देसी खुदरा बाजार को बचाने की जन-हुंकार
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बचाने की जन–हुंकार
पाञ्चजन्य पहले भी चेतावनी दे चुका है
पाञ्चजन्य के इसी स्तंभ में 17 दिसंबर 2006, 2 सितम्बर 2007 और 5 सितम्बर 2010 को तीन लेख लिखकर इस षड्यंत्र के स्वरूप और उसके आत्मघाती परिणामों का विस्तृत विवेचन देशवासियों तक पहुंचाने का विनम्र प्रयास पहले भी किया गया।
आज जब ये पंक्तियां लिखी जा रही हैं, तब भारतीय संसद का शीतकालीन सत्र आठवें दिन भी ठप्प पड़ा है और अगले दिन तक स्थगित किया जा चुका है। यह स्थिति क्यों पैदा हुई, क्योंकि संसद सत्र आरंभ होने के एक दिन पहले सोनिया-मनमोहन सरकार ने एक मंत्रिमंडलीय बैठक में भारत के खुदरा व्यापार में 51 प्रतिशत विदेशी पूंजी निवेश को प्रवेश की अनुमति देने का निर्णय घोषित कर दिया। जबकि इस निर्णय का उनकी गठबंधन सरकार के तृणमूल कांग्रेस और द्रमुक जैसे दो बड़े घटक दलों ने खुला विरोध किया था और सोनिया पार्टी के अपने भी कुछ मंत्री इस निर्णय के पक्ष में पूरी तरह से नहीं थे। भाजपा से लेकर वामपंथी दलों तक पूरा विपक्ष इस निर्णय के विरोध में लामबंद होकर मैदान में उतर आया। वह सकते में आ गया कि जिस सत्र में महंगाई, मुद्रा स्फीति, भ्रष्टाचार और लोकपाल बिल जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए थी, उस संसद के सत्र को खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी निवेश का मुद्दा उछालकर सरकार ने पटरी से उतारने की रणनीति क्यों अपनायी? उसकी असली मंशा क्या है? विपक्ष के बार-बार अनुरोध करने पर भी वह इस अदूरदर्शी, आत्मघाती निर्णय को वापस लेने को तैयार क्यों नहीं हो रही है? प्रधानमंत्री इस तर्क की आड़ क्यों ले रहे हैं कि केन्द्र सरकार अपने निर्णय पर अटल है, पर राज्य सरकारें इसे लागू कराने या न कराने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र हैं? क्या वे विभिन्न राज्य सरकारों में इस मुद्दे पर कटु प्रतिस्पर्धा आरंभ कराना चाहते हैं? एक बार केन्द्रीय सरकार का नीतिगत निर्णय हो जाने पर क्या विदेशी पूंजी के प्रवेश का दरवाजा बंद करना संभव होगा? इससे भी अधिक चौंकाने की बात यह है कि अपनी रहस्यमय बीमारी के बाद पहली बार चुप्पी तोड़कर सोनिया अपने युवराज के राज्याभिषेक का रास्ता तैयार करने के लिए दिल्ली के रोहिणी स्थित जापानी पार्क में सरकारी खर्च पर 'बुनियाद' नाम से आयोजित यूथ कांग्रेस के तमाशे में पूरे देश को उद्वेलित करने वाले इस विषय पर एक शब्द नहीं बोलीं। अपनी स्वभावगत शैली के अनुसार उन्होंने विपक्ष और जनता के आक्रोश का हमला झेलने के लिए मनमोहन सिंह और प्रणव मुखर्जी को ही सामने खड़ा कर दिया।
खुदरा बाजार का महत्व
वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा अखबारों में पूरे-पूरे पृष्ठ के सरकारी विज्ञापनों के द्वारा खुदरा बाजार में विदेशी पूंजी निवेश के फायदे बता रहे है, मुख्यमंत्रियों को लम्बी-लम्बी चिट्ठियां लिख रहे हैं कि भारत में वालमार्ट जैसी विदेशी दुकानों की श्रृंखला खुलने से एक करोड़ नौकरियों का सृजन होगा। पर, यह नहीं बता रहे हैं कि कितने करोड़ खुदरा व्यापारी बर्बाद होंगे, उन पर आश्रित उनके अपने कितने करोड़ लोग और उनके 16 करोड़ छोटे कर्मचारियों के परिवारों पर क्या असर पड़ेगा? अनेक सर्वेक्षणों के अनुसार भारत में पटरी पर रेहड़ी लगाने वाले व टोकरी में फल-सब्जी बेचने वाली गरीब बुढ़िया से लेकर बड़ी दुकानों तक कम से कम दो करोड़ परिवार खुदरा व्यापार से अपने परिवार का पेट पालते हैं। इस व्यापार में चार लाख करोड़ रुपये की पूंजी लगी हुई है। भारत के सकल घरेलू उत्पाद का साढ़े सात प्रतिशत भाग इस व्यापार से आता है। इस व्यापार पर कुछ मुट्ठी भर पूंजीपतियों का कब्जा नहीं है। वे करोड़ों व्यापारी अपनी-अपनी हैसियत के अनुसार कम-अधिक पूंजी लगाकर छोटी-सी दुकान या खोमचा लगाते हैं, पर वे स्वावलम्बी हैं, स्वतंत्र हैं। यह विकेन्द्रित और सीढ़ीनुमा खुदरा व्यापार प्रणाली ही भारत की प्राणशक्ति है। इससे पूंजी का एकत्रीकरण नहीं हो पाता।
जबकि पश्चिमी देशों की पूंजी का एकत्रीकरण हो गया। ग्राहकों में क्रेडिट कार्ड से उधार लेने की प्रवृत्ति पैदा हुई, 'कर्जा लो और घी पियो' का दर्शन जीवन पर छा गया। एक ओर अधिक से अधिक लाभ कमाने का लालच और दूसरी ओर कर्ज लेने की प्रवृत्ति, इसी में से वह आर्थिक संकट पैदा हुआ जो आज अमरीका, ब्रिटेन, स्पेन, इटली और ग्रीस जैसे देशों में जनांदोलनों का कारण बना हुआ है। इस मंदी के काल में भी यदि भारतीय अर्थनीति ढहने से बची रही है तो इसका एकमात्र कारण यह परंपरागत सीढ़ीनुमा विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था है। भारत के इस विशाल खुदरा बाजार पर कब्जा जमाने का लालच इन विदेशी और स्वदेशी पूंजीपतियों के मन को गुदगुदा रहा है।
लालच का बाजार
ये विदेशी कंपनियां भारतीय पूंजीपतियों से गठबंधन करके पहले बड़े-बड़े 53 शहरों में अपने विशाल मॉल स्थापित करेंगी। उन्हें विदेशी आकर्षक उत्पादों से पाट देंगी। सुंदर युवतियों को 'सेल्समैन' के रूप में खड़ा कर देंगी, और धीरे-धीरे अपने पैर गांवों की ओर पसारकर उस गरीब बुढ़िया, उस बेसहारा विधवा, उस अनपढ़ गरीब की रोजी छीन लेंगी जो पटरी पर बैठकर, मुहल्ले में रेहड़ी लगाकर, साप्ताहिक बाजारों में 'फड़' लगाकर कम से कम मुनाफे पर माल बेचकर अपने परिवार का पालन-पोषण करता है। मजबूरी में ही क्यों न हो सादगी की जिंदगी जीता है। भारत सरकार के वर्तमान नीति निर्माता विदेशी 'मॉल कल्चर' से चौंधियाकर वही संस्कृति कल्चर भारत पर भी थोपने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं। 'मॉल कल्चर' और विदेशी पूंजी निवेश का यह षड्यंत्र आज से नहीं कई वर्षों से चल रहा है।
हम स्वयं पाञ्चजन्य के इसी स्तंभ में 17 दिसंबर, 2006, 2 सितम्बर, 2007 और 5 सितम्बर, 2010 को तीन लेख लिखकर इस षड्यंत्र के स्वरूप और उसके आत्मघाती परिणामों का विस्तृत विवेचन देशवासियों तक पहुंचाने का विनम्र प्रयास कर चुके हैं। 17 दिसम्बर, 2006 के लेख का शीर्षक था 'करोड़ों खुदरा व्यापारी क्या खाऐंगे?' 2 सितम्बर, 2007 के लेख को हमने शीर्षक दिया था, 'बर्बादी से डरे करोड़ों खुदरा व्यापारी, संघर्ष को मजबूर' और 5 सितम्बर, 2010 के लेख का शीर्षक है 'खुदरा बाजार में विदेशी पूंजी-सीढ़ीनुमा विक्रेन्द्रित अर्थव्यवस्था पर हमला।' उस लेख में हमने अण्णा हजारे के अठारहवीं शताब्दी के ईस्ट इंडिया कंपनी की गुलामी वाले तर्क को प्रस्तुत करते हुए चेतावनी दी थी कि 6 जुलाई, 2010 को भारत सरकार के औद्योगिक नीति एवं प्रोत्साहन विभाग (डीआईपीपी) ने वाणिज्य विभाग से सिफारिश की है कि किराना या खुदरा बाजार में 51 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश को अविलम्ब लागू कर दिया जाए। तभी से पर्दे के पीछे इस दिशा में षड्यंत्र आगे बढ़ रहा था। हमने तभी यह रहस्योद्घाटन भी किया था कि इस षड्यंत्र को आगे बढ़ाने के लिए 'वालमार्ट' जैसी शक्तिशाली विदेशी कंपनियां भारत में 'लाबिंग' पर करोड़ों रुपए खर्च कर रही हैं।
वालमार्ट की पहुंच
उन्हीं दिनों अमरीकी सीनेट के समक्ष पेश एक रपट के अनुसार 'वालमार्ट' भारत के खुदरा बाजार में पूंजी निवेश की अनुमति पाने के लिए दो साल (2008-09) में 52 करोड़ रुपये खर्च कर चुकी है। 2010 की पहली तिमाही में उसने 'लाबिंग' पर छह करोड़ रुपये खर्च किये। कल (30 नवम्बर, 2011) के दैनिक भास्कर में प्रकाशित समाचार के अनुसार 'वालमार्ट' ने भारत में 'लाबिंग' पर 70 करोड़ रुपये खर्च किए हैं जिसमें 2011 की पहली तिमाही में खर्च की गई 10 करोड़ रुपये की राशि भी सम्मिलित है। सवाल है कि यह राशि किसकी जेब में गई? क्या भारतीय नौकरशाहों की जेब में नहीं गयी? भारत में लाबिंग करने वाली इन विदेशी कंपनियों की आर्थिक ताकत को समझना आवश्यक है। अकेले 'वालमार्ट' के 88 देशों में 4800 से अधिक 'रिटेल स्टोर' हैं। उसके पास 14 लाख कर्मचारियों की विशाल सेना है। और उसकी सालाना आमदनी 350 अरब डालर से अधिक है। इतनी विशाल धनशक्ति को लेकर जब वह भारत में प्रवेश करेगी तो भारत के छोटे खुदरा व्यापारियों को उखाड़ने के लिए वह अपने चमक-दमक वाले स्टोरों पर शुरू में बाजार भाव से कम कीमतें रखकर ग्राहकों को रिझाएगी। उसकी धनशक्ति के सामने ये बेचारे कहां टिक पाएंगे। उसी प्रकार वह शुरू में किसानों को उनके उत्पाद के लिए महंगा भाव चुकाएगी और धीरे-धीरे ईस्ट इंडिया कंपनी की तरह उन्हें अनुबंधित कर अपना गुलाम बना लेगी। भारत के बाजार विदेशी उत्पादों से पट जाएंगे। भारत की जीवनशैली पूरी तरह बदल जाएगी और गांधी जी के 5 अक्तूबर, 1945 को नेहरू को लिखे पत्र की यह चेतावनी सत्य सिद्ध हो जाएगी कि 'भले ही भारत भी शेष दुनिया का अनुकरण कर उस पतंगे के समान जो आधुनिक सभ्यता की लौ की चमक से आकर्षित होकर उसके चारों ओर मंडरा कर अपने को भस्म करने की कोशिश करे, पर मेरा धर्म है कि मैं अकेला खड़े रहकर उसे चेतावनी दूं।'
आज यही हो रहा है। एक ओर श्रमरहित, पर्यावरण हंता बाह्य सुख देने वाले अनेक उपकरण हमें लुभा रहे हैं, दूसरी ओर हम सभ्यता पर विनाश के मंडराते बादलों को देखकर उसकी रक्षा की गुहार मचा रहे हैं। इन दोनों के घनिष्ठ रिश्ते की ओर से आंख मूंद रहे हैं। आधुनिक जीवनशैली के लोभ में घर-घर में मोबाइल फोन, कम्प्यूटर, फ्रिज, एयरकंडीशनर, टेलीविजन, तरह-तरह के सौंदर्य प्रसाधन पहुंचाने की होड़ में लगे हैं। दनादन सॉफ्टवेयर इंजीनियरों, डाक्टरों, एमबीए आदि की फौज खड़ी कर रहे हैं। आकर्षक विशाल 'मॉलों' में जाकर महंगी वस्तुएं खरीदने में शान समझ रहे हैं। अमरीका आदि तथाकथित विकसित पाश्चात्य देशों के अंधानुकरण को ही विकास समझ रहे हैं। विकास के इस पश्चिमी मॉडल पर लम्बी-चौड़ी शाब्दिक बहस से आगे बढ़कर अपनी परंपरागत विकेन्द्रित स्वाबलम्बी व प्रकृति पोषक सादा जीवनशैली की ओर वापस लौटने का साहस नहीं बटोर पा रहे हैं।
राजनीतिक दलों की भूमिका
पं.दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद और आर्थिक जीवन दर्शन के प्रति शाब्दिक निष्ठा प्रकट करने वाली भारतीय जनता पार्टी ने भी कभी मन, वचन और कर्म के स्तर पर विकास के उस वैकल्पिक पथ पर आगे बढ़ने का साहस नहीं दिखाया। हमारी बार-बार की चेतावनी के बाद भी खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी के हमले के विरोध में देशव्यापी आंदोलन खड़ा नहीं किया। जबकि उसके राजनीतिक स्वार्थ की भी मांग थी कि वह खुदरा व्यापारियों के अपने विशाल कस्बाई जनाधार को बचाने के लिए 'मॉल कल्चर' और विदेशी पूंजी निवेश के विरुद्ध जनांदोलन का सृजन करे। अब जब वह खतरा सर पर मंडराने लगा है, पूरा व्यापारी वर्ग, किसान वर्ग व मजदूर संगठन विदेशी पूंजी के इस हमले के विरुद्ध एकजुट होकर खड़े हो गये हैं, तब सब राजनीतिक दल इस प्रश्न पर लामबंद हुए हैं। बसपा, सपा, बीजद, जदयू आदि सभी क्षेत्रीय दल भारत के परम्परागत खुदरा बाजार की रक्षा की गुहार लगा रहे हैं। अब उन्हें दिखायी दे रहा है कि केवल पढ़े-लिखे कर्मचारियों के लिए विदेशी कंपनियों की नौकरी दिलाने से अधिक उनका अपना जनाधार उस विशाल वर्ग पर खड़ा है जो अनपढ़ हैं, गरीब है, पर स्वाभिमानी है, स्वाबलंबी है, और छोटा-मोटा खोमचा लगाकर स्वतंत्र जिंदगी जीना चाहता है। आज यह वर्ग खड़ा हो गया है, इन पंक्तियों को लिखे जाते समय पूरा भारत बंद है, सब बाजार सूने पड़े हैं। शायद यह भारत की अन्तर्हित प्राणशक्ति की हुंकार है। यह इस बात का प्रमाण है कि भारत अपनी जड़ों से पूरी तरह उखड़ा नहीं है, वह अपने स्वत्व की रक्षा के प्रति अभी भी जागरूक है। किंतु क्या सरकार और विपक्ष के राजनेता अपने चुनावी लाभ-हानि से ऊपर उठकर राष्ट्र और मानव सभ्यता के दूरगामी हितों की भी चिंता कर सकेंगे? हम पुन: 26 अगस्त, 2010 को लिखित और 5 सितम्बर, 2010 को प्रकाशित अपनी इस चेतावनी को दोहराना चाहेंगे कि 'आर्थिक स्वाबलम्बन के लिए विदेशी पूंजी के प्रवेश को रोकना आवश्यक है। भारतीय कुटीर उद्योगों व संयमित उपभोग की परंपरागत जीवन शैली को बचाने का भी यही एक मार्ग हो सकता है।' पाश्चात्य जीवन शैली को आदर्श मानने वाला छोटा-सा नव-धनाढ्य मध्यम वर्ग भारत का प्रतिनिधि कहलाने का अधिकारी नहीं है। सच्चा प्रतिनिधि तो वह विशाल वर्ग है जो अभी भी अशिक्षा और गरीबी का जीवन जी रहा है। उसके जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं को पूरा करने की स्वावलम्बी अर्थरचना खड़ी करना, यही भारत की प्रगति की सच्ची कसौटी है।
(1 दिसम्बर, 2011)
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