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डा. मनमोहन वैद्य
अ.भा. प्रचार प्रमुख, रा.स्व.संघ
श्री अण्णा हजारे के नेतृत्व में जन लोकपाल बिल को लेकर हाल ही में हुए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के दौरान सभी देशवासियों ने, विशेषत: युवा पीढ़ी ने एक अभूतपूर्व, पूर्णत: अहिंसक, देशव्यापी एवं व्यापक जन समर्थन प्राप्त एक जन आंदोलन का सुखद अनुभव किया। आंदोलन के समय व्भारत माता की जय और वन्देमातरम्व् के जयघोषों ने सभी के मन की क्षुद्रता तथा आत्मग्लानि को धो डाला और शुद्ध राष्ट्रभाव से सभी के ह्मदयों को ऐसा भर दिया कि लाखों युवक-युवतियों के ह्मदयाकाश से जगदाकाश तक गूंजने वाली व्भारत माता की जयव् की ध्वनि सर्वत्र सुनाई दे रही थी।
नई पीढ़ी के सरोकार
नई पीढ़ी, जिसे व्फिल्म, फैशन, फेसबुकव् वाली पीढ़ी कहा जाता था, के भी राजनीतिक सरोकार हैं तथा चुनौती सामने आने पर वह सड़क पर आकर, तिरंगा हाथ में लेकर, व्भारत माता की जय-वंदेमातरम्व् के नारे गुंजाकर अहिंसक मार्ग से अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर सकती है, यह भी इस आंदोलन ने सिद्ध किया। संसदीय लोकतंत्र का प्रवाह जब अपनी ही सीमाओं का बंदी होकर जन भावनाओं के प्रति संवेदनहीन हो जाता है तब जनता अपना दबाव बनाकर संसदीय लोकतंत्र को अपनी सीमाओं के बंधन से मुक्त कर संवेदनशील लोकतंत्र के अवरुद्ध प्रवाह को पुन: प्रवाहित करा सकती है, यह संकेत भी इस आन्दोलन से मिलता है। भ्रष्टाचार के बारे में जनता कितनी चिंतित है और आंदोलित हो सकती है, यह भ्रष्टाचार के विरोध में चल रहे सभी प्रकार के आंदोलनों यूथ अगेन्स्ट करप्शन, श्री बाबा रामदेव तथा श्री अण्णा हजारे को मिले व्यापक जन समर्थन से सभी ने अनुभव किया। स्वामी रामदेव व श्री अण्णा हजारे के आंदोलनों के समय आंदोलनकारियों के साथ सरकार के व्यवहार तथा कांग्रेस के पदाधिकारियों के अशोभनीय वक्तव्यों से भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाकर उसे निर्मूल करने की सरकार की इच्छा का अभाव तथा सत्ता के कारण पैदा हुआ दंभ भी उजागर हुआ। पर अंतत: सरकार ने जन दबाव के सामने अपनी जिद छोड़कर समझौते का मार्ग अपनाया, यह अच्छा ही हुआ। श्री अण्णा हजारे के आंदोलन से एक शुभ संकेत यह भी मिला कि जनता एकजुट होकर अहिंसक मार्ग से अन्यायी सरकार को भी झुका सकती है, यह विश्वास जनता के मन में जगा है।
संघ की सहभागिता
कुछ लोगों ने श्री अण्णा हजारे के आंदोलन के लिए रा.स्व.संघ को अकारण विवाद में घसीटने का असफल प्रयास किया। वस्तुत: श्री अण्णा हजारे संगठनात्मक दृष्टि से रा.स्व.संघ के साथ कभी भी जुड़े नहीं थे। अपने गांव रालेगण सिद्धि में उनके द्वारा किए गए ग्रामीण विकास के सफल प्रयोगों से प्रभावित होकर रा.स्व.संघ ने ग्रामीण विकास के कार्य में श्री अण्णा हजारे का मार्गदर्शन एवं सहयोग प्राप्त किया था। उसी समय तत्कालीन सरकार्यवाह श्री हो.वे. शेषाद्रि ने श्री अण्णा हजारे तथा उनके ग्रामीण विकास के कार्य का सभी को परिचय कराने हेतु व्एक कर्मयोगी का गांवव् नामक पुस्तिका लिखी थी। संघ के अनेक कार्यकर्ताओं ने श्री अण्णा हजारे द्वारा किए गए ग्रामीण विकास के कार्य को प्रत्यक्ष देखने हेतु रालेगण सिद्धि की यात्रा की थी।
रा.स्व.संघ ने मार्च, 2011 में अपनी अ.भा. प्रतिनिधि सभा की बैठक में एक प्रस्ताव पारित कर भ्रष्टाचार जैसी देश विघातक गंभीर समस्या पर चिंता जताते हुए, भ्रष्टाचार को समाप्त करने हेतु करणीय व प्रभावी उपायों पर चर्चा की थी। उसी प्रस्ताव में सभी देशवासियों से आवाहन किया था कि भ्रष्टाचार के विरोध में चलने वाले प्रत्येक आंदोलन में सहभागी हों। इसलिए भ्रष्टाचार विरोधी सभी आंदोलनों में जनता के साथ संघ के स्वयंसेवक भी सर्वत्र सक्रिय रूप से सहभागी थे।
मातृभूमि की वंदना
इस आंदोलन का एक और शुभ संकेत है कि सभी लोग व्भारत माता की जयव् और व्वन्देमातरम्व् का मुक्त कंठ से जयघोष करते दिखे। इन नारों को इस्लाम विरोधी कहकर इसका विरोध करने का प्रयास भी हुआ। व्भारत माता की जयव् या व्वन्देमातरम्व् को इस्लाम विरोधी कहना साम्प्रदायिक एवं अलगाववादी सोच है। परन्तु आंदोलन के आयोजकों तथा जनता ने भी इस सांप्रदायिक तथा अलगाववादी स्वर को महत्व नहीं दिया। मुस्लिम समुदाय ने भी इस सांप्रदायिक सोच वालों का साथ नहीं दिया। यह एक और शुभ संकेत है। कुछ लोगों ने व्वन्देमातरम्व् को रा.स्व.संघ के साथ जोड़ने तथा इसे सांप्रदायिक बताने का प्रयास किया। माता तथा मातृभूमि का सम्मान करना, उसकी जय-जयकार करना, उसका आदरपूर्वक वंदन करना, इसमें सांप्रदायिकता कहां से आती है? यह तो भारत की सदियों पुरानी परम्परा है। व्वन्देमातरम्व् गीत रा.स्व.संघ की स्थापना (1925) के पहले से ही समूचे राष्ट्र में स्वतंत्रता आंदोलन का मूल मंत्र बन चुका था। इसीलिए 1905 में ब्रिटिश सरकार ने वन्देमातरम् बोलने पर प्रतिबन्ध लगाया था। संघ संस्थापक डा. हेडगेवार ने दसवीं कक्षा में पढ़ते समय (1907में) इस अन्यायी प्रतिबंध का उल्लंघन कर वन्देमातरम् गुंजाकर अपनी प्रखर देशभक्ति का परिचय दिया था तथा माफी न मांगते हुए उसके दण्ड को सहर्ष स्वीकार किया था।
वन्देमातरम् की यात्रा
वन्देमातरम् गीत बंकिम चंद्र चटर्जी ने 7 नवम्बर, 1876 को रचा और 1882 में प्रकाशित व्आनन्दमठव् नामक प्रसिद्ध उपन्यास में इसे समाविष्ट किया। 1886 में कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसे गाया। 1901 के कांग्रेस अधिवेशन में श्री दक्षरंजन सेन ने सभी को वन्देमातरम् का सामूहिक अभ्यास करवाया। वाराणसी के कांग्रेस अधिवेशन (1905) में रवीन्द्रनाथ टैगोर की भतीजी श्रीमती सरलादेवी ने ब्रिटिश सरकार की रोक के बावजूद इसे गाया। 1905 में ब्रिटिश सरकार द्वारा बंगाल के विभाजन के प्रस्ताव के विरोध में जन आंदोलन में यह जागरण का शंखनाद बन गया। हिन्दू-मुसलमान सभी ने इसका मुक्त कंठ से गान किया। सभी के द्वारा एकजुट होकर किए प्रयासों के परिणामस्वरूप ब्रिटिश सरकार को 1911 में बंगाल के विभाजन का प्रस्ताव निरस्त करना पड़ा। इसके पश्चात् केवल बंगाल में ही नहीं, बल्कि समग्र भारत में वन्देमातरम् स्वतंत्रता आंदोलन का युद्ध घोष और देशभक्ति का उद्घोष बन गया। 1915 से कांग्रेस के प्रत्येक राष्ट्रीय अधिवेशन में नियमित रूप से आग्रहपूर्वक वन्देमातरम् का गान होने लगा। उस समय वन्देमातरम् न इस्लाम विरोधी था और न सांप्रदायिक। हिन्दू मुसलमान सभी समान रूप से स्वतंत्रता आंदोलन में वन्देमातरम् का जयघोष करते थे। अनेक क्रांतिकारी वन्देमातरम् का उद्घोष करते-करते ब्रिटिश शासन के अत्याचार सहन कर लेते थे तथा फांसी के फंदे पर झूल जाते थे।
सांप्रदायिक-अलगाववादी सोच
परन्तु 1921 में खिलाफत आंदोलन को कांग्रेस का समर्थन मिलने के पश्चात मुस्लिम समाज के कट्टरपंथी तत्वों का महत्व बढ़ा। इसी के साथ वन्देमातरम् को इस्लामविरोधी एवं सांप्रदायिक कहकर इसका विरोध होना आरंभ हुआ। काकीनाडा में कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन (1923) में तत्कालीन अध्यक्ष श्री मोहम्मद अली ने वन्देमातरम् का स्पष्ट तौर पर विरोध किया। मुस्लिमों के कट्टर एवं सांप्रदायिक नेतृत्व के आगे झुककर कांग्रेस ने अपने अधिवेशनों में वन्देमातरम् गान का आग्रह छोड़ दिया। कुछ कट्टरपंथी लोग प्रत्येक समाज में हर समय रहते हैं। परन्तु राष्ट्रीय नेतृत्व तथा जाग्रत समाज ऐसे तत्वों को अधिक महत्व न देते हुए हर हाल में राष्ट्रीय स्वर को मुखर बनाते रहते हैं। दुर्भाग्य से 1921 के बाद से इस अलगाववादी सांप्रदायिक स्वर को अधिक महत्व मिलता गया। इसका परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस के सभी राष्ट्रीय नेताओं की इच्छा के विपरीत भारत के विभाजन को उन्हें स्वीकार करना पड़ा।
स्वतंत्रता के बाद भी राजनीतिक स्वार्थ के लिए ऐसी सांप्रदायिक-अलगाववादी सोच वाले लोगों को महत्व दिया जाने लगा। 1975 के आपातकाल के बाद व्सेकुलरवादव् के नाम पर साम्प्रदायिक-अलगाववादी तत्वों को और अधिक पुष्ट होने दिया गया। इस पृष्ठभूमि में देखा जाए तो स्वतंत्रता के बाद पहली बार इस जन आंदोलन के नेतृत्व ने तथा सम्पूर्ण समाज ने सांप्रदायिक-अलगाववादी स्वर को हाशिए पर रखते हुए राष्ट्रीय स्वर को बनाए रखा, यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण शुभ संकेत है।
सबकी भारतमाता
भारत माता के विषय को लेकर रा.स्व.संघ को विवाद में लाने का प्रयास हुआ। भ्रष्टाचार के विरुद्ध श्री अण्णा हजारे के आंदोलन के प्रथम चरण में जंतर-मंतर पर मंच की पृष्ठभूमि में भारतमाता का विशाल चित्र था। वह चित्र रा.स्व.संघ ने तो वहां नहीं रखा था, फिर भी उसे रा.स्व.संघ द्वारा प्रचलित-प्रसारित भारत माता का चित्र कहा गया। क्या भारत माता केवल संघ के स्वयंसेवकों की है? वह तो समस्त भारतवासियों की भारतमाता है। भारत में इस पवित्र धरती को पुण्यभूमि, कर्मभूमि, मातृभूमि कहकर गौरवान्वित करने की परम्परा सदियों से चली आ रही है।
1897 में अमरीका से लौटकर आने के पश्चात स्वामी विवेकानंद ने जब भारत की भूमि पर अपना कदम रखा तब हजारों स्वागतोत्सुक लोगों की उपस्थिति में उन्होंने भूमि को साष्टांग प्रणाम कर उसकी पवित्र रज अपने शरीर पर धारण की। लोगों के द्वारा व्ऐसा क्यों?व् पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि मैं चार वर्ष (1893-1897) भारत से दूर भोगभूमि में रहकर आ रहा हूं। यदि कोई दोष मुझमें आया हो तो इस पवित्र धरती की रज के स्पर्श मात्र से वह दोष दूर हो जाएगा। बाद में एक भाषण में उन्होंने सम्पूर्ण भारतवासियों से आवाहन किया था कि आने वाले 50 वर्षों के लिए सारे भारतवासी अपने-अपने व्यक्तिगत देवी-देवताओं को एक बाजू में रखकर एक ही देवी की आराधना करें, और वह देवी है- भारतमाता। क्या विवेकानंद सांप्रदायिक थे? उन्होंने तो विभेदों में बंटे और विषमता से भरे अपने समाज को आपसी भेद भूलकर एक समान पहचान देने की दृष्टि से यह आवाहन किया था, जिससे हम सब एकजुट होकर स्वतंत्रता के लिए प्रयास कर सकें।
इतिहास से सबक लें
यह सच है कि रा.स्व.संघ ने भी सभी भारतवासियों को अपनी जाति, भाषा, प्रांत, उपासना पद्धति के भेदों से ऊपर उठकर एक भारतवासी के रूप में एक समान पहचान देने की कल्पना से, व्यह हमारी भारत माता है और हम सभी इसकी सन्तान हैं इसलिए भाई-भाई हैंव् यह भाव निर्माण करने का सफल प्रयास किया है। इसमें संकुचितता या सांप्रदायिकता कहां है? यह तो अलगाववाद एवं सांप्रदायिकता के महा दोष का रामबाण इलाज है। श्री अण्णा हजारे के आंदोलन के दूसरे चरण में मंच पर भारत माता का चित्र नहीं था। उसके स्थान पर महात्मा गांधी जी का चित्र था। क्या दोनों चित्र नहीं रह सकते थे? मंच पर कौन से चित्र हों, यह निर्णय आंदोलन के संचालक ही करेंगे, यह सही है। और भारत माता के स्थान पर गांधी जी का चित्र लगाने से भी आंदोलन उतना ही महत्वपूर्ण होगा, यह भी सही है। परन्तु भारतमाता संघ की है या सांप्रदायिक है, ऐसा मानकर इसका विरोध करने की क्षुद्रता दिखाने वालों के आगे झुककर यदि भारतमाता का चित्र हटाया गया हो तो वह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण होगा। यह इस देश की विचार परम्परा तथा आचार परम्परा के भी विपरीत होगा और हम इतिहास से कुछ नहीं सीखे हैं, ऐसा इसका अर्थ होगा।
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