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अवतार दर्शन

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Sep 9, 2007, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 09 Sep 2007 00:00:00

वायुदेव के अवतारमध्वाचार्यगीता प्रेस (गोरखपुर) द्वारा प्रकाशित कल्याण के “अवतार कथांक” में यद्यपि सतयुग, द्वापर एवं त्रेतायुग के अवतारों का भी जीवन चरित्र प्रस्तुत किया गया है। यहां हम आधुनिक युग के कुछ अवतारों के विवरण क्रमश: प्रस्तुत कर रहे हैं। -सं.श्रीभगवान् नारायण की आज्ञा से स्वयं वायुदेव ने ही भक्ति सिद्धान्त की रक्षा के लिए मद्रास-प्रान्त के मंगलूर जिले के अन्तर्गत उडुपी क्षेत्र से दो-तीन मील दूर वेललि ग्राम में भार्गव गोत्रीय नारायण भट्ट के अंश से तथा माता वेदवती के गर्भ से विक्रम संवत् 1295 की माघ शुक्ल सप्तमी के दिन आचार्य मध्व के रूप से अवतार ग्रहण किया था। कई लोगों ने आश्विन शुक्ल दशमी को इनका जन्मदिन माना है। परन्तु वह इनके वेदान्त साम्राज्य के अभिषेक का दिन है, जन्म का नहीं। जब वेद शास्त्रों की ओर इनकी रुचि हुई, तब मोहवश माता-पिता ने बड़ी अड़चनें डालीं; परन्तु इन्होंने उनकी इच्छा के अनुसार उन्हें कई चमत्कार दिखाकर, जो अब तक एक सरोवर और वृक्ष के रूप में इनकी जन्म-भूमि में विद्यमान हैं और एक छोटे भाई के जन्म की बात कहकर ग्यारह वर्ष की अवस्था में अद्वैत मत के संन्यासी अच्युतपक्षाचार्य जी से संन्यास ग्रहण किया। यहां पर इनका संन्यासी नाम “पूर्णप्रज्ञ” हुआ। संन्यास के पश्चात् इन्होंने वेदान्त का अध्ययन आरम्भ किया। इनकी बुद्धि इतनी तीव्र थी कि अध्ययन करते समय ये कई बार गुरुजी को ही समझाने लगते और उनकी व्याख्या का प्रतिवाद कर देते। सम्पूर्ण दक्षिण देश में इनकी विद्वता की धूम मच गयी।एक दिन इन्होंने अपने गुरु से गंगा स्नान और दिग्विजय करने के लिए आज्ञा मांगी। ऐसे सुयोग्य शिष्य के विरह की सम्भावना से गुरुदेव व्याकुल हो गए। उनकी व्याकुलता देखकर अन्तेश्वर जी ने कहा कि भक्तों के उद्धारार्थ गंगा जी स्वयं सामने वाले सरोवर में परसों आयेंगी। अत: वे यात्रा न कर सकेंगे। सचमुच तीसरे दिन उस तालाब में हरे पानी के स्थान पर सफेद पानी हो गया और उसमें तरंगें दिखने लगीं। अतएव आचार्य की यात्रा नहीं हो सकी। अब भी हर बारहवें वर्ष एक बार वहां गंगा जी का प्रादुर्भाव होता है। वहां एक मन्दिर भी है।कुछ दिन बाद आचार्य ने यात्रा की और स्थान-स्थान पर विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ किया। इनके शास्त्रार्थ का उद्देश्य होता-भगवद्भक्ति का प्रचार, वेदों की प्रामाणिकता की स्थापना, मायावाद का खण्डन और मर्यादा का संरक्षण। एक जगह तो इन्होंने वेद, महाभारत और विष्णु सहस्रनाम के क्रमश: तीन, दस और सौ अर्थ हैं-ऐसी प्रतिज्ञा और व्याख्या करके पंडितों को आश्चर्यचकित कर दिया। गीता भाष्य का निर्माण करने के पश्चात् इन्होंने बदरीनारायण की यात्रा की और वहां महर्षि वेदव्यास को अपना भाष्य दिखाया।एक बार किसी व्यापारी का जहाज द्वारका से मलाबार जा रहा था। तुलुब के पास वह डूब गया। उसमें गोपीचन्दन से ढकी हुई भगवान श्रीकृष्ण की एक सुन्दर मूर्ति थी। मध्वाचार्य को भगवान की आज्ञा से प्राप्त हुई और उन्होंने मूर्ति को जल से निकालकर उडुपि में उसकी स्थापना की। तभी से वह रजतपीठपुर अथवा उडुपि मध्व मतानुयायियों का तीर्थ हो गया। मध्वाचार्य जी ने उडुपि में और भी आठ मन्दिर स्थापित किए, जिनमें श्रीसीताराम, द्विभुज कालियदमन, चतुर्भुज कालियदमन, विट्ठल आदि आठ मूर्तियां हैं। आज भी लोग उनका दर्शन करके अपने जीवन का लाभ लेते हैं। ये अपने अन्तिम सयम में सरिदन्तर नामक स्थान में रहते थे। यहीं पर उन्होंने परम धाम की यात्रा की। देह त्याग के अवसर पर पूर्वाश्रम के सोहन भट्ट को-अब जिनका नाम पद्यनाभतीर्थ हो गया था-श्रीरामजी की मूर्ति और व्यास जी की दी हुई शालग्राम शिला देकर अनेक मठ स्थापित किए गए तथा इनके द्वारा रचित अनेक ग्रन्थों का प्रचार होता रहा।मध्वाचार्य जी के उपदेशश्रीभगवान् का नित्य-निरन्तर स्मरण करते रहना चाहिए, जिससे अन्तकाल में उनकी विस्मृति न हो; क्योंकि सैकड़ों बिच्छुओं के एक साथ डंक मारने से शरीर में जैसी पीड़ा होती है, वैसी ही पीड़ा मृत्युकाल में मनुष्य को होती है। वात, पित्त, कफ से कण्ठ अवरुद्ध हो जाता है और नाना प्रकार के सांसारिक पाशों से जकड़े रहने के कारण मनुष्य को बड़ी घबराहट हो जाती है। ऐसे समय में भगवान की स्मृति को बनाए रखना बड़ा कठिन हो जाता है। (द्वा. स्तो. 1/12)सुख-दु:ख की स्थिति कर्मानुसार होने से उनका अनुभव सभी के लिए अनिवार्य है। इसीलिए सुख का अनुभव करते समय भी भगवान को न भूलो तथा दु:खकाल में भी उनकी न्दिा न करो। वेद-शास्त्रसम्मत कर्म मार्ग पर अटल रहो। कोई भी कर्म करते समय बड़े दीनभाव से भगवान का स्मरण करो। भगवान ही सबसे बड़े, सबके गुरु तथा जगत के माता-पिता हैं। इसीलिए अपने सारे कर्म उन्हीं को अर्पण करने चाहिए। (द्वा.स्तो. 3/1)व्यर्थ के सांसारिक झंझटों के चिन्तन में अपना अमूल्य समय नष्ट न करो। भगवान में ही अपने अन्त:करण को लीन करो। विचार, श्रवण, ध्यान तथा स्तवन से बढ़कर संसार में अन्य कोई पदार्थ नहीं है। (द्वा. स्तो, 3/2)भगवान के चरण कमलों का स्मरण करने की चेष्टामात्र से ही तुम्हारे पापों का पर्वत-सा ढेर नष्ट हो जाएगा। फिर स्मरण से तो मोक्ष होगा ही, यह स्पष्ट है। ऐसे स्मरण का परित्याग क्यों करते हो। (द्वा.स्तो. 3/3)सज्जनो! हमारी निर्मल वाणी सुनो। दोनों हाथ उठाकर शपथपूर्वक हम कहते हैं कि भगवान् की बराबरी करने वाला भी इस चराचर जगत् में कोई नहीं है, फिर उनसे श्रेष्ठ तो कोई हो ही कैसे सकता है। वे ही सबसे श्रेष्ठ हैं।समस्त संसार भगवान के अधीन न होता तो संसार के सभी प्राणियों को सदा-सर्वदा सुख की ही अनुभूति होनी चाहिए थी। (द्वा.स्तो. 3/5)18

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