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डा.सतीश चन्द्र मित्तल
यदि भारत के पड़ोसी देशों की ओर दृष्टि डालें तो दूर-दूर तक भारत का कोई मित्र देश दिखलाई नहीं देता है। भारत के स्वतंत्र होने के बाद एक-एक करके हमारे पड़ोसी देश शत्रु बनते जा रहे हैं। पाकिस्तान और चीन तो घोषित रूप से बैरी हैं ही, बंगलादेश, भूटान, म्यांमार (वर्मा), श्रीलंका और यहां तक कि नेपाल को भी निकट मित्र नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार उत्तर-पश्चिम सीमा पर स्थित अफगानिस्तान चिरकाल से भारत से जुड़ा रहा है। प्राचीन काल में यह भारत का उप गणराज्य था। महाभारत काल की गांधारी इसी विस्तृत क्षेत्र गंधार से आई थीं। प्राचीन काल में यह हिन्दू तथा बौद्ध धर्म का प्रमुख केन्द्र रहा है। अनेक प्राचीन खण्डहर तथा बौद्ध अवशेष इसके भारतीय सम्बंधों को दर्शाते है।
साहसी अफगान
यह भी सत्य है कि अफगानिस्तान लम्बे समय तक अनेक आक्रमण- कारियों तथा घुसपैठियों का मार्ग रहा। प्राचीनकाल में शक, हूण, कुषाण ओर से भारत आए। यहां तक कि यूनानी आक्रमणकारी सिकन्दर भी इसी मार्ग से भारत में घुसा। मध्यकाल में सभी मुस्लिम आक्रमणकारियों ने इस प्रदेश को रौंदा। महमूद गजनवी, मुहम्मद गौरी, तैमूर लंग तथा बाबर इसी मार्ग से भारत आए तथा बाद में अहमद शाह अब्दाली ने 1747 में एक स्वतंत्र अफगानिस्तान राज्य की स्थापना की तथा इसे एक मुस्लिम देश बनाया। शीघ्र ही अफगानिस्तान ब्रिटेन, रूस तथा अमरीका की कूटनीति का शिकार हो गया। सभी अपने आधुनिक शस्त्रों से लैस होकर अफगानिस्तान आए। परन्तु सामान्य शस्त्रों से युक्त कबीलियाई युद्ध में पारंगत साहसी अफगानों से हार कर लौटे। 18वीं शताब्दी में ब्रिटेन ने दो बार अफगानिस्तान पर आक्रमण किया पर सफलता न मिली। पहला आक्रमण 1838 में हुआ, इसमें अंग्रेजों का एक भी सैनिक जीवित वापस नहीं लौटा! दूसरा आक्रमण भारत में लार्ड लिटन के शासन काल में 1876 में किया गया, पर इस बार भी सफलता न मिली। आखिर अंग्रेजों ने अपनी सबसे बड़ी व्कालोनीव् भारत की सुरक्षा के लिए 1893 में भारत व अफगानिस्तान के बीच एक व्ड्यूरैण्ड लाइनव् निश्चित की, जिसे अफगानिस्तान ने कभी स्वीकार नहीं किया।
भारत का मित्र
भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन के काल में अफगानिस्तान ने भारत के लोगों को सहयोग दिया। अंग्रेजों को अफगानिस्तान के आक्रमण का सदैव भय बना रहता था। 1919 में राजा महेन्द्र प्रताप तथा बरकतुल्ला ने भारत की स्वतंत्रता के लिए काबुल में एक अस्थायी सरकार भी स्थापित की थी। खान अब्दुल गफ्फार खां, जो भारत में व्सीमांत गांधीव् के नाम से विख्यात हैं, के प्रयत्न किसी से छिपे नहीं हैं। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस वेश बदल कर काबुल के ही रास्ते जर्मनी पहुंचे थे। पठानों से भारत के मधुर सम्बंधों को दर्शाने वाली रवीन्द्र नाथ टैगोर की कहानी व्काबुलीवालाव् को कौन भूल सकता है। 1947 में भारत विभाजन के समय गांधी जी की उपस्थिति में कांग्रेस कमेटी की एक बैठक में खान अब्दुल गफ्फार खां ही एकमात्र ऐसे मुस्लिम नेता थे जिन्होंने भारत विभाजन का विरोध किया था तथा इसे उत्तर पश्चिमी फ्रंटियर प्रांत के साथ विश्वासघात बताया था। पाकिस्तान के निर्माण के पश्चात भी अफगानिस्तान ने ड्यूरैण्ड रेखा को स्वीकार नहीं किया। इसमें कुछ भूमि अनिश्चित, अविकसित थी जिसे फाटा (फेडरल ऐडमिनिस्ट्रेशन ट्रायबल एरिया) कहा जाता है, जो पाकिस्तान की सीमा की ओर से निश्चित नहीं है। साथ में उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत व बलूचिस्तान के लोगों को वहां की इच्छा के विपरीत अंग्रेजों ने पाकिस्तान में मिला दिया था। व्फाटाव् में लगभग तीन लाख कबीले अर्थात बाजौर, मोड़मंड, खैबर, अस्काई, कुर्रम आदि महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं, जिनका मनमाना दुरुपयोग आज पाकिस्तान कर रहा है।
तालिबान का उदय
सोवियत संघ ने भी अपनी साƒााज्यवादी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए 1979 में अफगानिस्तान को निशाना बनाया। भयंकर नरसंहार किया तथा यहां के लोगों को यातनाएं दीं। सोवियत संघ ने एक कठपुतली सरकार नूर मोहम्मद तैराकी के नेतृत्व में बनवाई। इसी समय तत्कालीन भारत की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने एक भयंकर गलती यह की कि उस सरकार को मान्यता दे दी। वहां का जनमानस उस सरकार को जरा भी नहीं चाहता था। यहीं से भारत- अफगानिस्तान के सम्बंधों में टकराव तथा कड़ुवाहट का दौर प्रारंभ हुआ। आखिरकार 1988 में जेनेवा सम्मेलन के समझौते के अन्तर्गत सोवियत सैनिकों की वापसी हुई। सोवियत सेनाओं को भगाने में वहां के साहसी लोगों की प्रमुख भूमिका रही। इसमें परोक्ष रूप से अमरीका तथा सऊदी अरब ने भी सहयोग दिया। इसी काल में तालिबान का प्रभुत्व बढ़ा। 1994 में मुल्ला उमर ने अफगानिस्तान में फैली अराजकता का लाभ उठाकर शरिया (इस्लामी कानून) लागू किया, मनमाने कानून बनाये, भ्रष्टाचार बढ़ा। 1998 तक उसने लगभग 90 प्रतिशत अफगान क्षेत्रों पर नियंत्रण कर लिया। विश्व में केवल तीन देशों-सऊदी अरब, यू.ए.एफ तथा पाकिस्तान ने इसे मान्यता दी। यह नहीं भूलना चाहिए कि तालिबान पाकिस्तानी मदरसों तथा पाकिस्तान सरकार की घृणास्पद कूटनीति की ही उपज है। यह एक ऐसा भस्मासुर है जो न केवल अफगानिस्तान बल्कि अमरीका तथा पाकिस्तान सहित अन्य देशों को भी चोट पहुंचाने#े को आतुर है। आखिर में अमरीका ने 9/11 के बाद 7 अक्तूबर, 2001 को तालिबान पर आक्रमण किया तथा दिसम्बर, 2001 में अफगानिस्तान में तालिबान शासन का अन्त हुआ।
अमरीकी हस्तक्षेप
22 दिसम्बर, 2001 को हमीद करजाई को अफगानिस्तान का राष्ट्राध्यक्ष बनाया गया। काफी हद तक वे भारत से पूर्व परिचित हैं। उनकी शिक्षा शिमला (हिमाचल प्रदेश) में हुई है, उन्हें हिन्दी आती है। उनकी सरकार के कई मंत्री भारत के प्रति उदार हैं। उन्होंने अफगानिस्तान का नया संविधान बनाने में भारत की मदद ली। उन्होंने यह भी कहा कि भविष्य में पाकिस्तान का हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं करेंगे। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उनकी सहायता की। भारत का उद्देश्य अफगानिस्तान के निकट पाकिस्तानी सैनिक अड्डे तथा अफगानिस्तान में भारत विरोधी प्रचार को रोकना था।
अमरीका ने अपने सैन्य बल भेजकर तालिबान के क्रूर शासन को समाप्त किया था। इसलिए अफगानिस्तान के लोगों ने अमरीका को व्तारणहारव् के रूप में लिया। परन्तु 2005 से पुन: तालिबान का प्रभाव बढ़ा। अन्तरराष्ट्रीय सुरक्षा सहायता सेना (नाटो) के अन्तर्गत जून, 2009 तक 41 देशों की 75,000 सेना यहां लगाई गई। इनमें अमरीका तथा ब्रिटेन प्रमुख हैं। इसके अलावा अमरीका ने 3600 सैनिक व्आपरेशन ड्यूरिंग फ्रीडमव् के रूप में भेजे। अमरीका ने अफगान सेना की संख्या 22,000 तथा अफगान पुलिस की संख्या 82,000 करनी चाही। साथ ही अमरीका भी स्वयं अपनी सेना अफगानिस्तान में बढ़ाने की सोचता रहा। इस प्रसंग में यह जानना महत्वपूर्ण है कि भारत भी अनेक योजनाओं द्वारा अफगानिस्तान के जनजीवन को सुव्यवस्थित करने में सहायता कर रहा है। इसमें विभिन्न विद्युत परियोजनाएं, हाइड्रो इलैक्ट्रिक प्रोजेक्ट तथा सिंचाई परियोजनाएं हैं। स्वास्थ्य एवं विभिन्न प्रकार की बीमारियों के इलाज की भी वहां कोई व्यवस्था नहीं थी। इन विकास कार्यों में डेलरम से जारंज तक की सड़क निर्माण योजना उल्लेखनीय है, जो अफगानिस्तान को ईरान के बन्दरगाह तक जोड़ती है। इसी भांति भारत द्वारा काबुल में संसद भवन का निर्माण कार्य किया जा रहा है। भारत ने इन सुधार व सहायता कार्यों में लगभग 1.5 लाख डालर खर्च किए हैं। मई, 2011 में प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह पुन: 500 लाख डालर की सहायता का वचन देकर आए हैं।
स्थिति जस की तस
ओसामा बिन लादेन के बाद अमरीका ने अपनी नीति में परिवर्तन लाने का आभास दिया है। अमरीका के राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा के अनुसार अफगानिस्तान से शीघ्र ही अमरीकी सैनिकों की वापसी होगी। 10,000 अमरीकी सैनिक वर्ष के अन्त तक तथा 5000 अगली गर्मियों तक लौटेंगे। ओबामा अगली गर्मी तक लगभग 30,000 सैनिकों की वापसी की बात कह रहे हैं। 2014 तक वे अधिकतर सैनिकों की वापसी का वचन दे रहे हैं। विचारणीय प्रश्न है कि क्या अफगानिस्तान की स्थिति सामान्य हो गई? क्या अमरीका की नीति से पाकिस्तान अपनी शरारती तथा षड्यंत्रकारी नीति से दूर हो गया है? क्या पाकिस्तान का रुख अफगानिस्तान के सन्दर्भ में शांति की स्थापना का है? वस्तुत: पाकिस्तान की गतिविधियों पर कोई अकुंश नहीं लगा है। पाकिस्तान अब भी आई.एस.आई. की सहायता से तालिबानियों को प्रशिक्षण देने तथा हथियार देकर भारत और अफगानिस्तान विरोधी अभियान में शामिल है। कुछ समय पूर्व एक ही वर्ष में काबुल में भारतीय दूतावास पर दो बार बड़े हमले हुए हैं। क्या काबुल में राष्ट्रपति के भाई तथा अन्य प्रमुख व्यक्तियों की हत्या इस बात का प्रमाण नहीं है कि अफगानिस्तान में अभी सब कुछ ठीक नहीं है।
सोचना तो भारत को है कि वह कब तक अमरीका की बैसाखियों के सहारे अपनी विदेश नीति का निर्धारण करता रहेगा? कब तक पाकिस्तान तथा चीन से दोस्ती, बातचीत, व्यापारिक समझौता आदि शब्दावली के कल्पना लोक में घूमता रहेगा? वस्तुत: चीन तथा पाकिस्तान से काबुल की सुरक्षा भारत की सुरक्षा से जुड़ी बात है। क्या केवल निर्माण कार्यों तथा आर्थिक सहायता से अफगानिस्तान सुरक्षित रहेगा? भारत को चाहिए कि बदलते परिप्रेक्ष्य में विदेश नीति में आवश्यक परिवर्तन करे। यह न भूले कि अफगानिस्तान सदैव से हमारा मित्र रहा है जबकि पाकिस्तान घृणा से निर्मित भारत का ही एक टुकड़ा। भारत को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अफगानिस्तान के सम्बंध चिरकाल से हैं। 1935 के एक सर्वेक्षण के अनुसार वहां 5000 ऐसे स्थान हैं जो हिन्दू तथा बौद्ध धर्म से जुड़े हैं। अत: अपनी विदेश नीति को सबल, सार्थक तथा संकल्प के साथ अफगानिस्तान से अच्छे सम्बंध बनाएं ताकि भविष्य में अफगानिस्तान युद्ध का अखाड़ा न बने। अफगानिस्तान से सम्बंध जोड़ें, तोड़ें नहीं।
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