आंगन की तुलसी
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शैव्या
राजा हरिश्चन्द्र बड़े सत्यवादी राजा थे। दान देने में तो उनकी बराबरी करने वाला कोई भी नहीं था। तारा उनकी पत्नी थी। राजा शिवि की कन्या होने के कारण वह शैव्या कहलाई। उनके पुत्र का नाम रोहिताश्च था। राजा का जीवन बड़े सुख एवं आनन्द से व्यतीत हो रहा था। वह एक आदर्श राजा थे। प्रजा उनसे बहुत स्नेह करती थी। वे भी प्रजा का पुत्रवत पालन करते थे।
कहा जाता है कि एक बार वन में राजा हरिश्चन्द्र ने विश्वामित्र को उनके मांगने पर अपना सारा राज्य दान कर दिया। जब शैव्या को इसका पता चला तो उसने पति से कहा, व्स्वामी, धन, राज्य सब नाशवान है, धर्म नित्य है और सुख देने वाला है। हम धर्म का ही पालन करेंगे। आपत्तियां आती हैं, आने दो। हम आपत्तियों का हंस कर सामना करेंगे।व्
दूसरे ही दिन विश्वामित्र दरबार में आ धमके। वे बोले, व्राजन, अब यह सारा राज्य मेरा है, अत: तुम्हें यहां से चले जाना चाहिए।व् हरिश्चन्द्र बल्कल वस्त्र पहन पत्नी और पुत्र के साथ जैसे ही चलने को तैयार हुए तभी विश्वामित्र बोल पड़े, व्पहले मेरी दक्षिणा दो अन्यथा मैं तुम्हे शाप दे दूंगा।व् राजा हरिश्चन्द्र ने एक माह का समय मांगा। हरिश्चन्द्र, शैव्या और रोहिताश्च पैदल चल कर ही शिव की नगरी काशी पहुंचे। एक माह पूर्ण होने में केवल एक दिन ही शेष रह गया था। अचानक उसी समय कहीं से तभी विश्वामित्र आ पहुंचे। उन्होंने दक्षिणा मांगी। रानी बोली, व्नाथ, मुझ से पुत्र का जन्म हो चुका है, आप मुझे बेच कर दक्षिणा चुका दें।व्
यह सुन राजा दु:ख से व्याकुल हो उठे। समय जाता हुआ देख उन्होंने आवाज लगाई- व्साहूकारो सुनो! हम अपनी प्यारी पत्नी को बेचना चाहते हैं!व् एक वृद्ध ब्रााहृण ने धन देकर रानी को खरीद लिया। उसे दासी की आवश्यकता थी। जब शैव्या पति से अन्तिम विदा ले जाने लगी तो रोहिताश्च ने मां का आंचल पकड़ लिया। शैव्या मानो पत्थर बन चुकी थी। वह कर्तव्य कठोर थी, पर बालक की ममता ने उसे हिला दिया। उसने ब्रााहृण से प्रार्थना की, व्कृपा कर आप इसे भी खरीद लें। मैं मन लगा कर आपकी सेवा करूंगी।व् ब्रााहृण ने धन देकर बालक को भी खरीद लिया।
राजा ने प्राप्त धन विश्वामित्र को दे दिया। पर वह अभी भी कम था। विश्वामित्र न माने तब राजा ने अपने को बेचने की घोषणा की। एक चाण्डाल ने आगे बढ़ कर राजा को खरीद लिया। विश्वामित्र धन लेकर चले गए। चाण्डाल ने हरिश्चन्द्र को श्मशान घाट पर कर वसूलने के काम पर लगा दिया।
एक बार अंधेरी रात में राजा आवाज लगाकर श्मशान घाट पर पहरा दे रहे थे। तभी एक स्त्री अपने मृत बालक का शव लेकर वहां आई। वह बहुत दुर्बल, दुखी और दीन लग रही थी। उसके पास कफन के लिए न कपड़ा था और न कर चुकाने को धन। तभी अचानक बड़े जोर की बिजली चमकी, आकाश में काले बादल छा गए। बिजली के प्रकाश में राजा ने पहचाना कि स्त्री शैव्या है और मृत बालक उनका ही पुत्र रोहिताश्च है। वे मूर्छित हो गए। पर थोड़ी देर बाद होश आने पर उन्होंने स्वयं को संभाला और उस स्त्री से श्मशान का कर मांगा। उन्होंने कहा, व्मैं यहां का प्रहरी हूं। मेरे स्वामी की आज्ञा है कि बिना कर दिए यहां कोई अग्नि संस्कार नहीं कर सकता।व् शैव्या ने बहुत अनुनय-विनय की पर राजा न माने। विवश होकर शैव्या ने अपनी पहनी हुई आधी साड़ी फाड़ने को हाथ उठाया तभी वहां धर्मराज उपस्थित हुए। उन्होंने शैव्या को रोका और कहा हम इस धर्मनिष्ठ राजा की परीक्षा ले रहे थे, राजा खरा उतरा। इसी बीच रोहिताश्च जीवित हो उठा। हरिश्चन्द्र अपनी पत्नी शैव्या और पुत्र रोहिताश्च के साथ अयोध्या लौटे। रोहिताश्च को राज्य देकर राजा हरिश्चन्द्र और शैव्या तपस्या करने वन में चले गए।
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