सरोकार
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आचार्य गणेश शास्त्री
दानवता पर मानवता की विजय का प्रतीक पर्व है- विजयादशमी। व्सत्यमेव जयते नानृतम्व् यह भारतीय उद्घोष भारतीय संस्कृति की उस दिव्यता का साक्षात्कार कराता है, जिसमें भारत की आध्यात्मिकता समाहित है। हमारे शास्त्रों ने परमात्मा को सत्यस्वरूप माना है और उसी रूप में उसकी उपासना की है। व्सत्यज्ञानमनन्तं ब्राहृव् वह परमात्मा सत्य स्वरूप है, ज्ञान स्वरूप है और शाश्वत है अर्थात् आदि मध्य और अन्त की उपाधियों से सर्वथा परे है। वही एक मात्र वह सारतत्व है, जो समस्त जीवों में प्राण के रूप में ओतप्रोत है। जो पहले भी या आज भी है और आगे भी रहेगा। समस्त चेतन और अचेतन तत्वों में उसी की सत्ता विद्यमान है। वह सर्वथा पूर्ण है, कभी भी अपूर्ण की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
उस पूर्ण का विकास यह जगत है। इस जगत में नाना प्रकार की विषमताएं दृष्टिगोचर हो रही हैं।
जड़ चेतन गुन दोषमय विश्व कीन्ह करतार
जगत में स्पष्टत: दो प्रवृत्तियां विकसित हैं-दैवी और आसुरी। दैवी प्रवृत्ति मानव को मानवता के उच्च सोपान पर प्रतिष्ठित कर सम्पूर्ण सुखों का सृजन करती है। जबकि आसुरी प्रवृत्ति मानव को मानवता से धकेल कर विनाश के कगार पर लाकर खड़ा कर देती है। वहां असत्य का साƒााज्य फलने-फूलने लगता है। सत्य कहीं दुबक कर बैठ जाता है। फिर असत्य का परिवार विकसित होता है, जिसमें हिंसा, स्वेच्छाचारिता, कामुकता, चोरी आदि का स्वच्छन्द नग्न नृत्य होने लगता है।
त्रेतायुग में रावण के शासन में इसी प्रकार की स्थितियों का संकेत गोस्वामी जी ने किया है-
जेहि बिधि होइ धर्म निर्मूला।
सो सब करहिं बेद प्रतिकूला।।
जेहिं जेहिं देस धेनुद्विण पावहिं।
नगर गाउँ पुर आगि लगावहिं।।
बादे बहु खल चोर जुआरा।
से लम्पट पर फन परदारा।।
मानहिं मात पिता नहिं देवा।
साधुन्ह सन करवावहिं सेवा।।
रावण के राज्य में असत्य का परिवार व्यापक रूप में प्रचारित हो रहा था, दानवता पनप रही थी। मानवता त्राहि-त्राहि कर रही थी। व्याकुल मानवता की पुकार और उसके आत्र्तनाद ने परमात्मा को भू-भार हरण के लिए विवश कर दिया और वे राम के रूप में इस पीड़ित मानव प्रदेश भारत में राम बनकर आ गये। योगियों के ह्मदय में रमण करने वाला राम का ह्मदय यहां की दशा को देखकर द्रवित हो गया और उन्होंने आसुरी प्रवृत्ति के समूल उच्छेदन का संकल्प ले लिया-
निसिचरहीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह।।
अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार राम सदल-बल रावण का संहार कर आसुरी प्रवृत्ति का समूलोच्छेदन कर डालते हैं और दैवी प्रवृत्ति के विकास के लिए राम राज्य की स्थापना करते हैं।
इस विजय यात्रा की पूर्णता का नाम विजयादशमी है, जिसमें असत्य के परिवार का समूल विनाश और सत्य की प्रतिष्ठा का भाव सन्निहित है। हम विजयादशमी पर्व पर सत्य के सन्निकट पहुंचने का प्रयास करने का दृढ़ संकल्प लें। यही इस पर्व की सार्थकता होगी।
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