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2007 के द्वारे 1857 की दस्तक-6पूरबिया सिपाही न होते तो क्या होता?देवेन्द्र स्वरूप1857की क्रांति पर पहले से ही विपुल साहित्य का टीला खड़ा था, 150वीं वर्षगांठ के बहाने अब लिक्खाड़ों की विशाल फौज अपनी-अपनी कलम लेकर मैदान में कूद पड़ी है। प्रो. इरफान हबीब के नेतृत्व में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की एक टीम 1857 को माक्र्सवादी शब्दावली के आवरण में मुख्यतया मुस्लिम योजना और शौर्य का परिणाम बता रही है। वस्तुत: यह टीम 1998 से ही 150वीं वर्षगांठ की भूमिका बनाने में जुट गयी थी। अप्रैल, 1998 में ही “सोशल साइंटिस्ट” नामक पत्रिका का पूरा अंक 1857 को ही समर्पित किया गया था और उस अंक में शिरीन मूसबी, इरफान हबीब, फारुखी अंजुम वबान, इकबान हुसैन, सैयद जहीर हुसैन जाफरी और इक्तिदार आलम खान ने 1857 को अपने रंग में चित्रित करने की पूर्व पीठिका तैयार कर दी थी। कभी-कभी लगता है कि अलीगढ़ टीम ने बड़ी सावधानी से 150वीं वर्षगांठ के अंडे को से कर भारत सरकार और कम्युनिस्टों के घोंसलों में रख दिया। प्रो. सुमित सरकार, प्रो. तनिका सरकार आदि जाने-माने बंगाली इतिहासकार कम्युनिस्ट पार्टियों से मोह भंग हो जाने के कारण पीछे हट गये हैं। अत: अब इरफान हबीब ही उनके पार्टी इतिहासकार के रूप में उभर आये हैं। प्रत्येक वामपंथी सेमिनार, लोकार्पण कार्यक्रम और पत्रिका पर इरफान हबीब ही छाये हुए हैं। 1857 के वे सबसे बड़े व्याख्याता बन गये हैं। माकपा के मुखपत्र “पीपुल्स डेमोक्रेसी” में प्रति सप्ताह प्रकाशित होने वाली सामग्री का संयोजन भी संभवत: वही कर रहे हैं। 7-13 मई के पीपुल्स डेमोक्रेसी विशेषांक में पार्टी महासचिव प्रकाश कारत ने अपने लेख में इरफान हबीब की स्तुति की है और इरफान हबीब के अपने लेख में किसी भावी अंक में इक्तिदार आलम खान के लेख के प्रकाशन की सूचना दी है। इससे इस संदेह की पुष्टि होती है। इरफान साहब मुस्लिम योगदान को तो पूरी तरह स्वीकार करते हैं, किन्तु उस पर वहाबी विचारधारा के प्रभाव को नकारते हैं। इसीलिए उनकी टीम बेचारे विलियम डेलरिम्पल के पीछे हाथ धोकर पड़ी है, क्योंकि उन्होंने समकालीन दस्तावेजों “मुजाहिद्दीन”, “गाजी”, “जिहाद”, “दारुल-इस्लाम” आदि शब्दों के बाहुल्य के आधार पर वहाबी विचारधारा के प्रभाव और सक्रियता को सप्रमाण प्रस्तुत किया है। उधर प्रो. जाफरी और प्रो. सीमा अल्बी को शिकायत है कि नाना साहब, रानी झांसी, कंुवर सिंह, बहादुरशाह जफर, बेगम हजरत महल का तो गुणगान किया जा रहा है पर सैयद अहमद बरेलवी के अनुयायी वहाबी मौलवियों के भारी योगदान की उपेक्षा की जा रही है। ये फतवों की भाषा और तथ्यों को तोड़-मरोड़कर सिद्ध करने में लगे हैं कि इन मौलवियों का जिहाद पूरी तरह सेकुलर था, जंगे-आजादी था। इधर, राष्ट्रवादी लेखकों की कलम बहादुरशाह जफर पर ही जा ठहरती है, 1857 की क्रांति की इस सबसे कमजोर कड़ी को वे क्रांति के सबसे बड़े “हीरो” के रूप में उभारना चाहते हैं। उसकी शेरों, गजलों और शायरी को ही क्रांति के मुख्य संगीत के रूप में सुनना-सुनाना पसंद करते हैं। थोड़ा-सा आगे बढ़ते हैं तो नाना पेशवा, रानी झांसी, बेगम हजरत महल के योगदान का वर्णन कर 1857 में हिन्दू-मुस्लिम एकता का आदर्श चित्र खोजने लगते हैं।तब तक क्यों थे चुप?1857 के इन रंग-बिरंगे चित्रों की भीड़ में बंगाल फौज का वह पुरबिया सिपाही कहीं दिखाई नहीं देता। वह पूरी तरह से भुला दिया गया है। शायद 1857 को सिपाही विद्रोह की छवि से बाहर निकाल कर एक जनक्रांति या राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम बताने के मोह में बेचारे पूरबिया सिपाही को पीछे धकेलना या गुमनामी के अंधेरे में फेंकना लिक्खाड़ों की मजबूरी बन गयी है। पर, वे भूल जाते हैं कि यदि यह पुरबिया सिपाही सबसे पहले क्रांति का शंखनाद न करता तो बहादुर शाह जफर से लेकर नाना पेशवा, रानी झांसी व बेगम हजरत महल तक सब राजा-नवाब, सब मौलवियों के जिहादी फतवे और इसे किसान आंदोलन का रंग देने वाली जनता मिलकर भी 1857 का सृजन न कर पाते। उनके अंत:करणों में तो असंतोष और बगावत की चिंगारी न जाने कब से सुलग रही थी, वे तो अंग्रेजी राज को उखाड़ने के लिए न जाने कब से कसमसा रहे थे, पर यह पुरबिया सिपाही ही था जो उनके और अंग्रेज सत्ता के बीच दीवार बनकर खड़ा था। इसके डर से ही वे बगावत का झंडा बुलंद करने में घबरा रहे थे। इन पुरबिया सिपाहियों के बल पर ही अंग्रेज इतरा रहे थे, अपने को अजेय समझ रहे थे। जिस दिन यह सुरक्षा कवच हटा और केवल हटा ही नहीं तो स्वयं बगावत का झंडा लेकर ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध खड़ा हो गया, उसी दिन सबके हौसले बुलन्द हो गये। सब अपने-अपने खोये हुए राज, अधिकार और छीने गए वैभव की वापसी के सपने देखने लगे, क्योंकि अब अंग्रेजों का रक्षक ही उनका भक्षक बन चुका था।पी.जे.ओ. टेलर नामक इतिहासकार ने 1997 में एक पुस्तक प्रकाशित की थी, जिसमें जनवरी, 1857 से दिसम्बर, 1857 के बीच क्रांति के दैनिक घटनाचक्र को प्रस्तुत किया है। इससे पहले 1957 में भारत सरकार की ओर से नियुक्त डा. सुरेन्द्र नाथ सेन ने अपनी प्रसिद्ध रचना “1857” के जुलाई, 1995 में प्रकाशित तृतीय पुनर्मुद्रण के अंत में अनुक्रमणिका (पृ. 464-65) पर पेशावर से बंगाल तक और अम्बाला से नर्मदा तक फैली हुई देसी पलटनों की भूमिका और स्थिति का एक विहंगम चित्र प्रस्तुत कर दिया है। इन दोनों शोध ग्रन्थों के आधार पर यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि प्रत्येक स्थान पर क्रांति का बिगुल पहले देसी पलटन ने बजाया, फिर राजा-नवाब, जमींदार-तालुकेदार, मुल्ला-मौलवी और जनता बगावत का झंडा फहराने का साहस बटोर पाए। इन दोनों विहंगम चित्रों को देखकर यह पीड़ा भी मन में गहरी उतर जाती है कि यदि मंगल पांडे और मेरठ के घुड़सवारों के उतावलेपन के कारण क्रांति का विस्फोट समय से पहले न होता और सब पलटनें पूरे देश में एक दिन एक साथ विद्रोह का शंखनाद करतीं तो अंग्रेजों के टेलीग्राफ, स्टीमर और रेल आदि सब धरे के धरे रह जाते, भारत से उनका नामोनिशान मिट जाता। ब्रिटिश साम्राज्य का सूर्य भारत में अस्त हो जाता। एक दिन, एक समय क्रांति का बिगुल बजाने के सामथ्र्य से युक्त संगठन तंत्र केवल बंगाल इन्फेन्ट्री और बंगाल कैवेलरी के पास ही था, अन्य किसी के पास नहीं। 10 मई की विरुदावली गाने से पहले यह भी देखना चाहिए कि इस पूर्वाभास से चौकन्ने होकर अंग्रेजों ने पेशावर, मियांमीर, होती मरदान, फिरोजपुर आदि छाबनियों में कैसे देशी पलटनों को शस्त्रविहीन करके बैरकों में बंद कर दिया। जिन्होंने रात के अंधेरे से भागने की कोशिश की उनकी किस प्रकार नृशंसतापूर्वक हत्या कर दी। नि:शस्त्रीकरण की यह लम्बी सूची सुरेन्द्र नाथ सेन की पुस्तक के अनुक्रमणिका में एक नजर में सामने आ जाती है।अंग्रेजों की देसी सेना1857 की क्रांति में पूरबिया सिपाही की निर्णायक भूमिका को समझने के लिए बंगाल नेटिव इन्फेन्ट्री के संख्या बल, रचना और चरित्र का सही ज्ञान आवश्यक है। बंगाल इन्फेन्ट्री को प्लासी के युद्ध से एक वर्ष पूर्व 1756 में क्लाईव ने 400-500 देसी सिपाहियों की भरती करके जन्म दिया था। उनकी वर्दी में लाल कोट के कारण उसे लाल पलटन भी कहा जाता था। 1757 से 1825 के बीच अंग्रेजों ने 74 देसी रेजीमेंटें खड़ी कीं। 1857 की क्रांति से पूर्व बंगाल नेटिव इन्फेन्ट्री में 1,39,807 देसी सिपाही व अफसर थे, जिनका नियंत्रण केवल 26,089 अंग्रेज अधिकारियों के हाथों में था। प्रत्येक रेजिमेंट को एक निश्चित क्रमांक से पहचाना जाता था। जैसे कि मंगल पांडे की रेजिमेंट का क्रमांक 34 था। रेजिमेंट क्रमांक 1 कानपुर में तैनात थी, क्रमांक 2 बैरकपुर में, क्रमांक 6 इलाहाबाद में, क्रमांक 7 दानापुर में, 13 लखनऊ‚ में, क्रमांक 20 मेरठ में, 22 फैजाबाद में, 27 पेशावर में, 29 बरेली में, 30 नसीराबाद में, 31 सागर में, 54 दिल्ली में, 57 फीरोजपुर में, 72 नीमच में, 49 मियां मीर में और 51 पेशावर में। इस प्रकार ये रेजिमेंटें नर्मदा के उत्तर में पूरे भारत में बिखरी हुई थीं। इन्फेन्ट्री के अलावा घुड़सवार सेना में 19,000 देसी सैनिक थे, जिनमें मुसलमानों की संख्या भी पर्याप्त थी। 5,000 देसी सैनिक घुड़सवार तोपखाना में थे। जनवरी, 1857 में बगावत की चिंगारी सुलगने के क्षण से सितम्बर, 1858 तक लगभग 1 लाख 30 हजार सिपाही बगावत का झंडा फहरा चुके थे, क्योंकि सितंबर, 1858 में ब्रिटिश पार्लियामेंट में भारत सरकार ने स्वीकार किया कि हमारे पास केवल सात रेजिमेंट के 7,796 देसी सिपाही वफादार रह गये हैं। एक लाख से अधिक सैनिकों द्वारा अपनी सरकार के विरुद्ध बगावत का विश्व इतिहास में यह पहला उदाहरण है। जिस सेना के बल पर अंग्रेजों ने बर्मा से लेकर पेशावर तक और कश्मीर से लेकर दक्षिण तक पूरे भारत को जीता था, जिसकी वफादारी पर उन्हें नाज था, उस सेना में भीतर ही भीतर विद्रोह की चिंगारी एक सिरे से दूसरे सिरे तक फैल गयी और यदि 29 मार्च को मंगल पांडे की घटना न होती तो अंग्रेजों को उसकी भनक तक न लग पाती, यह उस सेना के संगठन व चरित्र का परिचायक है।बंगाली सेना का ब्राह्मणवादी स्वरूपक्या विशेषता थी उसकी? कहने को तो उसका नाम था बंगाल नेटिव इन्फेन्ट्री, किन्तु उसके लगभग 1 लाख 12 हजार सिपाही अवध, पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के भेाजपुरी इलाके के रहने वाले थे। उनमें भी लगभग 4000 सिपाही अकेले अवध अर्थात आज के लखनऊ‚ और फैजाबाद डिवीजन के निवासी थे। इसमें भी दक्षिणी अवध क्षेत्र, जिसे बैसवारा कहते हैं और जिसमें आजकल के सुल्तानपुर, प्रतापगढ़ व रायबरेली जिले आते हैं, का सर्वाधिक योगदान था। स्लीमैन ने 1825 में लिखा था कि बैसवारा क्षेत्र के 30,000 सिपाही हमारी फौज में हैं। 1857 में विलियम रसेल होवार्ड ने अपनी डायरी में लिखा कि बैसवारा जिले ने हमारी बंगाल सेना को लगभग 40,000 सर्वोत्तम सैनिक प्रदान किये हैं। कर्नल कीथ ने 1859 में सेना पुर्नगठन आयोग को बताया कि पुराने अवध राज्य से हमारी सेना में तीन-चौथाई रंगरूटों की भरती होती है। इसीलिए इन सैनिकों को “पुरबिया सिपाही” कहा जाने लगा। इन पुरबिया सैनिकों में सबसे अधिक अनुपात ब्राह्मणों का था। एक अनुमान के अनुसार बंगाल नेटिव इन्फेन्ट्री में 40 प्रतिशत ब्राह्मण, 20 प्रतिशत क्षत्रिय, 20 प्रतिशत मुसलमान व 20 प्रतिशत अन्य मत-पंथों के होते थे। पूरी सेना के निश्चित आंकड़े तो नहीं उपलब्ध हैं, पर 34 नेटिव इन्फेन्ट्री को भंग करते समय उसके कुल 1089 सिपाहियों की जो सूची बनायी गयी उसमें 335 ब्राह्मण, 237 क्षत्रिय, 231 अन्य हिन्दू, 200 मुसलमान, 74 सिख और 12 ईसाई थे। यूरोपीय सैनिक शिक्षा प्राप्त पुरबिया सैनिकों को उस समय विश्व का सर्वोत्तम सैनिक माना जाता था। उनकी युद्ध क्षमता के कारण ही बम्बई नेटिव इन्फेन्ट्री में भी एक तिहाई संख्या पूरबिया ब्राह्मण और क्षत्रिय सैनिकों की पहुंच गयी थी।बंगाल नेटिव इन्फेन्ट्री का यह ब्राह्मण प्रभाव ही 1857 की क्रांति का मुख्य कारण बना। उस युग में जाति ही धार्मिक आस्थाओं का अधिष्ठान थी। हम पहले भी बता चुके हैं कि मौलवियों के फतवों में भी हिन्दुओं का सहयोग पाने के लिए उन्हें गौ, तुलसी और शालिग्राम जैसे प्रतीकों की शपथ दिलायी गयी है। रोटी-बेटी के सम्बंधों में छुआछूत की भावना उस समय जाति की शुचिता से जुड़ गयी थी। जाति-शुचिता की रक्षा करना ही उन दिनों की मुख्य चिन्ता थी। सोलहवीं शताब्दी से ही ईसाई मिशनरियों की मुख्य शिकायत थी कि समाज पर ब्राह्मणों का प्रभाव और जाति का बंधन ही मतान्तरण के उनके प्रयासों में सबसे बड़ी बाधा है। जाति-आचार का तनिक भी उल्लंघन होने पर “जाति” से बहिष्कार हो जाता था। जाति से बहिष्कृत होने का अर्थ था पैतृक सम्पत्ति, पारम्परिक व्यवसाय और सामाजिक सम्बंधों का विच्छेद। इसीलिए भारत में अंग्रेजों का राज्य सुदृढ़ हो जाने पर 1835 से ईसाई मिशनरियों के प्रत्येक प्रतिवेदन में गवर्नर जनरल से मांग की जाती थी कि मतान्तरण के बाद जाति-बहिष्कार को कानूनन अपराध ठहराया जाए। इन्हीं प्रतिवेदनों के दबाव में आकर लार्ड डलहौजी ने 1851 में धार्मिक अयोग्यता अधिनियम पारित कर दिया था, जिसकी भारतीय समाज में तीव्र प्रतिक्रिया हुई थी। बंगाल सेना के मुख्य सेनापति सर चाल्र्स नेपियर ने 1850 में ही लिखा था कि “यदि उच्च वर्णों के हिन्दू सिपाही को फौजी अनुशासन और अपनी जाति के बीच चुनाव करना पड़ा तो वह जाति को चुनेगा।”जात पर आंच बर्दाश्त नहींसेना में धीरे-धीरे यह संदेह फैलता जा रहा था कि सरकार उनकी जाति को नष्ट कर उन्हें ईसाई बनाने का कुचक्र रच रही है। इस अनपेक्षित भयंकर विस्फोट की कारण-मीमांसा को लेकर ब्रिटिश प्रशासकों एवं मिशनरियों के बीच जबर्दस्त बहस छिड़ गयी। ब्रिटिश प्रशासकों के बड़े वर्ग का मानना था कि मिशनरियों द्वारा मतान्तरण की जल्दबाजी के कारण ही यह विस्फोट हुआ, जबकि मिशनरियों का कहना था कि मतान्तरण की ईश्वरीय इच्छा के पालन में सुस्ती के कारण ही “गॉड” ने यह कहर ढाया। पर इस बहस के दौरान सैनिक-प्रशासनिक अधिकारी और मिशनरी- दोनों ही एक बात पर सहमत थे कि 1857 के विस्फोट में चिन्गारी का कार्य जाति ने किया। पंजाब के चीफ कमिश्नर सर जान लारेंस, जो 1864 से 1869 तक भारत के वायसराय भी रहे, ने चाल्र्स ट्रेवेलियान को 16 दिसम्बर 1857 को एक पत्र में लिखा कि “सिपाहियों को ईसाई मिशनरियों के धर्मोपदेशों से कोई डर नहीं था, वे उनकी धर्म-चर्चा को सहन कर सकते थे, किन्तु उनके मन में यह संदेह पक्का हो गया था कि सरकार छल से उनकी “जाति” नष्ट करने का षडंत्र रच रही है।” क्रांति शुरू होते ही एक मिशनरी पत्र “फ्रेंड्स आफ इंडिया” ने 28 मई, 1857 को लिखा कि, “बंबई टाईम्स (टाईम्स आफ इंडिया का पूर्व नाम) को वर्तमान विद्रोह में ईसाई धर्म और “जाति” के बीच एक बड़ी लड़ाई की शुरुआत दिखायी दे रही है। वस्तुत:, यह लड़ाई भारत में अंग्रेजों के आगमन के समय से ही टलती आ रही थी। जिन्होंने सेना में उच्च वर्णी ब्राह्मणों को भरती किया, उन्होंने ही सेना को इस लड़ाई का अखाड़ा बना दिया। इस संघर्ष को ईसाई धर्म बनाम सेना का रूप देने के लिए मिशनरी नहीं, वे स्वयं जिम्मेदार हैं। दरअसल, यह लड़ाई ईसाईयत बनाम भारतवासी न होकर ईसाईयत बनाम ब्राह्मण धर्म है।”(31 मई, 2007)33
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