|
अंक-सन्दर्भ 22 अप्रैल, 2007पञ्चांगसंवत् 2064 वि. – वार ई. सन् 2007अधिक ज्येष्ठ कृष्ण 10 रवि 10 जून, 07″” 11 सोम 11 “””” 12 मंगल 12 “””” 13 बुध 13 “””” 14 गुरु 14 “”अधिक ज्येष्ठ अमावस्या शुक्र 15 “”अधिक ज्येष्ठ शुक्ल 1 शनि 16 “”संकट में किसानतीन साल पूरे हुए, फोड़ो अपना माथकांग्रेस का हाथ है, बस धनिकों के साथ।बस धनिकों के साथ, बढ़ रही है महंगाईउग्रवाद चहुंदिश फैला, है राम दुहाई।कह “प्रशांत” है संकट में किसान की रोटीनिर्धन को चिन्ता है कैसे बचे लंगोटी।।-प्रशांतशहीदों को नमन!!1857 की 150वीं वर्षगांठ पर पाञ्चजन्य का अंक अच्छा बन पड़ा है। श्री नरेन्द्र कोहली ने सही लिखा है कि “आज भी 1857 जैसी विद्रोह की स्थिति है जब न नेतृत्व है, न संगठन है। उस समय कलियुग था फिर भी लोगों ने विदेशी राज्य का विरोध किया था। आज भी कलियुग है तो आज क्यों नहीं विदेशी आक्रमण का विरोध हो सकता?” श्री सूर्यकान्त बाली के कथन कि “1857 के उभार में वैचारिक पक्ष का अभाव था।”, इन दोनों ही विचारों से मैं सहमत हूं। आज सेकुलरवाद का ऐसा कानूनी, राजनीतिक, सामाजिक, मजहबी और आर्थिक चक्रव्यूह फैलाया गया है कि उसको भेदने का मार्ग किसी को नहीं सूझ रहा है। ऐसे में सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता से प्रेरणा मिल सकती है।-श.द. लघाटेसंकट मोचन आश्रम, रामकृष्ण पुरम-6 (नई दिल्ली)इस अंक को अधिक से अधिक लोग पढ़ सकें, इसकी व्यवस्था होनी चाहिए। देशवासियों को पता तो चले कि स्वतंत्रता की ज्वाला बुझाने के लिए अंग्रेजों ने क्रांतिकारियों पर किस तरह के अमानवीय अत्याचार किए थे। आज उन अत्याचारों को पढ़-सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। देश के लिए मर-मिटने वाले क्रांतिकारियों को कोटिश: प्रणाम।-देशबन्धुजनकपुरी (नई दिल्ली)प्रसिद्ध कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता “खूब लड़ी मर्दानी” बेहद पसन्द आई। आज झांसी की रानी लक्ष्मीबाई जैसी कुछ वीरांगनाएं होतीं तो देश की यह दुर्दशा नहीं होती और महिलाओं में असुरक्षा की भावना भी नहीं होती। आज पुन: क्रांति की वैसी ही ज्वाला धधकाने की आवश्यकता है।-कुमारी प्रियंकाराजापुरी, उत्तमनगर (दिल्ली)वरिष्ठ साहित्यकार श्री नरेन्द्र कोहली का विचारोत्तेजक आलेख “आज फिर धधके एक ज्वाला” राष्ट्रवादियों के लिए एक ऐसी चुनौती है जिसे स्वीकार करने और उस पर अमल करने से ही स्वार्थ में लिप्त धूर्त सत्ताधारियों से निपटा जा सकता है। आज एक ओर तो भ्रष्टाचार सभी सीमाओं को पार कर रहा है, दूसरी ओर अराजक तत्व खुलेआम देश के विभिन्न अंचलों में तबाही मचाए हुए हैं। निर्धनता और आसमान छूती महंगाई की मार से साधारण जनता बुरी तरह त्रस्त है। किसान बड़े पैमाने पर आत्महत्याएं कर रहे हैं। देश चारों ओर से असुरक्षित होता जा रहा है, पर सेकुलर नेता अपनी कुर्सी और दौलत के लिए मौन हैं। ऐसे में राष्ट्रीय हित चाहने वालों को आगे आना होगा, क्योंकि कहा भी गया है कि ईश्वर भी उन्हीं की मदद करता है जो अपनी मदद स्वयं करते हैं।-रमेश चन्द्र गुप्तानेहरू नगर, गाजियाबाद (उ.प्र.)वरिष्ठ इस्लामी चिन्तक मौलाना वहीदुद्दीन खान का साक्षात्कार पढ़ा। इसके कुछ अंश बहुत अच्छे हैं। मैं खान साहब की सोच से बहुत प्रभावित हूं। वे हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए जो कार्य कर रहे हैं, वे प्रशंसनीय हैं।-संजय मिश्र32 सी, संगम नगर, इन्दौर (म.प्र.)स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर के सुपुत्र श्री विश्वास सावरकर के लेख “तब स्वराज्य का अर्थ था स्वधर्म रक्षा” में “सत्तावन चे स्वातंत्र्य समर” ग्रन्थ के सृजन तथा उसके बाद की जानकारी पढ़कर रोमांच हुआ। वीर सावरकर ने किन विपरीत परिस्थितियों में उक्त ग्रन्थ का सृजन किया था, इसका आभास इस लेख से मिलता है। पाण्डुलिपि को सुरक्षित रखने के लिए डा. कुटिन्हो तथा पुन: सावरकर तक पहुंचाने के लिए डा. डी. वान गोहोकर के भी हम कृतज्ञ हैं। डा. सतीश चन्द्र मित्तल, श्री नरेन्द्र कोहली, मो. वहीदुद्दीन खान, डा. स्वराज्य प्रकाश गुप्त, श्री देवेन्द्र स्वरूप, श्री गुरुबचन सिंह नामधारी, श्री राकेश सिन्हा के लेख गम्भीर चिन्तन एवं मनन को प्रेरित करते हैं। श्री सूर्यकान्त बाली के प्रश्नों में ही उनके उत्तर छिपे हैं। 1857 की क्रान्ति अंग्रेज सरकार के विरुद्ध उसकी राज्य हड़पो नीति, लूटपाट, बेगमों की बेइज्जती… आदि के कारण हुई थी। इतना अवश्य कहा जा सकता है कि क्रान्तिकारियों में आपस में तालमेल भी था परन्तु संभवत: केन्द्रीय कमान नहीं थी। मुकाबला भी संसाधन-विहीन, किन्तु जोशीली सेना का प्रशिक्षित और संसाधन युक्त सेना से था। यह सच है कि 1857 की क्रांति अपना घोषित उद्देश्य प्राप्त नहीं कर सकी, लेकिन यह भी सच है कि इस क्रांति ने कम्पनी बहादुर की सरकार को हिला दिया और भारतीयों में जोश का संचार किया।-डा. नारायण भास्कर50, अरुणा नगर, एटा (उ.प्र.)1857 के अमर शहीदों की युद्ध गाथाएं पढ़कर तथा उनके रेखाचित्रों को देखकर ऐसा लगा मानो वह समर आज भी आंखों के सामने है। संप्रग सरकार की कोशिश तो यह रहती है कि लोगों में राष्ट्रीयता की भावना न पनपे। अंग्रेज राष्ट्रभक्तों को अपना दुश्मन मानते थे और संप्रग सरकार भी राष्ट्रभक्तों को पचा नहीं पा रही है। कम्युनिस्टों को 1857 की 150वीं वर्षगांठ की बात भी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उन्होंने तो सदा राष्ट्र विरोधी सोच दर्शायी है।-प्रमोद वालसांगकर1-10-19, रोड नं. 8ए, द्वारकापुरम, दिलसुखनगर, हैदराबाद (आन्ध्र प्रदेश)इस अंक में न केवल 1857 की जनक्रांति की अनुगूंज है, अपितु हमारे 90 वर्ष के स्वाधीनता संग्राम के कठिन समय का इतिहास भी है। इसमें राव तुलाराम, रामगोपाल यादव, बिजली पासी, झलकारी बाई आदि क्रांतिकारियों की चर्चा का अभाव खटका। ऐसे कई क्रांतिकारियों का परिचय देने से अंक और पठनीय होता।-चन्द्रकान्त यादवचांदीतारा, साहूपुरी, चन्दौली (उ.प्र.)आज जब सारा देश 1857 की 150वीं वर्षगांठ मनाकर देश के लिए प्राण न्योछावर करने वाले शहीदों को नमन कर रहा है, वहीं आतंकवादियों से सहानुभूति रखने वाली सेकुलर बिरादरी गुजरात में पुलिस मुठभेड़ में मारे गए आतंकवादी सोहराबुद्दीन की मृत्यु को फर्जी मुठभेड़ बताकर देश की सुरक्षा में जुटे जवानों को हतोत्साहित कर रही है। एक आतंकवादी से इतनी हमदर्दी का क्या अर्थ है? 56 से अधिक हत्या, आतंक व अनेक गम्भीर अपराधों में लिप्त सोहराबुद्दीन की मृत्यु को फर्जी मुठभेड़ बताए जाने से पुलिस मुठभेड़ में मारे गए अनेक आतंकवादियों के परिवारों का हौंसला बढ़ गया है और वे भी सभी मुठभेड़ों को फर्जी बताने लगे हैं। देश की स्थिति चीख-चीखकर कह रही है कि संप्रग के शासन में देश के हालात 1857 से भी बदतर हो गए हैं। प्रथम स्वतंत्रता आन्दोलन की 150वीं वर्षगांठ पर इस आन्दोलन के सच्चे भाव को पुन: दोहराने की तीव्र आवश्यकता है, अन्यथा पुन: गुलाम बनने की स्थिति पैदा हो सकती है।-कमल कुमार जैन9/2054 गली सं. 6, कैलाश नगर (दिल्ली)बेचारी रेवती!दिशादर्शन के अन्तर्गत श्री तरुण विजय का लेख “रेवती की व्यथा सुनने की फुर्सत किसे है!” पढ़ा। इसमें कोई दो राय नहीं है कि हिन्दू की उपेक्षा हिन्दू ही कर रहा है। जब तक हम आपस में तालमेल सही नहीं करेंगे तब तक हम कमजोर होते रहेंगे। रही रेवती की बात, तो आज हमारे राजनेताओं को इस प्रकरण से कोई लेना-देना नहीं है। यहां तो हर कदम राजनीतिक उद्देश्य के लिए उठाया जाता है। रेवती के सन्दर्भ में मलेशिया के न्यायालय ने जो निर्णय दिया है, वह अनुचित है। इसका व्यापक स्तर पर विरोध किया जाना चाहिए।-दिनेश गुप्तपिलखुवा, गाजियाबाद (उ.प्र.)कमान हिन्दू राजा के हाथ होती तो…?1857 के प्रथम स्वातंत्र्य समर में हिन्दू-मुस्लिम सहित समाज के सभी वर्गों ने एकजुट होकर भाग लिया था। किन्तु प्रश्न उठता है कि अगर इस संग्राम की कमान बहादुरशाह के स्थान पर किसी हिन्दू राजा को सौंपी जाती तो क्या मुस्लिम बादशाह हिन्दुओं का साथ देते? संभावत: नहीं। कहते हैं कि अंग्रेज क्रूर थे तथा उन्होंने सब पर भयानक अत्याचार किये। परन्तु क्या मुसलमान बादशाहों ने हिन्दुओं पर कम अत्याचार किये थे? मुगलों ने वीर वैरागी के सामने ही उनके पुत्र की हत्या कर, कहते हैं, उसके कलेजे को वैरागी जी के मुंह में ठूंस दिया था। हिन्दुओं पर इस प्रकार के अनेक अत्याचार हुए थे।वास्तव में, सभी राजा-महाराजा-पेशवा-बादशाह-नवाब अंग्रेजों की किसी न किसी प्रकार पूरे भारत की सत्ता को हस्तगत करने की नीति से त्रस्त थे। इस स्वातंत्र्य समर के सूत्रधार नाना साहब ने मात्र एकता के लिए तथा भारत की स्वाधीनता की उत्कट अभिलाषा के कारण मुगल बादशाह को नेता मान लिया था।-राजेश बरनवालहीरापुर, धनबाद (झारखण्ड)4
टिप्पणियाँ