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ईष्र्या से दूर रहने वाली अनसुइया
अनसुइया का जन्म उच्च कुल में हुआ था। इनकी मां का नाम देवहूति था। देवहूति मनु की पुत्री थीं। अनसुइया के पिता महर्षि कर्दम थे। ब्रह्मा के मानस पुत्र महर्षि अत्रि अनसुइया के पति थे।
अनसुइया अपने समय की सबसे श्रेष्ठ पतिव्रता कही जाती थीं। सभी जगह इनके यश और नाम की चर्चा थी। एक बार महर्षि नारद ने सुना कि लक्ष्मी, सती और ब्रह्माणी तीनों अपने को बड़ी पतिव्रता समझती हैं। तीनों को अपने बड़े होने का बड़ा अभिमान था। नारद जी ने सोचा कि कोई नया खेल दिखाया जाए। वे एक-एक कर तीनों के यहां अलग-अलग गए और कहने लगे, “मां, आज मैंने चित्रकूट में भगवती अनसुइया के दर्शन किए। मैं महर्षि अत्रि के आश्रम में उनसे मिलने गया था। अनसूया के दर्शनों से बड़ा सुख मिला। मेरा जन्म धन्य हो गया। सारे संसार में उन जैसी पतिव्रता आज कोई अन्य स्त्री नहीं है।”
उन तीनों ने सोचा शायद नारद हमें छोड़ कर ही कह रहे हैं। जब उन्होंने अपनी बात कही तो नारद जी बोले, “क्या सच बताऊं। मां, आप उनकी बराबरी कभी भी नहीं कर सकतीं। वह तो सबसे श्रेष्ठ पतिव्रता हैं। तीनों इतना सुनकर मन ही मन सोचने लगीं- “अच्छा, देखा जायेगा कौन कितने पानी में है।” उन्होंने अनसुइया को नीचा दिखाने की सोची।
दौड़ी-दौड़ी तीनों अपने-अपने पतियों के पास गईं और उनसे अनसुइया का सतीत्व भंग करने की हठ करने लगीं। पहले तो सती अनसुइया का नाम सुनकर वे डरे, पर पत्नियों के आग्रह के सम्मुख उनकी एक न चली। विवश होकर उन्हें पत्नियों का हठ मानना पड़ा।
तीनों देवता अच्छी तरह समझते थे कि उनकी पत्नियों में स्त्री सुलभ ईष्र्या घर कर गई है। अनसुइया की यही विशेषता है कि वह कभी किसी से ईष्र्या नहीं करतीं। पतिव्रता के प्रभाव से डरे, तीनों देव साधु वेश में मन्दाकिनी के तट पर महर्षि अत्रि के आश्रम में पहुंचे।
तीन मुनियों को अतिथि के रूप में कुटिया के द्वार पर खड़ा देखकर अनसुइया अतीव प्रसन्न हुईं। उन्होंने मुनियों का खूब सत्कार किया और पके मीठे फल और कन्द-मूल उन्हें खाने को दिए। पर उन तीनों मुनि वेशधारी देवों ने आतिथ्य अस्वीकार कर दिया।
अनसुइया ने पूछा, “महात्मन, मुझसे कौन सा अपराध हुआ है जो आप मेरी पूजा ग्रहण नहीं कर रहे हैं?” पर वे तीनों चुप रहे। इसके बाद बहुत अनुनय-विनय करने के बाद छद्म वेशधारी मुनियों ने कहा, “अगर आप निर्वस्त्र होकर हमारा सत्कार करें तभी हम प्रसाद ग्रहण करेंगे।” मुनियों के मुख से ऐसी अटपटी बात सुनकर अनसुइया धर्म-संकट में पड़ गईं। उन्होंने इष्ट देव का ध्यान किया। क्षण भर में सारा रहस्य उन्हें पता चल गया। उन्होंने प्रभु का ध्यान कर कहा, “यदि मैं मन, वचन, कर्म से पवित्र हूं तो ये तीनों देव अबोध शिशु बन जाएं।” अनसुइया का इतना कहना था कि वे तीनों छद्म वेशधारी मुनि शिशु बन कर अपने-अपने अंगूठे चूसने लगे।
इसके बाद सती अनसुइया ने उन्हें स्तनपान कराया और झूले में डाल कर सुला दिया। अब तो अनसुइया मां बनीं उन्हें खिलातीं, पिलातीं, पुचकारतीं और प्यार से लोरी सुना कर सुलातीं। महर्षि अत्रि भी सती का यह आश्चर्यजनक कौतुक देखकर आनन्दित हो उठे।
उधर इन तीनों की स्त्रियां प्रतीक्षा करते-करते जब थक गईं तभी यकायक नारद उन्हें मिले। नारद जी से तीनों ने अपने-अपने पतियों के बारे में पूछा। पहले तो नारद जी हंसते रहे फिर उन्हें परेशान देखकर बोले, “देवियो, आप तीनों के पति महर्षि अत्रि के आश्रम में पालने में लेटे-लेटे किलकारियां भर रहे हैं, और नित्य अनसुइया माता का दूध पीते हैं। आप चाहें तो चलकर वहां उन्हें देख सकती हैं। वे अब स्वयं तो यहां आने से रहे।”
यह सुनकर तीनों बहुत दु:खी हुईं और अपने किए पर पश्चाताप करने लगीं। तब नारद जी से न रहा गया। वे बोले, “एक उपाय है। आप तीनों माता अनसुइया की शरण में जाकर उनसे क्षमा मांगो।” तीनों वहां गईं। उन्होंने अन्दर झांक कर देखा तो दंग रह गईं। उनके पति शिशु बने पालने में पड़े मुस्करा रहे थे। इतने में वहां अनसुइया आ पहुंचीं। उन्होंने इन तीनों को आसन दिया, भोजन कराया और फिर आने का कारण पूछा। तीनों ने अनसुइया के चरणों पर गिर कर क्षमा मांगी।
अनसुइया ने प्रसन्न हो तीनों को पहले जैसा कर दिया। तीन देव और उनकी पत्नियां लज्जित हो अपने-अपने स्थानों को लौट गए। वनवास की अवधि में राम, लक्ष्मण और सीता भी महर्षि अत्रि के आश्रम में गए थे। तब अनसुइया ने सीता का खूब सत्कार किया था। वस्त्र पहनाए थे और पतिव्रता का महत्व बताया था। अत्रि ऋषि ने श्रीराम को कर्तव्य का उपदेश दिया था।
रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने महिलाओं के लिए सरल, सुगम और सुबोध भाषा में पातिव्रत धर्म का उपदेश और सती-महिमा का सार अनसुइया द्वारा सीता को माध्यम बनाकर बताया है। सती साध्वी नारियों में अनसुइया का स्थान बहुत ऊंचा है। इन पतिव्रताओं ने ही भारत को महानता प्रदान की है। द
स्वयं सहायता समूहों से नई ऊंचाइयां छू रही हैं
ग्रामीण महिलाएं
डा. अनिता मोदी
स्वतन्त्रता के पश्चात् ग्रामीण महिलाओं की स्थिति सुधारने व सुदृढ़ करने के लिए “स्व सहायता समूह कार्यक्रम” का सूत्रपात किया गया। आज स्व सहायता समूह कार्यक्रम ग्रामीण अर्थव्यवस्था का अभिन्न अंग बनकर ग्रामीण महिलाओं के लिए वरदान साबित हो रहा है। इस कारण ग्रामीण महिलाओं की स्थिति व दशा में सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक दृष्टिकोण से क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए हैं।
नाबार्ड ने स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से गरीब महिलाओं को लघु वित्त की सुविधा उपलब्ध कराकर उन्हें संगठित बैंकिंग सेवा से जोड़ने का प्रयास किया है। इस व्यवस्था के अन्तर्गत सर्वप्रथम 10-12 महिलाएं, जो कि समान सामाजिक, आर्थिक पृष्ठभूमि व समान विचारधारा से सम्बन्धित हैं, अपनी छोटी-छोटी बचतों को एकत्रित करके कोष बना लेती हैं। इस कोष की राशि का उपयोग सदस्यों के द्वारा अपनी उत्पादक या उपभोग सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किया जाता है। इन समूहों को बैंकों से सम्बद्ध करके लघु व कुटीर उद्योग, दस्तकारी उद्योग, छोटा व्यवसाय या कृषि सम्बन्धित अन्य व्यवसाय शुरू करने के लिए ऋण प्रदान किया जाता है।
विभिन्न अध्ययनों से यह सिद्ध हुआ है कि स्वयं सहायता समूहों से जुड़ने के पश्चात् ग्रामीण महिलाओं में बचत, ऋणों के सदुपयोग, वित्त प्रबन्धन व वित्त अनुशासन जैसी महत्वपूर्ण प्रवृत्तियां पनपी हैं। यही नहीं, ग्रामीण महिलाओं में शिक्षा, स्वास्थ्य व पोषण सम्बन्धी जागरूकता उत्पन्न हुई है। जिससे उनके व उनके परिवार के स्वास्थ्य, जीवन स्तर व गुणवत्ता पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। “स्वयं सहायता समूह” अवधारणा को मूर्त रूप देने के पश्चात् महिलाएं पहले की अपेक्षा अधिक जागरूक, साक्षर व सक्रिय हो गई हैं। इन सब परिवर्तनों के कारण महिलाएं महिला विकास सम्बन्धित कार्यक्रमों में अधिक प्रभावी भूमिका निभा रही हैं। इसका अनुकूल प्रभाव न केवल उनके परिवारों पर अपितु सम्पूर्ण ग्रामीण व्यवस्था पर स्पष्ट दिखाई देता है। स्वयं सहायता समूहों का जाल वनवासी क्षेत्रों में भी फैल रहा है।
छतीसगढ़ के एक गरीब परिवार की महिला श्रीमती फुलबासन यादव ने परिवार के विरोध के बावजूद आर्थिक पिछड़ेपन के निवारणार्थ महिला स्वयंसहायता समूहों का गठन किया। खुशी का विषय है कि आज बड़ी संख्या में महिलाएं उनके द्वारा गठित स्वयं सहायता समूहों से जुड़कर अपने परिवार का पालन-पोषण सुचारू रूप से कर रही हैं। यही नहीं, फुलबासन अपने महिला समूहों के सहयोग से राज्य में नशाबंदी और बाल विवाह जैसी सामाजिक बुराइयों पर लगाम कसने के लिए प्रयासरत है। गर्व इस बात पर है कि फुलबासन ने अपने सतत व अथक प्रयासों और जिला प्रशासन की मदद से 7200 से अधिक महिला समूहों का गठन करके एक इतिहास रच डाला है।
झारखण्ड में हजारीबाग के गांव “हुईरू” में महिलाएं जनसेवा परिषद् नामक स्वयंसेवी संस्था के माध्यम से सामाजिक व आर्थिक सशक्तिकरण की राह पर अग्रसर हो रही हैं। हुर्ईरू गांव की भूमिहीन और वंचित महिलाओं ने 18 स्वसहायता समूहों के माध्यम से परिवार की आय में महत्वपूर्ण योगदान देकर यह सिद्ध कर दिया है कि संगठन में बड़ी शक्ति है।
इसी क्रम में, राजस्थान के जयपुर जिले के कस्बे चौमूं के निकटस्थ गांव उदयपुरिया की ग्रामीण महिलाओं ने “श्यामा स्वयं सहायता समूह” और “आरती स्वयं सहायता समूह” के रूप में संगठित होकर चमड़े की जूतियां (मोजड़ी) बनाने का कार्य प्रारम्भ किया। इस कारण न केवल ये महिलाएं गरीबी के दंश से मुक्त हुई हैं, अपितु उनके परिवार के जीवन स्तर में अपेक्षित सुधार आया है। बच्चों के लिए शिक्षा सुलभ हो गई तथा उनके रहन-सहन, आवास व स्वास्थ्य सुविधाओं में भी सुधार हो रहा है।
बारपेटा जिले में भवानीपुर महतोली गांव की कमला ने “मानस स्वयं सहायता समूह” का गठन करके खाद्य प्रसंस्करण का कुटीर उद्योग प्रारम्भ किया। इस उद्योग के कारण कमला को अपना परिवार पालने में मदद मिल रही है। दिल्ली स्थित शंकर गार्डन में झुग्गी झोपड़ी बस्ती में निवास करने वाली 225 महिलाएं दस स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से जागरूकता व साक्षरता का प्रचार कर रही हैं। चैन्ने के इरूलार समुदाय के लिए स्वयंसहायता समूह वरदान साबित हुए हैं। सदियों से यह समुदाय सांप और चूहे पकड़कर अपने परिवारों की आजीविका चलाते हैं। किन्तु वन्य जीव अधिनियमों के कारण इन परिवारों के भरण-पोषण पर संकट आ गया। ऐसी विकट स्थिति में महिलाओं ने “पौरनामी इरूलार महिला स्वयं सहायता समूह” गठित करके “मछली पालन” का व्यवसाय प्रारम्भ किया। इस वजह से उनके परिवारों को आजीविका का साधन मिल गया तथा उनके जीवन में सकारात्मक बदलाव आए।
राजस्थान के भरतपुर जिले की डीग तहसील में बहताना गांव की महिलाएं “लुपिन वेल्फेयर एंड रिसर्च फाउंडेशन” के माध्यम से “तुलसी माला” निर्माण करके प्रतिमाह 4 से 5 हजार रुपये कमा रही हैं। इस कारण इनके परिवारों की आर्थिक स्थिति मजबूत हुई है तथा इनके बच्चे भी अच्छी शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। स्वयं सहायता समूहों को अधिक प्रभावी बनाने हेतु विशिष्ट प्रशिक्षण की व्यवस्था दीर्घकाल के लिए की जानी चाहिए।द
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