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वेंकट राघव (रघुभाई)
गत उन दिनों की है जब श्रीराम मंदिर निर्माण के लिए हनुमत शक्ति जागरण कार्यक्रमों की तैयारी चल रही थी। एक सुबह मैं सूरत के वार्ड नं.26 में कार्यकत्र्ता बैठक लेने गया था। बैठक स्थान के बाहर वार्ड प्रमुख अनिल भाई ने मुझसे कहा कि हमारे यहां बहुत सारे कार्यकत्र्ता मुस्लिम हैं, जरा उस हिसाब से बात कीजिएगा। मैंने पूछा, व्क्या उस हिसाब से बात न करूं तो कोई दिक्कत आएगी?व् उन्होंने कहा, व्दिक्कत तो नहीं आएगी।व् फिर वे यह कहते हुए अंदर चले गए कि एक मिनट में आया। अंदर से वे आए तो उनके साथ वार्ड मंत्री रफीक भाई शेख भी थे। मुलाकात होते ही उन्होंने कहा, व्हम यहां अमन चाहते हैं।व् मैंने कहा, व्तो हम कौन सा लड़ाई चाहते हैं?व् राम मंदिर बनने से सारे देश में अमन हो जाएगा। यह केवल मंदिर मस्जिद की बात नहीं है, भाईचारा कायम करने की बात है।व् इन बातों को वे दबे स्वर में अस्वीकार कर रहे थे। फिर मैंने कहा, व्मेरे शरीर में जिस भगवान राम का खून बहता है, वही खून आपके शरीर में भी बहता है। इसलिए हम आपस में भाई-भाई हैं। अगर आपके शरीर में अरबस्तान का खून बहता तो हम भाई कैसे होते, और फिर भाईचारा कैसा? ये बातें उनके दिल में बैठ गर्इं और उन्होंने यह भी कहा कि आपकी ये बातें सही हैं। इसके बाद तो वह बैठक अपने हिसाब से चली और भाईचारा एवं अमन में सबने मंदिर निर्माण का समर्थन किया।
सद्भावना का आधार
व्यक्ति की अपनी एक पहचान होती है। कुल, परंपरा, जाति, भाषा, सम्प्रदाय आदि मामलों में समान पहचान स्नेह का भाव उत्पन्न करती है। किंतु जब स्वार्थ सिद्धि के लिए इन भावनाओं का दुरुपयोग होता है तब समाज में संघर्ष और वैमनस्य बढ़ता है। हमारे यहां ऋषियों ने कहा है-
अयं निज:परोवेत्ति गणना लघु चेतसां।
उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।
अर्थात संकुचित और स्वार्थी लोग व्यह अपना है, वह पराया हैव् कहकर आपस में ही भेद करते हैं। जबकि उदार और श्रेष्ठ लोग पूरे विश्व को एक परिवार के समान मानते हैं, स्वार्थी, भोगी और सत्ता के भूखे लोगों के लिए ऋषियों ने कहा है-
न वित्तेन तृपणीयो मनुष्य:।
सत्ता या सुख भोग से मनुष्य कभी तृप्त नहीं हो सकता। जैसे अग्नि में घी की आहुति देने से अग्नि और तेज धधकती है, उसी प्रकार सत्ता और सुख का उपभोग करने के बाद मनुष्य अशांत और अधिक अतृप्त हो जाता है। प्रथम (इश) उपनिषद के प्रथम श्लोक में भारत के महान ऋषियों ने इस समस्या का समाधान बताया है-
ईशावास्यमिदं सर्वं यत् किंचिद् जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुजीथा मा गृध:कस्यस्विद् धनम्।।
अर्थात् व्सृष्टि के कण-कण में ईश्वर का वास है। अत: (सबका ध्यान रखते हुए) त्याग पूर्वक भोग करो। जो दूसरों का है उसे हड़पने का प्रयत्न नहीं करो।व् जगत में सर्व सद्भावनाओं का यह बीज मंत्र है।
विद्यमान विश्व और भारत
आज विश्व तीन महाशक्तियों के चंगुल में फंसा है। तीनों शक्तियों की स्वार्थ परायणता, भोगवाद और सत्ता की भूख इस हद तक पहुंच गई है कि वे विश्व को सर्वनाश की दिशा में धकेल रहे हैं। अमरीका के नेतृत्व में पश्चिमी देश आर्थिक और सामरिक शक्ति के बल पर दुनिया का शोषण कर रहे हैं। चीन एक ओर माओवादी विचारों से विश्व में वर्ग संघर्ष की स्थिति पैदा कर रहा है, वहीं दूसरी ओर अपनी आर्थिक, सैनिक और कूटनीतिक शक्ति से दुनिया के संसाधनों पर अपना शिकंजा कस रहा है। इस्लाम के नाम पर तीव्र गति से जनसंख्या वृद्धि, व्यापक मतांतरण, मजहबी कट्टरवाद और जिहाद के माध्यम से दुनिया पर अपना दबदबा जमाने में अरबस्तान व्यस्त है।
ये तीनों शक्तियां भारत में सर्वाधिक सक्रिय हैं। भारत की शक्ति उसकी विविधता में छिपी है। हर प्रकार के विचार और क्षमताओं से भारत समृद्ध है। किसी भी क्षेत्र से आने वाली चुनौतियों का सामना करने के लिए भारत समर्थ है। अभाव है तो संगठित और संकलित प्रयासों का। इन आसुरी शक्तियों से भयभीत होने की जरूरत नहीं है। भय के आधार पर स्वस्थ और शक्तिशाली संगठन संभव नहीं है।
भारत का उदय
व्भारत का उदय अवश्य होगा। वह राजा-महाराजाओं की तलवार या धनकुबेरों के भंडारों से नहीं, वरन् संन्यासी के भिक्षापात्र में से होगा। मैं देख सकता हूं कि भारत माता फिर से विश्वगुरु के सिंहासन पर विराजमान है, और सारे विश्व के कल्याण में रत है।व् स्वामी विवेकानंद के इन उद्गारों को साकार करने का समय आ गया है। भारत के यौवन को आह्वान है कि वह अपना जीवन भारत मां के चरणों में समर्पित करे। विश्व में शांति और सद्भावना स्थापित करने का यह एकमात्र मार्ग है।
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