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मानव सेवा ही राघव सेवादेश में अनेक श्रेष्ठ संत-महात्मा समाज सेवा के कार्यों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं। दुर्भाग्यवश अधिकांश लोगों को इस बारे में जानकारी नहीं होती। इसी कड़ी में चित्रकूट स्थित तुलसी पीठाधीश्वर जगद्गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी श्री रामभद्राचार्य जी महाराज की अनूठी प्रेरक साधना दर्शनीय है-सं.-राकेश उपाध्यायदीनदयाल शोध संस्थान और नाना जी देशमुख के ग्राम विकास के प्रकल्पों के नाते चित्रकूट की ख्याति चहुं ओर गूंजी है। अब एक अन्य विलक्षण सन्त ने अपनी प्रतिभा और प्रयत्नों की पराकाष्ठा से चित्रकूट की पावन भूमि को मानव सेवा का अभिनव-तीर्थ बना दिया है। “सन्त-महात्मा मठों-मन्दिरों तक सीमित न रहें, वे समाज में निकले और पीड़ित मानवता की सेवा को ही राघव सेवा मनाकर अपना सर्वस्व अर्पित करें,” यही जगद्गुरु स्वामी रामभद्राचार्य का मानना है और इसे उन्होंने चरितार्थ भी कर दिखाया है। चित्रकूट में देश का पहला-विकलांग विश्वविद्यालय उन्हीं की साधना का प्रतिबिम्ब है जिसे वे अपना बड़ा बेटा कहते हैं। 26 जुलाई, 2001 को उ.प्र. के मुख्यमंत्री श्री राजनाथ सिंह ने इसका उद्घाटन किया था। जगद्गुरु रामभद्राचार्य जी ही इसके आजीवन कुलाधिपति हैं। इसमें विश्वविद्यालय में अध्ययनरत विद्यार्थियों की संख्या लगभग 600 है जिसमें 80 के करीब छात्राएं भी हैं। बी.एड पाठ्यक्रम के कुछ विद्यार्थियों को छोड़कर सभी विद्यार्थी विकलांग है। फिलहाल इनमें से ढाई सौ बच्चों को छात्रावास सुविधा विश्वविद्यालय की ओर से मिली है। विश्वविद्यालय में विकलांग विद्यार्थियों के लिए अधिकांश सुविधाएं नि:शुल्क या फिर नाममात्र के शुल्क पर उपलब्ध हैं। फिलहाल यहां उ.प्र., बिहार, म.प्र. के विद्यार्थी ही ज्यादा है, कुछ विद्यार्थी असम, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, उत्तराञ्चल से भी आए हैं। जगद्गुरु के तुलसी-पीठ आश्रम में छात्राओं को छात्रावास सुविधा मिली हुई है। इसके अतिरिक्त आश्रम परिसर में ही प्रज्ञाचक्षु (नेत्रहीन), मूक-बधिर एवं अस्थि विकलांग बच्चों के लिए प्राथमिक पाठशाला से लेकर उच्च माध्यमिक स्तर तक विद्यालय भी चलता है और अध्ययनरत सभी बच्चों को आवास, भोजन, वस्त्र इत्यादि सुविधाएं भी नि:शुल्क प्राप्त हैं। स्वामी रामभद्राचार्य कहते हैं- “विकलांग मेरे भगवान हैं।” और सचमुच उनकी अनूठी भगवद्साधना ने मानवता की सेवा का एक अभिनव अध्याय ही रच दिया है। 14 जनवरी, 1952 को जौनपुर जिले के सुजानगंज तहसील के शांडी खुर्द में एक कृषक ब्राहृण परिवार में उनका जन्म हुआ। जन्म के ठीक दो महीने बाद उनकी आंखों में “रोहुआ” नामक रोग हो गया। आंखों में दाने पड़ गए। पास के एक गांव की दाई को उनकी मां ने उपचार के लिए दिखाया। दाई ने दाने फोड़ दिए किन्तु दुर्भाग्य, रोहुआ के दाने फूटने की जगह उनकी आंखे ही फूट गईं। लेकिन स्वामी रामभद्राचार्य को इसका कतई मलाल नहीं है। वे कहते हैं-“ईश्वर की इच्छा थी सो हुआ, मेरी आंखों का रोग तो गया नहीं किन्तु मेरे भव रोगों का निदान जरूर हो गया।” स्वामी जी के बचपन का नाम गिरिधर था। बालपन में अपने बाबा प. सूर्यबली मिश्र के सानिध्य में रहकर बालक गिरिधर ने रामचरित मानस, श्रीमद् भगवद्गीता को खेल-2 में कंठस्थ कर लिया। आगे चलकर सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी से उन्होंने अपना शोध कार्य पूर्ण किया। अध्ययन अवधि में कितने ही स्वर्ण पदकों ने उनके गले की शोभा बढ़ाई, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने इनकी अनोखी प्रतिभा से प्रभावित होकर इन्हें संस्कृत विश्वविद्यालय में संस्कृत विभागाध्यक्ष पद पर नियुक्त भी कर दिया लेकिन गिरिधर के जीवन का उद्देश्य तो और ही था। 19 नवम्बर, 1983 को तपोमूर्ति श्री रामचरण दास जी महाराज फलाहारी से उन्होंने संन्यास की दीक्षा ली और आगे चलकर उन्होंने 1987 में तुलसी जयन्ती के दिन चित्रकूट में तुलसी पीठ की स्थापना की। बचपन में और युवावस्था में जिस शारीरिक न्यूनता ने उनके सहज जीवन में कदम-कदम पर विपदाएं, बाधाएं पैदा की, यद्यपि स्वामी जी ने इसे हंसते हुए ही सहन किया, लेकिन इन कष्टों की अनुभूति ने उन्हें देश के विकलांग जन के प्रति असीम करुणा भावना से भर दिया। उन्होंने संकल्प लिया कि अपनी शिक्षा के लिए जो कष्ट उन्हें सहने पड़े, वे अब किसी विकलांग विद्यार्थी को सहन न करने पड़ें और यही स्वप्न पहले प्राथमिक पाठशाला, उच्च माध्यमिक विद्यालय और अब विश्वविद्यालय के रूप में साकार हुआ है। इलाहाबाद के हंडिया नामक स्थान का रहने वाले सुधाकर मिश्र बताते हैं,- बचपन में मुझे पोलियो ने ग्रस लिया। मेरे मन में पढ़ने की बहुत इच्छा थी, इण्टर की पढ़ाई तो मैंने पूरी कर ली लेकिन स्नातक स्तर की शिक्षा के लिए कहां जाऊं। मेरी विकलांगता मेरे सामने भयानक बाधा बन गई। तभी मुझे विकलांग विश्वविद्यालय के बारे में जानकारी मिली। मैं चित्रकुट आ गया। आज मैं एम.ए.अन्तिम वर्ष में पढ़ रहा हूं। आगे शोध यहीं रहकर करुंगा।” सुधाकर अकेले नहीं है। कितने प्रज्ञा चक्षु बालक-बालिकाओं को यहां संगीत की शिक्षा लेते, विभिन्न वाद्ययंत्रों को बजाते, कम्प्यूटर चलाते देखा जा सकता है। विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. जे.एन. पाण्डेय बताते हैं,- “हम अपने विद्यार्थियों को मात्र साक्षर नहीं कर रहे हैं, जीवन संग्राम में जूझने के लिए हमने उनमें हौंसला पैदा किया है। उन्हें रोजगार परक पाठ्यक्रमों से जोड़ा है, सिर्फ स्नातक या परास्नातक की डिग्री देना हमारा लक्ष्य नहीं है। यहां पढ़ने वाले सभी छात्रों के लिए कम्प्यूटर अनिवार्य है।” इसे पूरे गुरुकुल परिवार की एक और श्रद्धा केन्द्र हैं डा. गीता मिश्र, जो स्वामी जी की बड़ी बहन हैं। स्वामी रामभद्राचार्य के स्वप्नों को साकार करने में उनका त्याग भी अवर्णनीय है। स्वामी जी की छत्र-छाया में रहने वाले सैकड़ों बालक अनुसूचित जाति-जनजाति से सम्बंध रखते है, कुछ मुसलमान भी हैं। जांत-पांत के भेद से परे विकलांग देव की सेवा में लगे स्वामी रामभद्राचार्य कहते हैं- “भगवान की कोई जाति नहीं होती। विकलांग मेरे भगवान हैं तो इनमें जाति कैसे हो सकती है।”30
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