में वे उन्हीं पांचों तत्वों की पूजा करवाती थीं। पेड़-पौधों, आकाश, वायु, सूर्य, चन्द्र का भी मानवीकरण करती थीं। मानव जीवन में दांपत्य के महत्त्व को समझती थीं। गृहस्थों से ही उम्मीद की जाती है कि वे समाज की रक्षा करेंगे, जिसमें पशु-पक्षी ही नहीं आकाश पाताल भी है। विवाह के रस्म रिवाजों में इन सबके महत्त्व को बताना निहित है। वेद-पुराणों में 'आत्मवत् सर्व भूतेषु' कह दिया गया। लोकजीवन में उस भाव को उतारने के लिए ही सारे रीति-रिवाज हैं। इसलिए इन्हें अवैज्ञानिक कहकर नकारा और छोड़ा नहीं जाना चाहिए। विवाह के उपरांत अपने परिवार की धुरी बनने जा रही दुल्हन के लिए अनौपचारिक शिक्षा हैं ये विधि-विधान।
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