सरोकार
|
मृदुला सिन्हा
हर परिवार का अपना इतिहास होता है। उनका इतिहास लेखन तो नहीं होता। पीढ़ी-दर-पीढ़ी कथा वाचन के माध्यम से परिवारों के सुख-दुख के प्रसंग प्रवाहित होते रहते हैं। उन कथाओं में दादा-परदादा के शौर्य की भी कहानियां होती है, वहीं उनके द्वारा किए गए कोई सामाजिक कार्य की भी कथाएं।
अकसर यह देखा जाता है कि परिवार की बड़ी-बूढ़ी औरतें अपने घर आई बहुओं को खानदान की कहानियां सुनाती हैं। उन कहानियों में पूर्वजों के गुणगान ही होते हैं। नई बहुओं को उन प्रसंगों को सुनकर अपने नये ससुराल परिवार से लगाव बढ़ता है। वे उस परिवार को उनके पूर्वजों के गुणों के साथ अपनाती हैं। उस परिवार और पूर्वजों के अवगुणों के प्रसंग तो गांव वाले स्मरण रखते हैं। अवगुणों की कथा पीढ़ी-दर-पीढ़ी गांव में भी प्रवाहमय रहती है। सुख-दु:ख के प्रसंग के साथ भी ऐसा ही होता है। अकसर बहुओं, बच्चों और दामादों को परिवार में बीते सुखद प्रसंग ही सुनाए जाते हैं। मैंने बचपन में अपनी नई-नवेली भाभियों को दादी सासों के पास बैठ कथा सुनते देखा था। भाभियां सासों के पांव दबातीं, तेल मालिश करतीं या पीठ मलमल कर नहलाती थीं। दादियां खानदान की कथा सुनाती जातीं।
शादी के बाद जब मैं भी अपनी ससुराल गई, ऐसा ही कुछ हुआ। उन कथाओं को सुन-सुनकर मुझे एहसास हुआ कि एक संस्कारयुक्त सुखद परिवार में मेरा विवाह हुआ। मानो उस परिवार पर दु:ख की छाया भी कभी नहीं पड़ी। उस परिवार को अपनाने का मन बनता गया। कुछ दिनों बाद सास ने भी प्रसंग सुनाना प्रारंभ किया। कई प्रसंगों को सुनाने के पूर्व वे कहतीं-व्क्या कहूं, दु:ख की बात।व् वे चुप हो जातीं। मेरे आग्रह पर ही सुनातीं। बात स्पष्ट हुई कि दु:ख-सुख तो हर परिवार में घटते हैं, झगड़ा-लड़ाई भी होती रही है, पर नई पीढ़ी को लोग सुखद और अनुकरणीय बातें ही सुनाते रहे हैं। दु:खद और अरुचिकर बातों को भुलाने का प्रयास चलता रहा है।
निम्नमध्यम वर्ग में गरीबी मुंह बाए खड़ी रहती है। वे दु:खद क्षण ही होते हैं। दूसरी ओर हर परिवार में निर्दयी स्त्री-पुरुष सदस्य भी रहते आए हैं जो बहुओं और बच्चों को दु:ख देते हैं। कुछ परिवारों में ऐसे कंजूस मुखिया होते आए हैं जो लक्ष्मी की कृपा से घर में सब कुछ रहते हुए भी परिवारजनों को भरपेट भोजन और अच्छे कपड़े भी नहीं देते। चार भाइयों के परिवारों के बीच दुष्टता और सह्मदयता के भी अनेक प्रसंग होते हैं।
आने वाली पीढ़ियों को सुखात्मक प्रसंग सुनाए जाते हैं। मेरे गांव में तीन रामकिशन थे। एक रामकिशन तो मेरे ही परिवार में थे। एक दिन विशेष चर्चा हो रही थी। दूसरे टोले के रामकिशन के बारे में किसी ने कहा-व्वह रामकिशन, चोरबा का पोता।व्
मैंने पूछा-'क्या मतलब?'
मतलब यह था कि उस रामकिशन के दादा ने किसी के बागीचे से आम चुराए थे। पकड़े गए। उनके परिवार की तीन पीढ़ियां बीत गई, अब तक उनके बच्चे चोरवा (चोर) के वंशज के नाम से ही पहचाने जाते हैं। मुझे विश्वास है कि उस परिवार की बुजुर्ग महिलाओं ने भी अपनी बहुओं को वंश के सुखद और उसी दादा जी के प्रेरणादायी प्रसंग ही सुनाऐ होंगे। पुरानी पीढ़ी के भाइयों के बीच आपसी मेलजोल के प्रसंग उस वक्त अधिक सुनाए जाते हैं जब उसी परिवार की तीसरी पीढ़ी के भाई लड़ते-झगड़ते हैं। उन कथाओं को सुनकर कुछ तो ह्मदय परिवर्तन होता ही है।
मेरी भाभी को मेरे खानदान के पूर्वजों के गुण-अवगुण और सुख-दु:ख वाली सभी कथाएं मालूम हो गई थीं। उनके मुंह से सुन-सुन कर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। मैंने पूछा-व्भाभी! मुझे दादी और मां ने दादा जी के ये दुर्गुण वाली कथा नहीं सुनाई। आपने कहां से सुन ली।व
भाभी ने कहा-'मुझे अड़ोस-पड़ोस की बुजुर्ग औरतों ने सुनाई।'
प्रसंग दु:खद हो या सुखद, दादा जी गुणों से भरे रहे हों या अवगुणों से, अगली पीढ़ी को मालूम होना ही चाहिए। संयुक्त परिवारों में दादा-दादियों का काम होता था वंश की कथाएं सुनाना। जब चार-पांच से लेकर आठ-दस भाई-बहन होते थे, प्रसंग भी अधिक बनते थे। आपसी प्रेम के, लड़ाई-झगड़े के। आज उच्चमध्यमवर्गीय परिवारों में एक ही बच्चा होता है। व्क्रेचव् या स्कूल छात्रावास में पलता है। माता-पिता कामकाजी हैं। उन्हें कथा सुनाने का समय कहां है? उन्हें भी तो नहीं मालूम। घर में दादी-नानी नहीं। कौन, कब, कहां सुनाए कथा। इसलिए तो इकलौता अधिक अकेलापन महसूस करता है। असुरक्षित। उनसे लड़ने-झगड़ने वाला कोई नहीं तो प्यार करने वाला भी तो नहीं है। अधिक तनाव है। वर्तमान में जीती नई पीढ़ी अपने वंश की गाथाओं में नहीं जीती, उनसे सुख-दु:ख में जीने की कला नहीं सिखती।
शहरों में पड़ोसी तो हैं, पर वे हमें ही नहीं जानते तो हमारे पूर्वजों को कहां से जानेंगे। हर व्यक्ति को अपनी पहचान स्वयं बनानी पड़ती है। गांवों में कई पीढ़ियों का संगसाथ होता था-तभी तो व्चोरवा का पोताव् या फिर व्साधु पुरुष का पोताव् जैसी भी पहचान बनती थी। शहरों की भीड़ में आदमी अकेला होता जा रहा है। दु:खी भी। अकेलेपन में दादा-परदादाओं के जीवन के सुखद प्रसंगों की स्मृतियां ही नहीं हैं तो उसे सहलाए कौन! दादा-दादी की अनुपस्थिति में भी उनकी स्मृतियां हलराती-दुलारती थीं, सुखद एहसास दिलाती थीं।
पहली पाठशाला परिवार ही है। परिवार के प्रति मन में गौरवभाव भरा हो तो राष्ट्रप्रेम भी वहां ही फूलता-फलता है। आज चिल्ला-चिल्लाकर हम नारे लगाते हैं, राष्ट्र के प्रति गौरव भाव ढूंढ़ते हैं, पर असफलता हाथ लगती है। इस असफलता की जड़ भी व्यक्ति की मानसिकता में है। व्यक्ति को अपने परिवार के इतिहास के प्रति गौरव भाव नहीं है। उसने सुना ही नहीं, उसकी क्या गलती? ऐसी स्थिति में राष्ट्रप्रेम भी नहीं पलता। दरअसल अदृश्य के बारे में प्रेम भाव का भी अभ्यास हो जाता है।
मेरे घर में मेरी बहू संगीता ब्याह कर आई थी। हमलोग उठते-बैठते सास-ससुर के बारे में सारे प्रसंग सुनाते रहे। एक दिन अपनी सास के बारे में कहते-कहते मैं रोने लगी। मेरे साथ वह भी रोई। मैंने आश्चर्य प्रगट किया। पूछा-व्तुम क्यों रोई?व्
उसने कहा-व्पिछले दो महीने में आप लोगों ने दादी जी के बारे में इतना सुनाया है कि मुझे लगने लगा जैसे मैं भी उनसे मिली, उनके साथ उठी-बैठी हूं।व् अपने पूर्वजों के बारे में सुनाने का ऐसा प्रभाव पड़ता है। सुख या दु:ख का इतिहास प्रवाहित होता रहता है पीढ़ी-दर-पीढ़ी। तभी तो हमें अपने पूर्वजों पर गर्व होता है।
टिप्पणियाँ