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एक अहिंसक समाज की त्रासदी-4राष्ट्रवाद बनाम पृथकतावाद27 जून 1947 को लार्ड माउंट-बेटन के नाम गांधी जी का निजी पत्र विभाजन के समय हिन्दू समाज की वस्तुस्थिति का सही चित्र प्रस्तुत करता है। अंदर से विभाजित, नि:शस्त्र, अहिंसक हिन्दू समाज मजहबी जुनून से भरे संगठित मुस्लिम समाज के हिंसक आक्रमणों का सामना करने में सक्षम नहीं था। इसी स्थिति ने कांग्रेस नेतृत्व को देश विभाजन स्वीकार करने के लिए बाध्य किया। यही बात सरदार पटेल ने स्पष्ट शब्दों में स्वीकार भी की। किसी भी हिन्दू मन को मातृभूमि का विभाजन स्वीकार्य नहीं था, तब सरदार पटेल जैसे प्रखर देशभक्त को क्यों होता। 16 मई 1946 को केबिनेट मिशन योजना बहुत कमियां होने के बावजूद सरदार को केवल इसलिए स्वीकार्य हुई क्योंकि उन्हें व्2ि7 ाभाजन का खतरा टलने की संभावना दिखायी दी। अगले ही दिन, 17 मई 1946 को उन्होंने कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी को पत्र लिखा कि “इस योजना से वह खतरा टल गया है जो हमारे देश पर मंडरा रहा है। कई वर्षों में पहली बार किसी भी रूप में पाकिस्तान बनने की संभावना के विरुद्ध ब्रिटिश सरकार की ओर से अधिकृत घोषणा हुई है। ब्रिटिश सत्ता का भारत से जाना सुनिश्चित है और अब हम किसी बाहरी हस्तक्षेप के बिना अपने भाग्य का निर्माण कर सकेंगे। अब हम अपने जीवन लक्ष्य की पूर्ति के किनारे आ पहुंचे हैं।” (मुंशी: पिलग्रिमेज टू फ्रीडम, बम्बई 1967, पृ.103)खूनी गृहयुद्ध की आशंकालेकिन, अंतरिम सरकार के गठन के पश्चात मुस्लिम लीग द्वारा उसके बहिष्कार, कलकत्ता और नोआखली में हिन्दुओं के सुनियोजित नरमेध और वायसराय लार्ड बावेल के आग्रह पर अंतरिम सरकार का अंग बनते ही सरकार को पंगु बनाने के षड्यंत्र ने सरदार के आशावाद को ध्वस्त कर दिया और उनके सामने विभाजन को स्वीकार करने के अलावा कोई उपाय नहीं छोड़ा। सरदार की इस मन:स्थिति का वर्णन करते हुए मुंशी जी लिखते हैं कि “1947 में मैं और सरदार, दोनों घनश्यामदास बिड़ला के अतिथि थे। प्रात:कालीन भ्रमण के समय जब कभी सरदार मूड में होते तो मेरे साथ ऐसी समस्याओं की चर्चा छेड़ बैठते जिनमें उनका मस्तिष्क उस समय उलझा होता। एक दिन बातों-बातों में उन्होंने मुझे चिढ़ाते हुए कहा, “ओ अखंड हिन्दुस्थानी, अब हमने भारत का बंटवारा करने का निर्णय कर लिया है।” स्वाभाविक ही यह सुनकर मुझे बहुत धक्का लगा। सरदार शुरू से ही विभाजन का विरोध करते आ रहे थे और वे विभाजन का समर्थन करने के कारण राजाजी की बहुत कटु शब्दों में आलोचना किया करते थे। यकायक सरदार में यह परिवर्तन क्यों? सरदार मुझे समझाने लगे कि वे इस निर्णय पर क्यों पहुंचे। उन्होंने उस समय दो कारण आग्रहपूर्वक प्रस्तुत किए। पहला था कि कांग्रेस अहिंसा के प्रति वचनबद्ध है, इसलिए उसका हिंसक प्रतिरोध अपनाना संभव नहीं है। यदि वह अपनी विचारधारा को छोड़ना चाहे तो भी इस समय हिंसक प्रतिरोध का अर्थ होगा कांग्रेस का अंत और मुस्लिम लीग के साथ लम्बा हिंसक संघर्ष। जिसका लाभ उठाकर ब्रिटिश सरकार अपनी पुलिस और फौज के सहारे देश को अपनी गुलामी में जकड़े रहेगी।दूसरा कारण सरदार ने यह बताया कि अगर हम विभाजन स्वीकार नहीं करते हैं तो प्रत्येक शहर और गांव में लम्बा खूनी गृहयुद्ध चलेगा। तब सेना और पुलिस में भी साम्प्रदायिक आधार पर दरार पड़ जाएगी। उस स्थिति में हिन्दू कट्टरवादी स्वभाव और सुदृढ़ संगठन के अभाव में कमजोर पड़ जाएंगे। सरदार ने कहा कि यदि दोनों समाजों के बीच संघर्ष होना ही है तो अच्छा हो कि वह संगठित सरकारों के आधार पर लड़ा जाए। पूरे देश में बिखरे हुए दोनों समाजों के बजाय सरकारों के आधार पर समस्याओं को हल करना ज्यादा सरल होगा, सरदार का यह कथन मुंशी जी को जंचा। वे लिखते हैं कि “मुझे हिन्दू-मुस्लिम दंगों का बहुत कटु अनुभव है। मैंने पाया कि दंगों के समय ब्रिटिश अधिकारियों का झुकाव बहुधा मुसलमानों के पक्ष में होगा।” (वही, पृ.126-127)चरम पर नरसंहारसमझौता वार्ता की मेज पर बैठकर विभाजन का निर्णय होने पर भी विभाजन की तिथि के पहले और बाद में जो खून-खराबा हुआ वह विश्व इतिहास में बेजोड़ है। कितने ही लाख स्त्री, पुरुष, बच्चे, बूढ़े निर्दयतापूर्वक काट डाले गये। कितने लाख अपने घरों से उजड़कर शरणार्थी बन गए, कितनी ही हजारों महिलाओं का अपहरण व शील भंग हुआ, कितने अरबों-खरबों रुपयों की सम्पत्ति का ध्वंस हुआ, इस ह्मदय विदारक कहानी को यहां विस्तारपूर्वक देना संभव नहीं है। उसके लिए जस्टिस के.डी.खोसला की “स्टर्न रेकनिंग”, शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति द्वारा प्रकाशित “मुस्लिम लीग अटैक्स आन सिक्ख्स एंड हिन्दूज” जैसे विपुल प्रामाणिक समकालीन साहित्य का अध्ययन पर्याप्त होगा।मुख्य प्रश्न यह है कि क्या विभाजन का मूल्य चुका कर भी खंडित भारत को शांतिपूर्वक अपने भाग्य का निर्माण करने का अवसर मिल पाया? लम्बे स्वतंत्रता आंदोलन के सामने जो मुस्लिम प्रश्न अवरोध बनकर खड़ा रहा, क्या उससे छुटकारा मिल पाया? इसे कौन अस्वीकार कर सकता है कि विभाजन का एकमात्र आधार हिन्दू-मुस्लिम प्रश्न था। 1946 के चुनावों से प्रमाणित हुआ कि पूरा मुस्लिम समाज विभाजन के पक्ष में खड़ा था तो पूरा हिन्दू समाज अखंड भारत के। दोनों समाजों के बीच इस भावनात्मक खाई को मि. जिन्ना के शब्दों में “द्विराष्ट्रवाद” कहें या “एक राष्ट्रवाद के विरुद्ध पृथकतावाद का संघर्ष।” राष्ट्र का आधार भूगोल होता है और इस्लामी विचारधारा भौगोलिक राष्ट्रवाद को स्वीकार नहीं करती है। वह मानव जाति को मुस्लिम और गैर मुस्लिम में विभाजित करती है। वह पूरे विश्व के मुसलमानों को एक “उम्मा” यानी एक परिवार मानती है। वहां सामूहिक पहचान का आधार भूगोल या राष्ट्र न होकर मजहब को माना जाता है। और इस आधार पर विभिन्न देशों को दारुल हरब या दारुल इस्लाम कहा जाता है। दारुल हरब यानी गैर मुस्लिम शासन को झेलना इस्लाम को कबूल नहीं है। शरीयत ऐसे देश से किसी मुस्लिम देश को हिजरत (निष्क्रमण) करने या उस देश को दारुल हरब से दारुल इस्लाम में बदलने का आदेश देती है। इस आदेश के अनुसार ही पाकिस्तान की मांग का वास्तविक अर्थ था हिन्दू बहुल भारत से उन क्षेत्रों को अलग करना जहां मुस्लिम समाज दारुल इस्लाम की स्थापना कर सकता था। इसलिए स्पष्ट शब्दों में, पाकिस्तान की मांग भारत नामक भौगोलिक राष्ट्र को तोड़कर मुस्लिम राज्य यानी दारुल इस्लाम की स्थापना करना थी। यह भारतीय राष्ट्रवाद के विरुद्ध मुस्लिम पृथकतावाद का संघर्ष था। यह भारत का हिन्दू दारुल हरब और मुस्लिम दारुल इस्लाम में विभाजन था। इसका जीता जागता प्रमाण 15 अगस्त 1947 को दोनों विभाजित क्षेत्रों की सीमाओं से मिल जाता है। यदि भारत की स्वाधीनता केवल 150-200 वर्ष लम्बी ब्रिटिश दासता से मुक्ति होती तो पूरा ब्रिटिश भारत स्वाधीन भारत का अंग होता, किंतु ऐसा नहीं हुआ। पश्चिम में रावी नदी उसकी सीमा बनी। उसके परे का वह क्षेत्र, जिसे महमूद गजनवी ने सन् 1017 में जीतकर अपने इस्लामी राज्य का अंग बनाया था, और 1100 वर्षों में मतांतरण के द्वारा मुस्लिम बहुल बन गया था, वह भारत से अलग हो गया और पूरब में वह पूर्वी बंगाल, जहां के निवासी चाहे जिन कारणों से अपना परंपरागत पंथ छोड़कर इस्लाम की गोद में चले गये थे, भी भारत से छिटक गया।राष्ट्रीय समाज की निर्मिति के लिएइतिहास के इस सत्य की घोषणा करने के लिए ही सरदार पटेल ने स्वाधीनता के विहान में सन् 1026 में महमूद गजनवी द्वारा ध्वस्त पवित्र सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण का संकल्प लिया जिसका गांधी जी ने मुक्त ह्मदय से स्वागत किया और भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा.राजेन्द्र प्रसाद ने शिव लिंग की प्राणप्रतिष्ठा की। इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में यह एक सुखद आश्चर्य ही था कि हिन्दू बहुल खंडित भारत की लगभग समूची मुस्लिम जनसंख्या ने पाकिस्तान जाने के बजाय भारत में ही रहने का निर्णय लिया। क्या इस निर्णय का कारण उनका ह्मदय परिवर्तन था या इस्लामी विचारधारा के बारे में पुनर्चिंतन? इसे तो स्वीकार करना ही होगा कि भारत विभाजन की मांग पहले उन क्षेत्रों से नहीं उठी जिन्हें पाकिस्तान बनना था, बल्कि उन क्षेत्रों से उठी जो खंडित भारत का अंग हैं। सर सैयद अहमद की ये घोषणाएं कि “हमारी रगों” में आक्रमणकारी विजेताओं का रक्त बह रहा है और अंग्रेजों के वापस जाने के बाद भारत पर राज कौन करे, हिन्दू या मुस्लिम, इसका फैसला संख्या बल से नहीं तलवार से होगा”, लखनऊ और मेरठ में हुई थीं, न कि लाहौर या ढाका में। 1930 में अल्लामा इकबाल के अध्यक्षीय भाषण कि शरीयत का राज स्थापित करने के लिए भारत का विभाजन आवश्यक है, इलाहाबाद में हुआ था न कि कराची में। यह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय ही था जिसके छात्र और शिक्षक पाकिस्तान आंदोलन के मशालची थे। 1937 और 1946 के चुनाव परिणामों ने भी स्पष्ट कर दिया था कि खंडित भारत के मुसलमान गांधी और नेहरू के साथ नहीं हैं। किंतु फिर भी उन्होंने खंडित भारत में हिन्दू कांग्रेस के राज में रहने का निर्णय लिया, यह इतिहास का छोटा आश्चर्य नहीं है।खंडित भारत का वैचारिक अधिष्ठान सर्वपंथ समादर भाव अथवा पंथनिरपेक्षता अथवा सेकुलरिज्म है। लोकतंत्रीय प्रणाली पर आधारित भौगोलिक राष्ट्रवाद है। ये दोनों ही तात्विक आधार इस्लामी विचारधारा को मान्य नहीं हैं। ऐसे भौगोलिक राष्ट्रवाद का अंग बनने के लिए पहली आवश्यकता थी कि स्वाधीन भारत की मुस्लिम पीढ़ी इस सत्य को स्वीकार करती कि वे आक्रमणकारी विदेशियों की नहीं, भारतीय पूर्वजों के ही वंशज हैं। दूसरे, वे विदेशी आक्रमणकारियों के मजहबी विस्तारवाद, असहिष्णुता और श्रद्धाकेन्द्रों के विध्वंस की नीति को अस्वीकार करते हैं और उन विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा विध्वंसित श्रद्धाकेन्द्रों के पुनर्निर्माण का स्वागत करते हैं। तीसरे, इस्लामी उपासना पद्धति के प्रति निष्ठा रखकर भी भारत के प्राचीन इतिहास और संस्कृति को उसी तरह श्रद्धापूर्वक शिरोधार्य करते हैं जैसे उदाहरण इंडोनेशिया के मुस्लिम समुदाय ने प्रस्तुत किए हैं। किसी भी भूखंड पर एकात्म समरस राष्ट्रीय समाज की निर्मिति तब तक संभव ही नहीं है जब तक कि भाषा, पंथ, आचार-धर्म की विविधता के होते भी वहां रहने वाला मानव समुदाय उस भूमि के प्रति मातृवत श्रद्धा और भूमि की ऐतिहासिक सांस्कृतिक यात्रा का अपने को अभिन्न अंग न माने।क्या विभाजन के बाद खंडित भारत में बसने का निर्णय लेने वाले मुस्लिम समाज ने इस दिशा में कोई पहल की? क्या उन्होंने स्वयं आगे बढ़कर काशी, अयोध्या, मथुरा और सोमनाथ के पवित्र मंदिरों के ध्वंसावशेषों को वापस करने और उनके पुनर्निर्माण में अपने हिन्दू बंधुओं को सहयोग देने का प्रस्ताव किया? उल्टे, हम गांधी जी को 25 दिसंबर 1947 को अपनी प्रार्थना सभा में किसी उर्दू पत्रिका में प्रकाशित एक शेर पर दुख प्रगट करते पाते हैं। उस शेर में कहा गया था कि “इन दिनों हर जुबां पर सोमनाथ की चर्चा है। जूनागढ़ में जो कुछ हो रहा है उसका बदला लेने के लिए महमूद गजनवी को फिर से भारत आना होगा।” यह शेर पढ़कर गांधी जी को बहुत पीड़ा हुई। उन्होंने कहा कि “मैं सोच भी नहीं सकता कि कोई मुसलमान ऐसी भावना रख सकता है।” मुसलमानों की दोहरी मानसिकता पर कटाक्ष करते हुए उन्होंने कहा कि “एक तरफ से मित्र भाव और वफादारी की बातें और दूसरी तरफ से यह? मैं तो यहां यूनियन के मुसलमानों की हिफाजत के लिए जान की बाजी लगाकर बैठा हूं। मैं तो यही करूंगा, क्योंकि मुझे बुराई का बदला भलाई से देना है। गजनवी ने जो किया था, बहुत बुरा किया था। इस्लाम में जो बुराइयां हैं उन्हें मुसलमानों को समझना और कबूल करना चाहिए। गुनाह कबूल करने से वह हल्का होता है। यूनियन में बैठकर मुसलमान अगर अपने लड़कों को सिखाएं कि गजनवी को आना है, तो उसका मतलब यह हुआ कि वे चाहते हैं कि हिन्दुस्थान को और हिन्दुओं को खा जाओ। इसे कोई बरदाश्त करने वाला नहीं।” (दिल्ली डायरी, नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अमदाबाद, प्रथम संस्करण 1948, द्वितीय 1960 पृ.282-83) जिस प्रकार सरदार पटेल ने सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण में पहल की उसी प्रकार अयोध्या, मथुरा और काशी के बारे में तभी आवाज उठनी शुरू हो गयी थी। स्वाधीनता की तिथि के ठीक पहले अयोध्या के नागरिकों की ओर से एक प्रतिवेदन तब के संयुक्त प्रांत की सरकार को प्राप्त हुआ था, जिसमें श्री रामजन्मभूमि मंदिर के पुनर्निर्माण की मांग की गयी थी। इतिहास के इन जख्मों को भरने के बजाए उन्हें अब तक कुरेदा जा रहा है, उसे अल्पसंख्यकों पर बहुसंख्यकवाद का हमला कहा जा रहा है।”अल्पसंख्यकता” का आवरणमुस्लिम प्रश्न के बारे में जवाहर लाल नेहरू की सोच गांधी जी और पटेल से भिन्न थी। कांग्रेस अध्यक्ष के नाते 1937 के चुनाव परिणामों और उसके बाद मुस्लिम जनसम्पर्क अभियान के निराशाजनक अनुभवों से भी उन्होंने कुछ नहीं सीखा और वे इसी भ्रम में जीते रहे कि हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य ब्रिटिश भेद नीति का परिणाम है और अंग्रेजों के जाते ही वे मुसलमानों को भारतीय राष्ट्रवाद का अभिन्न अंग बना देंगे। उनकी कश्मीर नीति इसी भ्रामक आत्म विश्वास की उपज थी। वे जानते थे कि एकात्म राष्ट्रजीवन के लिए आवश्यक है कि सभी उपासना पंथों के अनुयायी उस देश के इतिहास और संस्कृति पर समान रूप से श्रद्धा व गर्व अनुभव करें। 24 जनवरी 1948 को अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में अपने दीक्षांत भाषण में उन्होंने वहां के छात्रों को राष्ट्रीयता के इस मूलतत्व का स्मरण दिलाने का प्रयास किया। नेहरू जी ने कहा कि “प्राचीन काल में भारत की सांस्कृतिक ऊंचाइयों का स्मरण करके मेरा मन श्रद्धा और गर्व से भर जाता है, क्या आप भी ऐसा ही गर्व अनुभव करते हो” या अजनबी की तरह उसकी बगल से निकल जाते हो?” नेहरू जी ने जीवन में शायद पहली बार सार्वजनिक तौर पर स्वीकारा कि मैं हिन्दू हूं और आप मुसलमान हो। परंतु उनका यह आत्मबोध शमशान-वैराग्य जैसा क्षणिक सिद्ध हुआ। समरस राष्ट्र जीवन को खड़ा करने का जो रास्ता उन्होंने चुना वह बिल्कुल उलटा था। उन्होंने मुस्लिम पृथकतावाद को “अल्पसंख्यकता” का आवरण पहना दिया, और उनकी तथाकथित अल्पसंख्यक संस्कृति की रक्षा के नाम पर संविधान में उन्हें ऐसे विशेषाधिकार प्रदान कर दिये जिससे उनके पृथकतावाद की जड़ें और गहरी व मजबूत होती गयीं। अखंड भारत की उपासक राष्ट्रीय धारा को उन्होंने साम्प्रदायिकता घोषित कर दिया। उन्होंने “बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता” को अपना शत्रु मान लिया। उनके सेकुलरिज्म का अर्थ राष्ट्रवादी शक्तियों का विरोध और मजहबी पृथकतावाद का तुष्टीकरण बन गया। पहले वे मुस्लिम पृथकतावाद के लिए ब्रिटिश भेद नीति को जिम्मेदार ठहराते थे, अब उन्होंने उसे आक्रामक बहुसंख्यकवाद की प्रतिक्रिया कहना शुरू कर दिया। खंडित भारत के मुस्लिम नेतृत्व ने उनकी इस विकृत इतिहास दृष्टि और मतिभ्रम का पूरा लाभ उठाया। (जारी) 24-6-201010
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