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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक प. पू. श्रीगुरुजी ने समय-समय पर अनेक विषयों पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। वे विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने पहले थे। इन विचारों से हम अपनी समस्याओं का समाधान ढूंढ सकते हैं और सुपथ पर चलने की प्रेरणा प्राप्त कर सकते हैं। इसी उद्देश्य से उनकी विचार-गंगा का यह अनुपम प्रवाह श्री गुरुजी जन्म शताब्दी के विशेष सन्दर्भ में नियमित स्तम्भ के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। -संइतिहास की चेतावनीमुसलमान अथवा अंग्रेज हमारे शत्रु नहीं थे, बल्कि हम स्वयं ही अपने शत्रु रहे। गीता में कहा है- “आत्मैव ह्रात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:।” (गीता 6-7) अर्थात् हम ही अपने मित्र हैं और हम ही अपने शत्रु। खेद है कि अपने बारे में बाद के अद्र्धभाग की सत्यता सिद्ध हुई है। इसलिए हम कहते हैं कि अपने पतन तथा विनाश के कारण के लिए बाह्र आक्रामकों को कोसने से कोई लाभ नहीं है। आखिरकार दुर्बल देशों पर आक्रमण करना, उन्हें लूटना तथा उनका विनाश करना, यह लुटेरे राष्ट्रों की प्रकृति होती है। यदि एक सांप किसी आदमी को काटता है, तो यह उसका दोष नहीं है, यह तो उसकी प्रकृति में ही है। दोष तो उस आदमी का है, जो सतर्कता नहीं बरतता और संभाव्य खतरे से अपना बचाव नहीं करता। दुर्भाग्य से अपने गत सहस्र वर्षों में अपमान तथा विपत्तियों के बार-बार आने वाले इतिहास के अनुभवों के बावजूद हम एक आधारभूत शिक्षा ग्रहण नहीं कर सके कि हम स्वयं ही अपने पतन के लिए उत्तरदायी हैं और जब तक अपने में से उस प्राणघातक दुर्बलता को नहीं मिटा देते, तब तक हम एक राष्ट्र के रूप में जीवित बने रहने की आशा नहीं कर सकते। (साभार: श्रीगुरुजी समग्र : खंड 11, पृष्ठ 223-24)32
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