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गीता प्रेस (गोरखपुर) द्वारा प्रकाशित कल्याण के “अवतार कथांक” में यद्यपि सतयुग, द्वापर एवं त्रेतायुग के अवतारों का भी जीवन चरित्र प्रस्तुत किया गया है। यहां हम आधुनिक युग के कुछ अवतारों के विवरण क्रमश: प्रस्तुत कर रहे हैं। -सं.सूर्यावतार आचार्य निम्बार्क के काल के विषय में बड़ा मतभेद है। इनके भक्त इन्हें द्वापर में हुआ बताते हैं। कोई-कोई मतानुयायी ईसा की पांचवीं शताब्दी को इनका जन्मकाल बताते हैं। वर्तमान अन्वेषकों ने बड़े प्रमाण से इन्हें ग्यारहवीं शताब्दी का सिद्ध किया है।कहा जाता है कि दक्षिण में गोदावरी तट पर स्थित वैदूर्यपत्तन के निकट अरुणाश्रम में श्री अरुणमुनि की पत्नी जयन्ती देवी के गर्भ से आचार्यचरण अवतीर्ण हुए थे। कोई-कोई इनके पिता का नाम जगन्नाथ मानते हैं और सूर्य के स्थान पर इन्हें भगवान के प्रिय आयुध सुदर्शन चक्र का अवतार बताते हैं। इनके उपनयन संस्कार के समय स्वयं देवर्षि नारद ने उपस्थित होकर इन्हें श्रीगोपालमन्त्र की दीक्षा दी एवं श्री भू-लीला सहित श्रीकृष्णोपासना का उपदेश दिया। इनके गुरु नारद और नारद के गुरु सनकादि, इस प्रकार इनका सम्प्रदाय सनकादि सम्प्रदाय के नाम से ही प्रसिद्ध है।इनका मत द्वैताद्वैतवाद के नाम से प्रसिद्ध है। यह कोई नया मत नहीं है बल्कि बहुत प्राचीन काल से चला आ रहा है। श्री निम्बार्क ने अपने भाष्य में नारद और सनत्कुमार का नामोल्लेख किया है। चाहे जो हो, आचार्यचरण ने जिस मत की दीक्षा प्राप्त की थी, अपनी प्रतिभा, आचरण और अनुभव के द्वारा उसे उज्ज्वल बनाया।कहते हैं कि पहले इनका नाम नियमानन्द था। देवचार्य ने इसी नाम से इन्हें नमस्कार किया है। एक दिन जब ये मथुरा के पास यमुना के तटवर्ती ध्रुव क्षेत्र में, जहां इनके सम्प्रदाय की गद्दी है, में निवास कर रहे थे तब एक दण्डी, अथवा किसी-किसी के मत से एक जैन-संत, इनके आश्रम पर आये। दोनों में आध्यात्मिक विचार चलने लगा। उसमें ये दोनों इतने तल्लीन हो गये कि शाम हो गयी और इन्हें पता ही न चला। सूर्यास्त होने पर जब आचार्य ने अपने अतिथि को भोजन कराना चाहा तब उन्होंने सूर्यास्त की बात कहकर आतिथ्य ग्रहण करने में असमर्थता प्रकट कर दी, क्योंकि दण्डी या जैन संत के लिए संध्या या रात्रि में भोजन करना निषिद्ध है। अतिथि सत्कार से अत्यन्त प्रेम रखने वाले आचार्यचरण को बड़ी चिन्ता हुई कि अतिथि को बिना भोजन कराए कैसे जाने दें। जब उनके ह्मदय में बड़ी वेदना हुई तब भक्त- भयहारी भगवान ने एक बड़ी सुन्दर लीला रची। सबने देखा, उन अतिथि संत ने भी देखा और स्वयं आचार्य निम्बार्क ने भी देखा कि उनके आश्रम के पास ही एक नीम के वृक्ष के ऊपर सूर्य प्रकाशित हो रहे हैं। सभी को बड़ा आश्चर्य हुआ। भगवान की इस अपार करुणा का दर्शन करके आचार्य का ह्मदय गद्गद् हो गया। शरीर पुलकित हो गया। उनके सामने तो उनके आराध्यदेव स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ही सूर्य रूप से उपस्थित थे। उन्होंने निहाल होकर अतिथि को भोजन कराया इसके पश्चात वे सूर्य भगवान अस्त हो गये। लोगों ने भगवान की इस कृपा को आचार्य की योग सिद्धि के रूप में ग्रहण किया और तभी से इनका नाम निम्बादित्य या निम्बार्क पड़ गया। इन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की। परंतु अब एकमात्र वेदान्त सूत्रों के भाष्य “वेदान्त-पारिजात सौरभ” के अतिरिक्त इनका और कोई प्रधान ग्रंथ नहीं उपलब्ध है।इनके विरक्त शिष्य केशव भट्ट के अनुयायी विरक्त होते हैं और गृहस्थ शिष्य हरि व्यास के अनुयायी गृहस्थ होते हैं। इनके सम्प्रदाय में श्रीराधा-कृष्ण की पूजा होती है और लोग गोपी चन्दन का तिलक लगाते हैं। इनके सम्प्रदाय में श्रीमद्भागवत को प्रधान ग्रंथ माना जाता है। इनके मत में ब्राह्म से जीव और जगत पृथक भी हैं और एक भी हैं। इसी सिद्धान्त के आधार पर इनका मत स्थापित हुआ है। गौड़ीय मत से मिलता-जुलता होने पर भी इनका सिद्धान्त कई अर्थों में उनसे अत्यन्त भिन्न है।17
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