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इस स्तम्भ में दम्पत्ति अपने विवाह की वर्षगांठ पर 50 शब्दों में परस्पर बधाई संदेश दे सकते हैं। इसके साथ 200 शब्दों में विवाह से सम्बंधित कोई गुदगुदाने वाला प्रसंग भी लिखकर भेज सकते हैं। प्रकाशनार्थ स्वीकृत प्रसंग पर 200 रुपए का पुरस्कार दिया जाएगा।आपको पाकर धन्य हुई मैंअपने पति श्री आञ्जनेय आचार्य के साथ श्रीमती सरोजनीश्रद्धेय,इसी वर्ष हमारे विवाह के 50 वर्ष पूरे हुए। आगामी 2 फरवरी 2007 को हम दोनों अपने सफल वैवाहिक जीवन के 51वें वर्ष में प्रवेश करेंगे। मुझे जीवन के इस मोड़ पर बरबस बीते दिन याद आते हैं। 2 फरवरी, 1956 को मैं आपकी जीवन संगिनी बनी और आप मेरे जीवन साथी बने। मेरे माता-पिता जो मूलत: आन्ध्र प्रदेश के उच्च कुलीन ब्राह्मण परिवार से संबंधित थे, ने ठीक अपने जैसे परिवार को खोजकर मेरे विवाह की सोची थी। वाराणसी में आन्ध्र प्रदेश के ऐसे ब्राह्मण परिवार बड़ी संख्या में रहते हैं। आपके माता-पिता भी एक ऐसे ही परंपरानिष्ठ, उच्च कुलीन ब्राह्मण परिवार की विरासत सहेज रहे थे, जिसकी ख्याति आन्ध्र प्रदेश और काशी जैसे पवित्र क्षेत्र में आज भी है।विवाह के समय मैं सोचती थी कि अपनी पैतृक परंपराओं को निभाते हुए और आपकी सेवा में मैं अपना जीवन धन्य कर लूंगी। लेकिन मेरी सारी आशाओं पर उस समय तुषारापात हो गया जब मैंने देखा कि मेरे घर में सभी जाति उपजाति के हिन्दुओं को आने-जाने की खुली छूट है, और तो और आप स्वयं काशी के शिवाला, अस्सी और अन्य मुहल्लों की निषाद व दलित बस्तियों में नियमित आते-जाते हैं, उनके साथ खाते-पीते हैं, उठते-बैठते हैं। मैं यह देखकर अवाक् थी। आप रा.स्व.संघ से जुड़े थे। जो सोच रही थी ठीक उसके उलट होते मैंने देखा। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के आयुर्विज्ञान संस्थान में नौकरी के बाद आपका सारा समय संघ कार्य में ही बीतता था। एक दिन मैंने देखा कि एक सांवला सा लड़का अपने सामान के साथ आपके संग घर आया। आपने उस बालक का नाम लेते हुए मुझे बताया कि यह विश्वविद्यालय में पढ़ने आया है, स्वयंसेवक है, जब तक छात्रावास नहीं मिलता, यहीं घर में रहेगा। बाद में मुझे पता चला कि यह लड़का भी हम ब्राह्मणों के लिए “अछूत” मानी जाने वाली जाति का है। सच, उस दिन मैं बहुत दु:खी हुई, लेकिन आपकी इच्छा थी, सो मैंने उसके भोजन आदि की पूरी चिन्ता की। बाकी तो ठीक था किन्तु मेरे लिए यह कल्पना के परे था कि किसी “अछूत” जाति का व्यक्ति मेरी रसोई में आपके साथ रोज भोजन करे। शादी के पहले साल, शायद जुलाई या अगस्त का महीना था, आपने मुझे बताया कि इस महीने तनख्वाह नहीं मिलेगी, पिछले महीनों की बचत से ही घर चलाओ। मैंने कारण पूछने की हिम्मत नहीं की। बाद में पता चला कि उस महीने का पूरा वेतन आप किसी को गुरुदक्षिणा में दे आए थे। कुछ समय बाद मुझे यह भी पता चला कि यह गुरुदक्षिणा आप “भगवा ध्वज” को अर्पित करते हैं और भगवा ध्वज को ही आप अपना गुरू मानते हैं। और घर में आने वालों का मानो तांता लगा रहता। धीरे-धीरे मैं जान गयी कि मेरे पति हिन्दू धर्म और देश के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण व महान कार्य में सक्रिय हैं। धीरे-धीरे मैंने भी आपके जीवनोद्देश्य को अपना मान लिया। आगे चलकर हमारे सभी बेटे और बेटियां रामकृष्ण, वेंकट नरसिंह, राजगोपाल, श्रीनिवास “गोलू”, पद्मा और वीणा संघ कार्य में जुट गयीं। एक समय ऐसा भी आ गया जिन्हें “अछूत” कहकर परंपरा से मैं दूर भागती थी, उनके बच्चों को गले लगाने में मुझे भी आनन्द मिलने लगा।आप आज 80 वर्ष से ऊपर के हो चुके हैं। कुछ वर्ष पूर्व आपको पक्षाघात हो गया और चलना-फिरना लगभग बन्द हो गया। लेकिन जैसे ही आप थोड़ा स्वस्थ हुए, आपने पुन: किसी न किसी का सहारा लेकर शाखा आना-जाना शुरू कर दिया। उन्हीं निषाद व दलित बस्तियों में, जहां के लोग आज भी आपको अपना मानते हैं, आप सभी में “भैया जी” के नाम से प्रसिद्ध हैं, उनके बीच आज भी आप जाते रहते हैं। धन्य हो गई मैं और धन्य हो गया मेरा जीवन कि मुझे आप मिले। अपने लिए आपने कभी कुछ नहीं चाहा, हमेशा दूसरों के लिए ही आप जिए। नौकरी के समय अपने कार्यालय जाने में कभी आपको एक मिनट की देरी नहीं हुई। जिस दिन आपको देरी हुई, उस दिन आपने अवकाश ले लिया लेकिन देर से कार्यालय जाना स्वीकार नहीं किया। आज जब आप चल-फिर पाने में असमर्थ हैं और किसी सहारे की खोज में संघ स्थान जाने के लिए मैं आपकी व्याकुलता देखती हूं तो मेरी आंखों में आंसू आ जाते हैं। भगवान मुझे अगले जन्म में भी आपका ही साथ दें।आपकीसरोजनीदुर्गाकुण्ड, वाराणसी (उ.प्र.)द्वारा डा. एन. राजगोपालप्रवक्ता, राजकीय महाविद्यालय,बासा, गोहर, मंडी (हिमाचल प्रदेश)-17502926
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