सिंधु घाटी सभ्यता को बचाओ
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पाकिस्तान की पुकार
मुजफ्फर हुसैन
सिंधु घाटी स्थित मोहन जोदड़ो नगर सभ्यता के अवशेष पाकिस्तान में मिलते हैं। हाल ही में कराची में इन अवशेषों के संरक्षण पर एक उच्चस्तरीय चर्चा हुई। पाकिस्तान में हर दिन आतंकवाद और उसके परमाणु हथियार कितने सुरक्षित हैं इस पर तो चर्चा होना कोई आश्चर्य की बात नहीं। लेकिन सिंधु घाटी की सभ्यता, जो मरणासन्न है, के लिए पाकिस्तान के बुद्धिजीवियों की चिंता निश्चित ही अपने आपमें एक आश्चर्य में डाल देने वाली घटना है।
सभ्यता का जादू सर पर चढ़कर बोलता है। आतंकवाद के इस युग में यदि पाकिस्तान जैसा देश सभ्यता के चिह्नों को बचाने की बात करे तो आश्चर्य ही लगता है। मजहब के उन्माद ने सभ्यताओं को हमेशा तहस-नहस किया है। लेकिन जब किसी भी मजहब विशेष का साम्राज्य स्थापित हो जाता है तो फिर वह अपने उस प्राचीन युग में लौटना चाहता है, जहां से इनसान ने अपना जीवन शुरू किया था। पाकिस्तान में आतंकवाद ने न केवल वर्तमान सभ्यता पर प्रश्नवाचक चिह्न लगाया है, बल्कि वह उन वस्तुओं को भी अपनी विरासत मानता है जिनका सदियों पूर्व उद्भव हुआ था। मध्य-पूर्व के अनेक आक्रांताओं ने एशिया की बड़ी-बड़ी सभ्यताओं को रौंद डाला। अपनी विजयश्री के साथ उन्होंने वहां अपने साम्राज्य स्थापित कर लिये। वे जहां आक्रांता बनकर गए उन्होंने जीत के नशे में जो हाथ लगा उसे नष्ट कर दिया। जिसे मूल्यवान समझा अपने साथ ले गए। जिसके बारे में कुछ न समझ सके उसके नामोनिशान मिटा दिये। इतिहास में दो प्रकार के हमलावर देखने को मिलते हैं। एक वे थे, जो लूट का माल प्राप्त कर लेने के पश्चात् अपने देशों को लौट गए। लेकिन दूसरे प्रकार के आक्रांता जो अपने मजहबी जुनून में इतने पागल हो गए थे कि उनके सामने जो कुछ आया उसे शेष नहीं रहने दिया। यह अपनी सत्ता के साथ-साथ अपने मजहब के प्रचार-प्रसार का भी कारण बना। इनमें ईसाइयत और इस्लाम सबसे आगे रहे। यद्यपि हमलावर किसी भी मजहब का हो, वह अपनी समझ के अनुसार अपना प्रभाव जमाने के लिए उस अधीनस्थ देश की सर्वोपरिता को कभी स्वीकार नहीं करता। अपनी भाषा और अपनी मान्यताओं को ही वह श्रेष्ठ समझता है इसलिए उसे प्राचीन मूल्यों के प्रति कुछ पड़ी नहीं होती है। लेकिन जब इस प्रकार के लुटेरे, हमलावर लम्बे समय के बाद वहां स्थायी हो जाते हैं तब उन्हें उस देश और प्रदेश की प्राचीनता के प्रति मन में जिज्ञासा पैदा होने लगती है। वह फिर अपने विश्वस्त दरबारियों और साहित्यकारों के माध्यम से उन अवशेषों की जांच-पड़ताल में जुट जाता है। भारत के पश्चिमी भाग से मध्य एशिया के आक्रांता आते रहे। बाद में समुद्री मार्ग से यूरोपीय जातियां आईं। जब वे समय के साथ स्थायी होने लगे तो उन्हें भारत के विषय में जानने की इच्छा जाग्रत हुई। दोनों प्रकार के आक्रांता अपने मजहब और अपनी संस्कृति को ही महान समझते थे। लेकिन जब उनके कुछ विद्वानों ने खोजबीन शुरू की तो वे आश्चर्यचकित हो गए। उनके सर पर से मजहब का जुनून समाप्त हो चुका था। इसलिए उन्होंने मानव सभ्यता के पृष्ठ उलटने शुरू किये। उनमें एक पृष्ठ था सिंधु घाटी की सभ्यता।
आश्चर्य की बात
पाकिस्तान बनाने और बनने में मजहबी जुनून अपनी ऊंचाई पर था। लेकिन तब तक यह क्षेत्र, जो अखंड भारत का हिस्सा था, उसके प्रति इतनी जानकारी मिल गई थी कि पाकिस्तान बन जाने के बाद भी विश्व सभ्यता के इस अध्याय को वे अनदेखा नहीं कर सके। सिंध का भाग हो या फिर बलूचिस्तान का हिस्सा, इस खराब समय में भी पाकिस्तान के जानकार और विद्वान लोग इस चिंता में डूबे हुए हैं कि मतांधता सिंधु घाटी की सभ्यता को निगल न जाए। सिंधु घाटी सभ्यता यदि आज मतांधता से चिंता के घेरे में है तो भविष्य में पाकिस्तान के पर्यावरण में हो रहे बदलाव के कारण वह संकट की चपेट में आती दिखाई पड़ रही है। भूकंप और बाढ़ उसके दो ऐसे शत्रु हैं जो उसे किसी भी क्षण मटियामेट कर सकते हैं। इसलिए इन दिनों पाकिस्तान में इतिहास और संस्कृति के विशेषज्ञ इस प्रयास में जुटे हैं कि पाकिस्तान की यह विश्व धरोहर येन-केन प्रकारेण बच जाए। इस चिंता में पाकिस्तान का प्रसिद्ध दैनिक 'डान' सबसे अग्रणी है। उसने अपने एक सम्पादकीय में अपनी पीड़ा को व्यक्त किया है, जिसका शीर्षक है 'सिंधु घाटी सभ्यता को बचाएं।' दैनिक 'डान' इस सच्चाई को स्वीकार करता है कि सिंधु घाटी सभ्यता' भारत और पाकिस्तान की साझा सभ्यता की एक मिसाल है। सिंधु घाटी स्थित मोहन जोदड़ो नगर सभ्यता के अवशेष पाकिस्तान में मिलते हैं। हाल ही में कराची में इन अवशेषों के संरक्षण पर एक उच्चस्तरीय चर्चा हुई। पाकिस्तान में हर दिन आतंकवाद और उसके परमाणु हथियार कितने सुरक्षित हैं इस पर तो चर्चा होना कोई आश्चर्य की बात नहीं। लेकिन सिंधु घाटी की सभ्यता जो मरणासन्न है, के लिए पाकिस्तान के बुद्धिजीवियों की चिंता निश्चित ही अपने आपमें एक आश्चर्य में डाल देने वाली घटना है। दैनिक डान लिखता है कि इस चर्चा में कुछ विशेषज्ञों ने यह राय दी है कि उन अवशेषों को दबा दिया जाना चाहिए, क्योंकि जो अवशेष धरातल पर हैं उन्हें बचा पाना कठिन हो गया है। एक तो, जो पुरातत्व के निष्णात हैं, वे कोई ऐसा मार्ग खोज पाने में सफल नहीं हुए हैं जिससे उन्हें बचाया जा सके या उनका संरक्षण किया जा सके। जो भी मार्ग अपनाया जाता है उसका कोई सुखद परिणाम सामने नहीं आया है। विशेषज्ञ एक लम्बे समय से ऐसी तकनीक की तलाश कर रहे हैं, जिससे मिट्टी में बढ़ते जल और लवण के स्तर को काबू किया जा सके। लेकिन अधिकतर विशेषज्ञों का यह कहना है कि यह तो निराशा की बात है और साथ ही आज तक जिन लोगों ने बड़ी मेहनत से इसे खोजकर निकाला है उस पर पानी फेर देने के समान है। इसलिए उन अवशेषों को यदि पाकिस्तानी विशेषज्ञ संभाल नहीं सकते हैं तो इस मामले में हमें विदेशी विशेषज्ञों की सहायता लेनी चाहिए। हमारे पड़ोसी देश भारत के ही अधिकतर विशेषज्ञों ने समय-समय पर इसकी खुदाई की है और इन अवशेषों को ढूंढकर निकाला है। सरकार को यदि भारतीयों से कोई परहेज है तो फिर उन अमरीकी विश्वविद्यालयों के जानकारों को आमंत्रित करना चाहिए जो पाकिस्तान बनने के पश्चात् लगातार इस संबंध में हमारी सहायता कर रहे हैं। लेकिन भय इस बात का है कि इन दिनों पाकिस्तान में अमरीका विरोधी वातावरण है इसलिए उग्रवादी और इस्लामी कट्टरवादी अमरीकियों को पाकिस्तान में फटकने देना नहीं चाहते। इसलिए अब यदि पड़ोसी देश भारत से इस मामले में सलाह ली जाए तो बेहतर है।
सभ्यता का रक्षक भारत
डान इस बात को स्वीकार करता है कि 64 साल पहले का भारत ही इस सभ्यता का रक्षक और पोषक था। भारतीय इसके गूढ़ रहस्यों को जानते और समझते रहे हैं। इसलिए अच्छा होगा कि भारत को आमंत्रित किया जाए। यद्यपि 'डान' ने इस बात की चर्चा नहीं की है, लेकिन पाकिस्तान में सभ्यता विशेषज्ञों का कहना है कि सिंधु घाटी की सभ्यता से ही स्वस्तिक की पुष्टि होती है, जो भारतीय सभ्यता की अनुपम देन है। अब यदि कोई निष्णात इस कटु सत्य को स्वीकारेगा तो क्या पाकिस्तान के तालिबान और कट्टरवादियों के गले यह तथ्य उतर सकेगा? इसलिए पाकिस्तान में संस्कृति के रक्षकों के सामने यह जटिल प्रश्न है कि वे अपनी इस सांस्कृतिक सम्पदा की रक्षा किस प्रकार करें।
पाकिस्तान में सिंधु घाटी के अवशेषों को सबसे अधिक नुकसान पाकिस्तान में बार-बार आने वाली बाढ़ के पानी से हुआ है। सिंधु घाटी सभ्यता के जहां अवशेष हैं वहां पानी भर जाता है और आसपास की माटी ढह जाती है। इससे अवशेषों को भारी खतरा हो जाता है। पानी में क्षार की मात्रा होती है तो वह उसे नष्ट करने में कोई कसर नहीं रखता है। पिछले कुछ वर्षों में सिंधु घाटी के आसपास विशेषतया बलूचिस्तान और वजीरिस्तान के दक्षिण एवं पूर्वी भागों में भूकंप के झटके कई बार लगे हैं। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि जो अवशेष अब केवल माटी के ढेर समान रह गए हैं वे इस प्राकृतिक विपदा को किस तरह से सुरक्षित रख सकेंगे। पाकिस्तान सरकार ने इस मामले में यूनेस्को से मदद चाही है लेकिन अब तक कोई सकारात्म्क उत्तर नहीं मिला है। काम की बात तो यह थी कि जब पिछले दिनों मालद्वीप में दक्षेस सम्मेलन हुआ उस समय यदि यह बात भारत के सम्मुख रखी गई होती तो निश्चित ही उसका सुखद परिणाम आता। लेकिन पाकिस्तान के नेताओं के सिर पर तो राजनीति चढ़कर बोलती है, इसलिए इस प्रकार की समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता। दैनिक 'डान' ने इस बात को स्वीकार किया है कि यह पाकिस्तान के बलबूते की बात नहीं कि वह अकेला इस सभ्यता पर आए संकट को दूर कर सके। वह प्रागैतिहासिक नगरों को बचाने में सक्षम नहीं है। यूनेस्को की ओर से मिलने वाली सहायता भी इस समय नहीं आ रही है इसलिए इस संबंध में जागरूकता फैलाने की आवश्यकता है। डान लिखता है दुनिया मिस्र और मेसोपोटामिया की सभ्यता को बचाने में लगी हुई है लेकिन सिंधु घाटी की बात कोई नहीं करता।
मंडरा रहा है संकट
पाठक भली प्रकार जानते हैं कि ब्रिटिश काल में 1920 से इस सभ्यता के अवशेषों की खोज की जा रही थी। लेकिन पाकिस्तान बन जाने के बाद उसकी रफ्तार सुस्त हो गई। प्राचीन लिपि को तो समझना अब भी कठिन है लेकिन खुदाई में जो वस्तुएं मिली हैं उनसे उस काल के अनेक रहस्यों को समझा जा सका है। हड़प्पा इस सभ्यता का सबसे बड़ा नगर था। ईसा के जन्म से 2600 वर्ष पूर्व इस सभ्यता का उद्भव हुआ था। मोहन जोदड़ो, हड़प्पा और धोलापुरा में मकान, स्नानघर और पानी बहने की नालियां इन ईंटों से बनी मिलती हैं। निजी कुएं और पानी एकत्रित करने के तरीकों की भी जानकारी मिलती है। हड़प्पा के आसपास मानव जाति की हड्िडयों के ढांचे भी मिले हैं। ऋग्वेद में जिस सरस्वती नदी की चर्चा है, बताया जाता है कि वह नदी यहीं पर बहती थी। इनसानी सभ्यता के हर आयाम के ढेरों खजाने भरे पड़े हैं लेकिन आज तो इन पर संकट मंडरा रहा है।
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