देश की भूमि देने से पहले संविधान संशोधन आवश्यक
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सर्वोच्च न्यायालय का निर्देश
संविधान संशोधन आवश्यक
डा.कृष्ण गोपाल
(गतांक से आगे)
देश के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने संविधान के अनुच्छेद 143(1)के अन्तर्गत अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए, सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष इस प्रश्न को रखा और राय जाननी चाही कि, 'क्या भारत सरकार संविधान में बिना संशोधन किये भारत संघ की भूमि को किसी अन्य देश को दे सकती है?' सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रश्न को अति महत्वपूर्ण मानते हुए मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति बी.पी.सिन्हा की अध्यक्षता में न्यायमूर्ति- एस.के.दास, पी.बी.राजेन्द्र गडकर, ए.के.सरकार, के.सुब्बाराव, एम.हिदायतुल्ला, के.सी. दासगुप्ता तथा जे.सी.शाह की एक संयुक्त संवैधानिक पीठ गठित कर दी। आठ विद्वान न्यायाधीशों के सम्मुख इस विषय पर अपना पक्ष रखने के लिए भारतीय जनसंघ के सात प्रमुख नेताओं सहित कुछ अन्य लोगों को अनुमति दी, जिन्होंने इस संदर्भ में याचिका दी थी। इनके नाम हैं- 1-अध्यक्ष, भारतीय जनसंघ, केरल, 2- सचिव जनसंघ, मंडी, 3- टाटा श्रीराममूर्ति, अ.भा.जनसंघ, विशाखापट्टनम, 4-अध्यक्ष, भारतीय जनसंघ, मंगलौर, 5-सचिव, भारतीय जनसंघ, सीतापुर, 6-श्री एन.थम्बन् नाम्बियार, भारतीय जनसंघ, तालीपरम्बु, 7-अध्यक्ष, भारतीय जनसंघ, पट्टाम्बि (कोचीन) सहित रेवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी (जलपाईगुड़ी) के सचिव, आल इंडिया फारवर्ड ब्लाक (कलकत्ता) के सचिव एवं जलपाईगुड़ी के निर्मल बोस। इन सभी आवेदनकर्त्ताओं ने भारतीय भूमि के इस प्रकार किसी दूसरे देश को स्थानांतरण करने का विरोध करते हुए अपना पक्ष रखा। विद्वान न्यायाधीशों ने सरकार के सभी पक्षों तथा जनसंघ के सात पक्षकारों सहित तीन अन्य प्रार्थियों के विचारों को भी गंभीरता के साथ सुना। स्मरण रहे कि उस समय नेहरू-नून समझौते के दूरगामी दुष्परिणामों को ध्यान में रखकर भारतीय जनसंघ के कार्यकर्त्ता देशव्यापी आंदोलन चला रहे थे। 'बेरूबाड़ी देबो ना, देबो ना,' के नारे सारे देश में गूंज रहे थे। पं. दीनदयाल उपाध्याय ने ही भारतीय जनसंघ के सात प्रमुख कार्यकर्त्ताओं को सर्वोच्च न्यायालय में अपना पक्ष रखने के लिए प्रेरित किया था और देश के प्रमुख अधिवक्ताओं को तैयार करके इस विषय की पैरवी सर्वोच्च न्यायालय में करवायी थी।
यदि देश का कोई भी हिस्सा किसी दूसरे देश को दिया जाएगा तो यह कार्य संविधान की धारा 368 के द्वारा संविधान में परिवर्तन करने के बाद ही संभव हो सकेगा। इंदिरा–मुजीब समझौता (1974) अथवा मनमोहन–शेख हसीना समझौता (2011) के द्वारा भारत की भूमि किसी दूसरे देश को नहीं दी जा सकती। सरकार संसद की बहस से भयभीत है और किसी भी प्रकार से पनीय तरीके से यह समझौता करना चाहती
ऐतिहासिक निर्णय
भारत सरकार की ओर से महाधिवक्ता एम.सी.सीतलवाड़, सी.के.दफ्तरी, अतिरिक्त महाधिवक्ता एच.एन.सान्याल तथा जी.एन.जोशी, आर.एच.ढेबर, टी.एम.सेन सहित अनेक ख्यातिनाम वरिष्ठ अधिवक्ता नेहरू सरकार के निर्णय तथा नेहरू-नून समझौते की वैधानिकता की पैरवी कर रहे थे। नेहरू सरकार की ओर से बोलने वाले इन सभी अधिवक्ताओं का मत था कि यह मात्र एक सीमा विवाद है और इस विवाद के निपटारे के लिए यदि कुछ भूमि ली या दी जा रही है तो यह भारत सरकार के अधिकार क्षेत्र का ही विषय है, इसके लिए संविधान में संशोधन की कोई आवश्यकता नहीं है। सभी विद्वान न्यायाधीशों ने बहुत धैर्यपूर्वक सरकार के तर्कों को सुना और अंत में सर्वोच्च न्यायालय के आठों न्यायाधीशों ने 14 मार्च, 1960 को सर्व सम्मति से अपना निर्णय सुनाते हुए कहा कि, 'नेहरू-नून समझौता (1958) के अनुसार यह स्पष्ट है कि, 'यद्यपि बेरूबाड़ी यूनियन-12 का सम्पूर्ण क्षेत्र भारत संघ का एक भाग है किंतु भारत सरकार इसका आधा भाग पाकिस्तान को देने के लिए इस भावना से तैयार हुई है कि अब दोनों देशों के मध्य मित्रतापूर्ण संबंध बने रहेंगे और आपस का तनाव भी समाप्त हो सकेगा (सर्वोच्च न्यायालय, एआईआर-1960, पैरा 19) सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि, 'हम इस बात से सहमत नहीं हैं कि यह केवल एक सीमा विवाद का निपटारा है, वरन यह एक ऐसा समझौता है जिसके कारण भारत की अपनी भूमि का एक भाग पाकिस्तान को दे दिया जाएगा। हमारे सामने यही प्रश्न था कि हम यह देखें कि क्या यह केवल एक सीमा विवाद है अथवा इस समझौते के कारण भारत की भूमि का कोई हिस्सा भारत से अलग होकर दूसरे देश को चला जायेगा?' (वही, पैरा 22) 'जैसा कि हमने पहले भी कहा है कि 'रेडक्लिफ अवार्ड' की घोषणा के बाद से ही 'बेरूबाड़ी यूनियन-12' भारत के साथ रहा है और तब से लगातार पश्चिम बंगाल का भाग बना हुआ है। इस वास्तविक स्थिति के प्रकाश में यह पूरी तरह स्पष्ट है कि संविधान लागू होते समय से लेकर अभी तक यह क्षेत्र पश्चिम बंगाल प्रांत की सीमाओं के अंदर ही रखा गया है। अत: इस समझौते के लागू होने के परिणामस्वरूप पश्चिम बंगाल प्रांत की सीमाएं निश्चित रूप से परिवर्तित हो जाएंगी और भारतीय संविधान के प्रथम अनुच्छेद की 13वीं अनुसूची की मौलिक बातें भी अवश्य प्रभावित होंगी।' (वही, पैरा 24)
सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा, 'इस समझौते के कारण निश्चित रूप से भारत संघ अपनी भूमि दूसरे देश (पाकिस्तान) को दे रहा है। अत:हमारा निष्कर्ष यह है कि भारतीय भूमि के किसी दूसरे देश को हस्तांतरण के इस समझौते के लिए आवश्यक कानून बनाना अनिवार्य होगा और उसके लिए भारतीय संविधान की धारा 368 के अन्तर्गत संविधान में संशोधन करना भी आवश्यक है। इस संशोधन के लिए संसद के दोनों सदनों में उपस्थित संख्या का 2/3 बहुमत तथा देश की सभी विधानसभाओं में से 50 प्रतिशत विधानसभाओं का समर्थन भी इसके लिए आवश्यक होगा।' (वही, पैरा 44-45) 'हम पहले ही कह चुके हैं कि इस समझौते के कारण भारत अपनी भूमि का एक हिस्सा पाकिस्तान को दे देगा, इस कारण भारत संघ की भूमि का एक भाग निश्चित रूप से कम हो जाएगा। अत: इस समझौते को लागू करने के लिए तथा बेरूबाड़ी यूनियन-12 तथा कूच बिहार के कुछ एन्क्लेव्स को पाकिस्तान को देने के लिए भारतीय संविधान की धारा-368 के अंतर्गत संविधान में संशोधन करना ही होगा।' (वही, पैरा 46)। निष्कर्ष यह है कि यदि देश का कोई भी हिस्सा किसी दूसरे देश को दिया जाएगा तो यह कार्य संविधान की धारा 368 के द्वारा संविधान में परिवर्तन करने के बाद ही संभव हो सकेगा।
भारतीय संविधान में नौवां संशोधन-1960
सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ के सर्वसम्मत दिशा निर्देश के बाद प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू के पास अब कोई दूसरा मार्ग नहीं बचा था। अन्ततोगत्वा, नेहरू-नून समझौता 1958 को लागू कराने के लिए भारतीय संविधान में संशोधन की प्रक्रिया पूर्ण की गई तथा संविधान संशोधन 28 दिसंबर, 1960 को सम्पन्न हुआ। इसके बाद ही असम, पंजाब, पश्चिम बंगाल तथा त्रिपुरा राज्यों की सीमाओं के निर्धारण तथा भारतीय भूमि के आदान-प्रदान (प्रत्यावर्तन) का मार्ग खुला। संविधान के इस नौवें संशोधन के कारण ही भारतीय भूमि के किसी हिस्से को दूसरे देश को हस्तांतरित करने का अधिकार भारत सरकार को प्राप्त हो सका और नेहरू नून-समझौता 1958 लागू होने की पृष्ठभूमि तैयार हुई। सर्वोच्च न्यायालय के इन ऐतिहासिक निर्देशों ने भारतीय राजनीतिक इतिहास में सदैव के लिए एक उदाहरण स्थापित कर दिया कि, 'बिना संविधान संशोधन किये भारत की कोई भी भूमि किसी दूसरे देश को नहीं दी जा सकती।' सरकार को ऐसा करने को बाध्य करने वाले भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा.राजेन्द्र प्रसाद तथा संविधान पीठ के सभी विद्वान न्यायाधीशों के प्रति यह देश सदैव आभारी रहेगा।
निर्णय आज भी प्रभावी
सर्वोच्च न्यायालय (ए.आई.आर.1960) के निर्देश आज भी प्रभावी हैं। यह निर्णय भारतीय राजनीति के इतिहास के लिए आज भी एक मील का पत्थर बना हुआ है। सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय ने बहुमत वाली सरकारों को भी निरंकुश होकर अपनी मर्यादाओं और अधिकारों का उल्लंघन न करने को बाध्य किया है। भारत की भूमि को किसी दूसरे देश को देने का प्रश्न सरकार और कुछ नौकरशाहों की इच्छा पर ही निर्भर न रहकर संविधान संशोधन के बाद ही संभव हो सकेगा। कोई भी ऐसा समझौता, जिसमें भारत संघ की पूर्व निर्धारित भूमि यदि कम होती है और भारत संघ का क्षेत्रफल कम होता है तो उस सरकार को संविधान की धारा 368 (संविधान संशोधन) की प्रक्रिया से गुजरना अनिवार्य होगा। संविधान में आवश्यक संशोधन के बाद ही भारत की भूमि किसी अन्य देश को दी जा सकती है। बाद के वर्षों में सर्वोच्च न्यायालय के अन्य निर्णयों ने भी सर्वोच्च न्यायालय (1960) के निर्देशों को और अधिक स्पष्ट और दृढ़ कर दिया है। बेरूबाड़ी मामले में ही एक बार फिर से (ए.आई.आर. 1966, सर्वो. न्यायालय 644) तथा कच्छ के रन में सीमा विवाद पर (ए.आई.आर. 1969, सर्वो. न्यायालय-783) निर्णयों ने यह स्पष्ट किया है कि जब कभी भारत की भूमि को किसी अन्य देश को देने का विषय उपस्थित होगा तब उसके लिए संविधान में संशोधन आवश्यक होगा।
वर्तमान भारत–बंगलादेश समझौते को स्थिति
6 सितम्बर, 2011 को ढाका में हुए भारत-बंगलादेश समझौते के सम्बंध में केन्द्र सरकार का यह दायित्व है कि वह अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए देश की जनता के सामने सभी तथ्यों को उजागर करे। कहां पर कौन-सी भूमि हम बंगलादेश को दे रहे हैं और कहां कौन-सी भूमि हमको प्राप्त हो रही है, यह बताए। 'एन्क्लेव्स' तथा अनधिकृत कब्जों वाली भूमि का पूरा और व्यापक ब्यौरा संसद के पटल पर रखा जाए तथा सभी संबंधित मुद्दों पर व्यापक चर्चा हो। तभी यह बात साफ हो पायेगी कि 'भारतीय एन्क्लेव्स' की कितनी अधिक भूमि बंगलादेश के पास चली जाएगी तथा 'एडवर्स पजैसन' की स्थितियों में परिवर्तन के बाद भारत को कुल मिलाकर कितनी भूमि से हाथ धोना पड़ेगा। भारतीय क्षेत्रफल का किसी भी प्रकार से कम होना न तो राष्ट्रहित में होगा और न ही संवैधानिक दृष्टि से ही उचित कहा जाएगा। भारतीय संसद में व्यापक चर्चा के उपरांत यदि ऐसा लगता है कि बंगलादेश के साथ मित्रवत संबंधों को बनाये रखने के लिए 11,000 एकड़ भूमि खोना देश हित में है, तो भी भारत सरकार को अपने संवैधानिक दायित्वों का निर्वाह संविधान में संशोधन करके ही करना होगा।
इंदिरा–मुजीब समझौते की स्थिति
ध्यान में रखने लायक एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि 6 सितम्बर, 2011 का यह समझौता 1974 के इंदिरा-मुजीब समझौते की अगली कड़ी के रूप में हुआ है। इंदिरा-मुजीब समझौता (1974) को उसी वर्ष दोनों देशों की संसद में पारित कराकर एक-दूसरे को देना था। समझौते की हस्ताक्षरित प्रतियां एक-दूसरे देश को सौंपने के दिन से ही वह समझौता प्रभावी माना जाने वाला था। बंगलादेश की संसद ने इस समझौते को 28 नवम्बर, 1974 को ही पारित कर दिया था। किंतु भारतीय जनमानस के दवाब के भय से भारत की कोई भी सरकार आज तक उस समझौते को संसद में चर्चा के लिए नहीं ला सकी। विगत 37 वर्षों में उस समझौते के विषय पर भारतीय संसद में कभी भी कोई चर्चा नहीं हुई है। 37 वर्षों तक प्रतीक्षा के बाद भी भारतीय संसद में पारित न होने वाले इस इंदिरा- मुजीब समझौते (1974) का भारत की जनता तथा भारतीय संसद के लिए क्या मूल्य है? सन् 1974 के जिस समझौते को भारतीय संसद ने पारित न किया हो, भारत के राष्ट्रपति ने हस्ताक्षर न किये हों और न समझौते की अनुमोदित प्रतियां का अभी तक दोनों देशों के मध्य आदान-प्रदान ही हुआ हो, उसके ऊपर भारत सरकार इतना आगे बढ़कर अपनी 11 हजार एकड़ भूमि छोड़ने को क्यों तैयार हुई है? सरकार जानबूझकर इंदिरा-मुजीब समझौते को संसद में पारित कराने के लिए अभी तक नहीं लाई है, क्योंकि उसके अंदर अनेक समस्याओं के साथ साथ एक खतरनाक बात यह भी है कि, 'भारतीय एन्क्लेव्स की अदला-बदली के समय बंगलादेश को जाने वाली अपनी अधिक भूमि के बदले में भी भारत अतिरिक्त भूमि अथवा किसी प्रकार के हर्जाने की मांग नहीं करेगा।'
श्रीमती इंदिरा गांधी को भारतीय भूमि के साथ ऐसा समझौता करने का अधिकार किसने दे दिया था? क्या इंदिरा गांधी तथा उनके सहयोगी अधिकारी सर्वोच्च न्यायालय (1960) के निर्देशों से अनभिज्ञ थे? क्या इंदिरा गांधी यह नहीं जानती थीं कि बिना संविधान संशोधन के 'भारतीय एन्क्लेव्स' की हजारों एकड़ भूमि इस प्रकार किसी अन्य देश को नहीं दी जा सकती? इंदिरा गांधी ने वही गलती की जो 1958 में उनके पिता पं. जवाहरलाल जी ने की थी। यह समझौता न केवल असंवैधानिक था वरन् पूर्ण रूप से राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध भी था। भारत सरकार यह बात भली प्रकार जानती है कि इस प्रकार का समझौता जब भी संसद के पटल पर आएगा तब देशभर में इसके ऊपर चर्चा और बहस उग्र होती जाएगी। सरकार संसद की बहस से भयभीत है और किसी भी प्रकार से गोपनीय तरीके से समझौता करना चाहती है। 'भारतीय एन्क्लेव्स' की 10050 एकड़ अधिक जमीन बंगलादेश को जाएगी तो सरकार इसके पीछे क्या तर्क देगी, यह सरकार की समझ में नहीं आ पा रहा है। सरकार यह ध्यान में रखे कि यदि देश की भूमि किसी दूसरे देश को जाएगी तो संविधान में संशोधन की प्रक्रिया अपनानी ही होगी।
इंदिरा-मुजीब समझौता (1974) अथवा मनमोहन-शेख हसीना समझौता (2011) के द्वारा भारत की भूमि किसी दूसरे देश को नहीं दी जा सकती। देश की सरकार और संसद के सदस्यों को देशहित में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश का पालन करना चाहिए। महामहिम राष्ट्रपति प्रतिभा देवी पाटिल को भी इस भारत-बंगलादेश समझौते पर हस्ताक्षर करने से पूर्व प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया का संज्ञान लेते हुए सरकार को निर्देशित करना चाहिए। यही देश के हित में होगा।
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