सरकार की ढुलमुल नीति
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सुरक्षा बलों की जांबाजी पर भारी न पड़े
नरेन्द्र सहगल
करीब आधा दर्जन राज्यों में नक्सली हिंसा का नेतृत्व कर रहे किशन जी के मारे जाने से निश्चित ही माओवादियों की ताकत कमजोर पड़ेगी, लेकिन केन्द्र सरकार की ढुलमुल नीति के चलते सुरक्षा बलों की यह जांबाजी कितनी परिणामकारी होगी, यह कहना मुश्किल है।
जब तक हिंसक माओवादियों, जिहादी आतंकियों और मजहबी उपद्रवियों को प्राप्त राजनीतिक संरक्षण समाप्त नहीं होता तब तक देश की आंतरिक सुरक्षा पर खतरे के बादल मंडराते रहेंगे। अत: आवश्यकता है एक सर्वसम्मत सुरक्षा नीति की।
कुख्यात नक्सली किशनजी की मुठभेड़ में मौत
प. बंगाल के जंगलमहल क्षेत्र में सुरक्षाबलों की संयुक्त कमान के हाथों मुठभेड़ में प्रमुख नक्सली नेता कोटेश्वर राव (किशन जी) के मारे जाने से कोबरा फोर्स को एक बड़ी सफलता मिली है। करीब आधा दर्जन राज्यों में नक्सली हिंसा का नेतृत्व कर रहे किशन जी के मारे जाने से निश्चित ही माओवादियों की ताकत कमजोर पड़ेगी, लेकिन केन्द्र सरकार की ढुलमुल नीति के चलते सुरक्षा बलों की यह जांबाजी कितनी परिणामकारी होगी, यह कहना मुश्किल है।
साधारण जीवन जीने के लिए जरूरी वस्तुओं के निरंतर बढ़ रहे दामों से दम तोड़ रही साधारण जनता को थोड़ी भी निजात दिलाने में विफल रही संप्रग सरकार देश के आम नागरिक को सुरक्षा देने में भी पूर्णतया नाकाम रही है। आम लोगों के जान-माल पर निर्ममतापूर्वक चोट कर रहे माओवादी नक्सली, पाकिस्तान के एजेंट जिहादी आतंकवादी और पूर्वोत्तर में अनेक हिंसक अलगाववादी संगठन अपनी मारक क्षमता में निरन्तर वृद्धि करते चले जा रहे हैं। उनके सामने मानो देश और प्रदेश की सरकारें बेबस हैं। सत्ताभिमुख राजनीति कर रही कांग्रेस की नीतियों और नीयत पर अनेक सवालिया निशान लगने के बावजूद देश की आन्तरिक सुरक्षा पर खतरा बढ़ता जा रहा है।
हिंसावादी और दलगत राजनीति
देश में सक्रिय विदेश प्रेरित शक्तियों के गुप्त ठिकानों, उनके हथियार-भण्डारों, उनकी कार्यपद्धति और उनके निशानों की पूरी जानकारी सरकार और सरकारी गुप्तचर एजेंसियों के पास रहती है। परन्तु इन शक्तियों को समाप्त करने के लिए जिस तरह का सक्षम राजनीतिक नेतृत्व चाहिए उसका अभाव आन्तरिक सुरक्षा पर भारी पड़ रहा है। यही वजह है कि हिंसावादियों को ठिकाने लगाने के लिए अभी तक न तो कोई सख्त कानून बन पाया, न कोई सक्षम सुरक्षा तंत्र विकसित हो सका और न ही कोई सर्वसम्मत सुरक्षा-नीति बनाई जा सकी।
यही वजह है कि आम नागरिक के जान-माल के असुरक्षित होने की। राजनीतिक दलों की कुर्सी हड़पने की अंधी दौड़, जाति/मजहब आधारित चुनाव प्रणाली, हाथ में आई सत्ता पर चिपके रहने की नीयत और अपराधी तत्वों की सत्ताधारियों तक पहुंच इत्यादि कुछ ऐसी ठोस बाधाएं हैं जिन्हें रास्ते से हटाए बिना न तो हमारे सुरक्षाबल हिंसावादी तत्वों से बलपूर्वक निपट सकते हैं और न ही सुरक्षा की गारंटी दे सकते हैं। इस तरह की दलगत राजनीति हिंसावादी ताकतों का सहारा बनती है।
शत्रु देशों के एजेंट हैं उपद्रवी
भारत में संचालित हो रहीं सभी प्रकार की हिंसक गतिविधियों का गहराई से चिंतन करने पर स्पष्ट दिखाई देगा कि कमजोर राजनीतिक इच्छा-शक्ति और स्वार्थपरक दलगत नीयत ही हिंसा फैलाने वालों की ताकत बन रही है। देश के उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक सैकड़ों उपद्रवी संगठन अस्तित्व में आ चुके हैं। कश्मीर घाटी, बिहार, बंगाल, असम, नागालैण्ड, मणिपुर इत्यादि क्षेत्रों में जन्मे इस तरह के हथियारबंद संगठनों का विस्तार आज सारे देश में हो रहा है। इन तत्वों के तार कहीं न कहीं राजनीतिक नेताओं की व्यक्तिगत अथवा दलगत महत्वाकांक्षा के साथ जुड़े होते हैं। यही तार इन संगठनों में शक्ति का संचार करते हैं।
चिन्ता का गंभीर विषय तो यह है कि देश की आंतरिक सुरक्षा को खतरे में डाल रहे प्राय: सभी हिंसावादी संगठनों को दिशा निर्देश विदेशों से मिलते हैं। भारत के शत्रुओं के एजेंटों के रूप में काम करने वाले इस तरह के संगठनों को हथियारों और धन की सहायता के साथ राजनीतिक संरक्षण भी मिलता है। यह संरक्षण उन लोगों के माध्यम से मिलता है जो विदेश निष्ठ और विदेश प्रेरित विचारधारा पर आधारित न केवल राजनीतिक दलों को ही चलाते हैं, अपितु गठबंधन राजनीति का फायदा उठा कर सत्ता पर भी काबिज हो जाते हैं।
जिहादी आतंक का असली चेहरा
आन्तरिक सुरक्षा पर बने इस भयानक खतरे के बादलों ने स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत पश्चात ही मंडराना प्रारम्भ कर दिया था। कश्मीर घाटी में आज भारत विरोध के जो स्वर मुखरित हो रहे हैं इनकी शुरुआत भी राजनीतिक संरक्षण की देशघातक परम्परा से ही हुई थी। पाकिस्तान समर्थक कट्टरपंथी मुस्लिम नेता शेख मुहम्मद अब्दुल्ला को प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू का संरक्षण, फिरका-परस्त तालीम देने वाले मदरसों को प्रदेश की सरकारों का सहारा, आतंकवादियों पर हुर्रियत कान्फ्रेंस और मुस्लिम लीग का कवच और एन सी/ पी.डी.पी. की स्वायत्तता/स्वशासन की विचारधारा को गठबंधन राजनीति का संरक्षण। यही है जम्मू-कश्मीर के नागरिकों पर हो रही हिंसा का वास्तविक आधार।
आज जम्मू-कश्मीर में जैशे मुहम्मद, लश्करे तौयबा, हिजबुल मुजाहिद्दीन, हिजबुल जिहादी इस्लामी और जम्मू-कश्मीर लिब्रेशन फ्रंट जैसे जो भारत विरोधी संगठन पाकिस्तान की मदद से अस्तित्व में आए हैं, उनके सबसे बड़े मददगार, समर्थक और संरक्षक तो कश्मीर समेत पूरे देश में मौजूद हैं। जम्मू-कश्मीर में ऐसे कई राजनीतिक दल हैं जो इन संगठनों पर किसी भी प्रकार की सख्त कार्रवाई होने ही नहीं देते, उल्टा सुरक्षा जवानों पर ही मानवाधिकारों के तथाकथित उल्लंघन के आरोप लगा देते हैं। देश की सरकार विशेषतया गृहमंत्रालय इन संगठनों के नेताओं के साथ वार्तालाप करने के लिए गिड़गिड़ाता रहता है।
ठोस नीति/कार्रवाई का अभाव
पूर्वोत्तर में जितने भी हथियारबंद संगठन हैं सबके संरक्षक किसी न किसी क्षेत्रीय राजनीतिक दल में रहे हैं। असम में शुरू से ही सक्रिय 'उल्फा', नागालैण्ड में एन.एस.सी.एन. और मणिपुर में करीब दो दर्जन संगठनों की शुरुआत में स्थानीय राजनीतिक नेताओं की भूमिका जगजाहिर है। इन संगठनों के प्रतिनिधियों के साथ न जाने कितनी वार्ताएं हुईं, जो बेनतीजा रहीं। पूर्वोत्तर की वास्तविक समस्याएं क्या हैं? इसकी पूरी जानकारी भी भारत सरकार प्राप्त नहीं कर पाती है। यह ढुलमुल नीतियों का ही नतीजा है।
नागालैण्ड के अलगाववादी गुटों के साथ अब तक वार्ता के 58 दौर हो चुके हैं। प्रत्येक वार्तालाप के बाद संघर्ष विराम के लिए सहमति बनी, परन्तु फिर भी सभी शर्तों का उल्लंघन होता रहा। किसी न किसी रूप में यह हिंसक अलगाववाद आज भी चल रहा है। मणिपुर में सक्रिय अनेक अलगाववादी संगठनों ने 'आजादी' के युद्ध का ऐलान कर रखा है। यह तत्व मणिपुर को भारत का भाग ही नहीं मानते। असम से सक्रिय हिंसक अलगाववादी संगठन उल्फा को चीन से मदद मिलती है। इसी तरह पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में अलगाववादी तत्वों के आगे सरकार की हालत पतली है। देश की आंतरिक सुरक्षा के प्रति सरकार की लापरवाही का इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा कि पिछले छह दशकों से भारत का यह पूर्वोत्तर क्षेत्र अलगाववादी हिंसा की आग में जल रहा है और सरकार अभी तक इस समस्या से निपटने का कोई ठोस रास्ता ही नहीं तलाश सकी।
साम्यवादियों की हिंसक संतान
कश्मीर घाटी और पूर्वोत्तर में जन्मे, बढ़े और सक्रिय हुए इन देशद्रोहियों की ही तरह नक्सलवादी/माओवादी भी देश की भीतरी सुरक्षा पर भारी पड़ते जा रहे हैं। गृहमंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार देश के 19 राज्यों के 224 जनपदों में माओवादियों का प्रभाव है। देश के लगभग दो हजार पुलिस स्टेशनों में इन संगठनों के हथियारबंद नक्सली अपनी पहुंच बनाने में सफल हो चुके हैं। माओवादी संगठनों की संयुक्त मोर्चेबंदी 'पीपुल्स लिब्रेशन गुरिल्ला आर्मी' के पास आज दस हजार से भी ज्यादा प्रशिक्षित जवान हैं। सरकार के पास इस राष्ट्र विरोधी ताकत को निष्प्रभावी करने के लिए कोई भी सर्वसम्मत नीति नहीं है।
सत्ताधारी कांग्रेस के कई नेता नक्सली हिंसा को आर्थिक सहायता से समाप्त करने के पक्ष में हैं। बहुत कम ऐसे हैं जो इसे साम्यवाद की हिंसक संतान मानकर सैन्य शक्ति से दबाने के पक्ष में हैं। सरकार के भीतर चल रहे इस विरोधाभास के कारण ही सैन्य शक्ति के इस्तेमाल पर प्रश्न चिन्ह लगा हुआ है। जबकि माओवादी आए दिन स्थानीय पुलिस और केन्द्रीय रिजर्व पुलिस पर हमले करके हजारों जवानों की जान ले रहे हैं। माओवादियों के निशाने पर रेलगाड़ियां, उद्योग-धन्धे, जमींदार, किसान एवं प्रत्येक क्षेत्र के जिम्मेदार लोग हैं। जबरदस्ती लोगों से धन बटोरने वाले यह माओवादी विकास की योजनाओं को भी चलने नहीं देते।
खतरों की अनदेखी
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश की आन्तरिक सुरक्षा पर मंडराते आ रहे इन खतरों की अनदेखी का ही यह परिणाम है कि आज देश का शायद ही कोई बड़ा शहर हो जहां पर चीन प्रेरित माओवादियों, पाकिस्तान प्रेरित जिहादी आतंकवादियों अथवा कुछ अन्य मजहबी उपद्रवियों ने बेकसूर लोगों का रक्त न बहाया हो। पिछले छह दशकों के कालखण्ड में प्राय: सरकारों ने अपने दगलत स्वार्थों के चलते किसी भी ठोस नीति पर आधारित कोई सख्त कार्रवाई की योजना नहीं बनाई। सत्ता की राजनीति का यह एक बड़ा दुष्परिणाम है जिसे देश के नागरिक भुगत रहे हैं।
देश की जनता का यह कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि जब भी कभी कोई आतंकी धमाका होता है तो केन्द्र और राज्यों के अधिकार क्षेत्रों में बहस शुरू हो जाती है। राज्यों के मुख्यमंत्री इस प्रकार की घटनाओं का ठीकरा केन्द्र की सरकार, गुप्तचर एजेंसियों और केन्द्रीय सुरक्षा बलों पर फोड़ने में देर नहीं लगाते। इसी तरह से 'कानून व्यवस्था राज्यों का मामला है' कह कर देश का गृहमंत्रालय कन्नी काटने का प्रयास करता है। केन्द्र और राज्यों की इस कानूनी बहस में साधारण नागरिकों की सुरक्षा पर खतरा बढ़ता जा रहा है।
परिपक्व राजनीतिक नेतृत्व चाहिए
हर आतंकी अन्यथा माओवादी उपद्रव के बाद सख्ती से उसे कुचल डालने की घोषणाएं हो जाती हैं। सुरक्षा बलों की तैनाती से लेकर स्थानीय प्रशासन में रद्दोबदल तक कर दिया जाता है। गुप्तचर एजेंसियां सक्रिय होती हैं और कुछ लोगों की गिरफ्तारी के पश्चात कानून की बहुत लंबी और पेचीदी प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है।
देश की अदालतें कसूरवारों को सजाएं देती हैं परन्तु राजनीतिक स्वार्थों में आकंठ डूबीं देश की सरकार इनकी सजाओं को लटकाने, टालने और निरस्त करने के कानूनी इंतजाम कर देती है। हमारे माननीय न्यायाधीश तो न्याय का वर्चस्व एवं गरिमा स्थापित करके कातिलों को मौत की सजा देने में भी परहेज नहीं करते, परन्तु हिंसावादी तत्वों को मिलने वाला राजनीतिक संरक्षण न्यायप्रणाली के सिर पर बैठ जाता है। संसद पर हमले का मुख्य सूत्रधार अफजल इसका जीवंत उदाहरण है।
ध्येय प्रेरित नीति और नीयत
देश के आम नागरिक के जान-माल की रक्षा के लिए पिछले छह दशकों में छह दर्जन से ज्यादा गुप्तचर एजेंसियां और रक्षा विशेषज्ञों की समितियां अस्तित्व में आ चुकी हैं। 26 नवम्बर, 2008 को मुम्बई में हुए आतंकी नरसंहार के बाद नेशनल सेक्योरिटी गार्ड, काउंटर इमरजैंसी बल, मल्टी एजेंसी सैंटर और नेशनल इन्वेस्टीगेशन एजेंसी जैसी इकाइयों का गठन हो चुका है। परन्तु सत्ताधारी कांग्रेस की भीतरी अतंरविरोध और विपक्षी दलों का साथ लेकर काम न करने की उसकी मनोवृत्ति के कारण यह सभी प्रयास विफल हो गए।
देश की आंतरिक सुरक्षा को खतरे में डालने वाले विदेश समर्थित एवं विदेशनिष्ठ षड्यंत्रों को जड़मूल से समाप्त करने के लिए देश को प्रबल राजनीतिक इच्छाशक्ति और लक्ष्य निर्धारित कार्यप्रणाली की आवश्यकता है, अन्यथा जो राष्ट्रघातक सिलसिला चल रहा है वह बढ़ता जाएगा।
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