चर्चा सत्र
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हृदय नारायण दीक्षित
हिन्दी मातृभाषा है। मातृभाषा यानी मां से मिली वाणी। अंग्रेजी भारत को गुलाम बनाने वालों की भाषा है। भारत की संविधान सभा में देश की राजभाषा पर बहस हो रही थी। जवाहर लाल नेहरू ने अंग्रेजी को 'विजेता की भाषा' बताया। कहा कि, अंग्रेजों ने भारत पर शासन किया, अंग्रेजी सरकारी कामकाज की भाषा हो गयी। संविधान सभा में संस्कृत को राजभाषा बनाने की बात भी उठी। डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने संस्कृत को दुनिया की सबसे प्रामाणिक भाषा बताया। संस्कृत की पैरोकारी कुछ अन्य सदस्यों ने भी की। लेकिन संस्कृत पर विद्वानों की भाषा होने का तमगा टांग दिया गया। यानी अंग्रेजी संविधान निर्माण के वक्त (1947-50 ई0) भी भारत के विद्वानों की भी भाषा नहीं थी। बेशक कलेक्टर, कप्तान और ऊपर वाले अफसर आपसी बातचीत अंग्रेजी में करते थे, पर शिकायतों की सुनवाई हिन्दी में ही होती थी। लोग हिन्दी में शिकायती पत्र देते थे, अनुरोध भी लोकभाषा में ही करते थे, कलेक्टर या कप्तान तब हिन्दी में ही बातें करते थे। तब अंग्रेजी देश की कामचलाऊ राजभाषा क्यों बन गयी?
बेतुका निर्देश
असल में कांग्रेस के बड़े नेता अंग्रेजी में बात करते थे। अंग्रेजी में पत्र व्यवहार करते थे। महात्मा गांधी ने कांग्रेसजनों को हिदायत दी कि वायसराय से भी हिन्दी में ही बात होनी चाहिए, लेकिन कुछ नेताओं को छोड़ पूरी कांग्रेस पर अंग्रेजी की ठसक थी। नेहरू ने ही अंग्रेजी को चलाए रखने की व्यवस्था कराई। संविधान सभा ने हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया और अंग्रेजी में ही काम करते रहने का रास्ता निकाला गया। हिन्दी अपमानित हुई, अंग्रेजी छा गयी। अंग्रेजी को देश की प्रिय भाषा बनाने का काम तब सरकार ने ही किया था। केन्द्र के राजभाषा विभाग ने अब इसी दिशा में पिछले दिनों एक और बेतुका निर्देश जारी किया। सभी राजभाषा अधिकारियों को निर्देश दिए गये कि वे 'कृत्रिम हिन्दी' के शब्द प्रयोग से बचें। बोलचाल वाले अंग्रेजी शब्दों की जगह बोझिल और कठिन हिन्दी के शब्दों को बढ़ावा न दें। केन्द्रीय राजभाषा विभाग ने हिन्दी के वास्तविक शब्दों को 'कृत्रिम हिन्दी' कहा है। सरकारी परिपत्र के अनुसार, भोजन कठिन शब्द है और 'लंच' सरल। वर्षाजल की जगह 'रेनवाटर' को सरल बताया गया है। इसी तरह छात्रों को 'स्टूडेन्ट्स', नियमित को 'रेगुलर', उच्च शिक्षा को 'हायर एजूकेशन' कहने को सरल और प्रवाहमान बताया गया है। स्वाभिमानशून्यता की हद है यह, इसका उद्देश्य भारतीय संस्कृति की हत्या है। पहले मातृभाषा, राजभाषा में अंग्रेजी का प्रयोग, फिर अंग्रेजी को ही देश की भाषा बनाना इनका षड्यंत्र है। उनकी मानें तो कहना होगा कि यह उनका 'इण्डियापन' है।
संविधान में हिन्दी को समृद्ध बनाने के विशेष निर्देश (अनु. 351) हैं- 'संघ (केन्द्र) का यह कर्त्तव्य होगा कि वह हिन्दी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे ……. और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिन्दुस्थानी में और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहां आवश्यक या वांछनीय हो वहां उसके शब्द भंडार के लिए मुख्यत: संस्कृत से और गौणत: अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे।' अर्थात संविधान मुख्यत: संस्कृत से शब्द लेने पर जोर देता है। जबकि राजभाषा विभाग के वर्तमान अधिकारी अंग्रेजी के शब्द शामिल करने पर जोर दे रहे हैं।
संस्कृत का महत्व
अंग्रेजी बोलना आधुनिकता मान ली गई है। नई पीढ़ी अंग्रेजी पढ़ती है और बोलना भी चाहती है। इस पीढ़ी की कोई गलती नहीं है। लेकिन नुकसान उसका ही हो रहा है। भारत का युवा विश्व दर्शन, ज्ञान-विज्ञान, योग, अभिनय कला तथा अर्थशास्त्र जैसे निरे भौतिक विषयों के मूल स्रोत से वंचित हो गया। पतंजलि का 'योगसूत्र' संस्कृत में है। योग विज्ञान के सूत्र और स्रोत के लिए संस्कृत का ज्ञान जरूरी है। व्याकरण भाषा का अनुशासन है। विश्व का प्रथम व्याकरण पाणिनि ने बनाया। यह संस्कृत में है। पतंजलि ने संस्कृत में ही 'महाभाष्य' लिखा। पाणिनि और पतंजलि के व्याकरण सूत्रों और योग विज्ञान के दर्शन का ठीक-ठीक अनुवाद असंभव है। विश्वदर्शन का प्रथम सूर्योदय उपनिषद् ग्रन्थ है। प्रकृति और ब्रह्म की गहन आत्मानुभूति का नाम ही उपनिषद् साहित्य है। इसका तत्वत: अनुवाद नहीं हो सकता। प्रेम की भाषाई अभिव्यक्ति असंभव है, लेकिन उपनिषद् के रचनाकारों ने प्रेम को शब्द और दर्शन बनाया।
भारत के 6 दर्शन आधुनिक विश्व दर्शन के मार्गदर्शक हैं। सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदांत संस्कृत में हैं। दुनिया का सबसे बड़ा महाकाव्य महाभारत (लगभग 98,000 श्लोक) संस्कृत में है। विश्व दर्शन दिग्दर्शन की गीता संस्कृत में है। विश्व का प्रथम अर्थशास्त्र कौटिल्य ने संस्कृत में ही लिखा। सिनेमा आज अभिनय कला का माध्यम है। भरत मुनि के नाट्य शास्त्र में अभिनय के मूल स्रोत हैं। विश्व आयुर्विज्ञान के सूत्र चरक में हैं। वाल्मीकि रामायण संस्कृत में है। विश्व का प्राचीनतम ज्ञान ऋग्वेद भी संस्कृत में हैं। यहां दर्शन, जिज्ञासा, विज्ञान, प्रकृति और काव्य कला के मूल स्रोत हैं। यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद भी संस्कृत में ही हैं। ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् संस्कृत में ही हैं। कालिदास, भवभूति की विख्यात कृतियां संस्कृत में हैं। शंकराचार्य ने 13 महत्वपूर्ण उपनिषदों पर मूल्यवान भाष्य लिखा, वह भी संस्कृत में है। हजारों मूल्यवान कृतियां संस्कृत में ही हैं। भारतीय संस्कृति, परम्परा के सभी सूत्र संस्कृत में हैं।
अनुत्तरित प्रश्न
मूल प्रश्न यह है कि हजारों श्लोकों वाले विशाल ग्रन्थ किसके पढ़ने के लिए लिखे जा रहे थे? क्या आज की तरह पुस्तकालयों की खरीद के लिए ऐसे विशाल ग्रन्थ रचे गये थे? जाहिर है कि संस्कृत तब आम आदमी की बोलचाल की भाषा थी। लोग संस्कृत पढ़-समझ रहे थे, कवि और रचनाकार संस्कृत में ही लिख रहे थे। संस्कृत के ग्रन्थ लोक-व्याप्त थे। लोग उन्हें पढ़ रहे थे। उनके लेखक और विषय भी लोकप्रिय थे। संस्कृत पहले लोकभाषा थी, लोक बोली थी। संस्कृत भारत की कर्म भाषा थी, इसीलिए बाद में यही कर्मकाण्ड की भी भाषा बनी। संस्कृत का अध्ययन किए बगैर भारत की, अपने प्राचीन इतिहास की जानकारी नहीं हो सकती।
संस्कृत लोकभाषा थी। इस संदर्भ में भाषाविज्ञानी डा. रामविलास शर्मा ने कई तर्क दिये हैं, उन्होंने ऋग्वेद की भाषा को भी लोकभाषा बताया है। संस्कृत भारत का अन्तर्मन है। राष्ट्र सांस्कृतिक प्रवाह में ही गतिशील रहते हैं। भारत के सांस्कृतिक प्रवाह का मूल उद्गम ऋग्वेद हैं। दर्शन की अभिव्यक्ति का विस्तार उपनिषद है। संस्कृत को मृत भाषा मानने वाले लोग राष्ट्रप्रेमी नहीं हो सकते। इसलिए हिन्दी को सरल बनाने के नाम पर उसके मौलिक स्वरूप को विकृत करने का षड्यंत्र रोका जाना चाहिए। क्या अब हिन्दी भी अंग्रेजी में लिखी-पढ़ी जाएगी?
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