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समरसता के लिए संघ से आशासुप्रसिद्ध कवि, दलित पैंथर के संस्थापक अध्यक्ष श्री नामदेव ढसाल आज किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उनका जीवन जातिगत विषमता के क्रूर थपेड़ों-आघातों को सहता हुआ आज सारे देश में ही नहीं अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर देदीप्यमान है। एक समय था जब उनकी स्कूली शिक्षा भी पूर्ण नहीं हो पाई, कभी टैक्सी चलाकर वे अपनी आजीविका की व्यवस्था करते थे, लेकिन समय चक्र की महिमा और प्रतिभा का चमत्कार, वही नामदेव ढसाल आज समकालीन साहित्य जगत के सर्वाधिक सशक्त हस्ताक्षरों में से एक हैं। जहां साहित्य अकादमी ने उन्हें “गोल्डन जुबली लाइफ टाइम एचीवमेंट एवार्ड” दिया वहीं भारत सरकार ने उनकी साहित्य सेवा के लिए उन्हें 1999 में पदम्श्री सम्मान से भी अलंकृत किया। प्रख्यात नोबल पुरस्कार विजेता श्री वी.एस. नायपाल ने अपनी पुस्तक “ए मिलियन म्यूटिनीज नाउ” में एक पूरा अध्याय उनको समर्पित किया है। मूलत: मराठी कवि श्री ढसाल ने गत 30 अगस्त को हिन्दी भवन, दिल्ली में समरसता के सूत्र ग्रन्थ के लोकार्पण समारोह में जो भावपूर्ण उद्बोधन दिया, प्रस्तुत है उसी का अविकल पाठ-बाबा साहब अम्बेडकर के सिद्धान्तों पर चलते हुए मैंने दलित समाज और सवर्ण समाज के बीच सेतु बनाने का व्रत लिया है और पिछले 40 वर्षों से मैं निजी तौर पर, सांगठनिक तौर पर इस काम में लगा हूं। मैं संघ परिवार का सदस्य नहीं हूं लेकिन यदि संघ सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए अपने 40-50 वर्ष के अनुभवों के बाद कुछ करना चाहता है तो मैं संघ को अस्पृश्य नहीं मानता हूं। यद्यपि मैं जानता हूं कि संघ के मंच पर आने से अनेक प्रगतिवादी लोग मुझे गालियां देंगे। मैं पक्का सिद्धान्तवादी हूं और डा. अम्बेडकर के विचारों पर चलने वाला सर्वसाधारण कार्यकर्ता हूं। जाति प्रथा के कारण मैंने अपना बालपन खोया है। मैं महाराष्ट्र की महार जाति से सम्बंधित हूं और मतान्तरित बौद्ध हूं। बचपन की अनेक घटनाएं मुझे याद आती हैं। अनेक बार सुबह मुझे मां रोटी मांगने के लिए सवर्णों की बस्ती में भेजती थी। मैं उस छोटी उम्र में जब कक्षा 2 या 3 में पढ़ता था, हाथों में घुंघरू बंधी लकड़ी लिए, सर पर टोपी, फटा-चीथड़ा पहने घर-घर रोटी मांगता फिरता था। मैं सवर्ण बस्ती के पास जाकर गुहार लगाता था तो बस्ती के कुत्ते मुझे घेर लेते थे। मेरी आवाज सुनकर किसी घर के अन्दर से कामकाज से बेहाल महिला बोलती, “सुबह-सुबह आ गया, मरता क्यों नहीं है।” सर्वोच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त मुख्य न्यायाधीश श्री चन्द्रचूड़ मेरे ही गांव के पुराने वतनदार (जमींदार) हैं। राजगुरु जैसे क्रान्तिकारी मेरे ही गांव के थे। श्री चन्द्रचूड़ ब्राहृण जमींदार परिवार से थे। जो भी कारण रहे हों, हमारी यानी अछूतों की जमीन पर भी उनके परिवार द्वारा ही खेती-बाड़ी होती थी।मैं प्रयोगवादी हूं। समकालीन साहित्य में मेरी रचनाएं प्रसिद्ध हुई हैं, इसलिए मैं किसी आलोचना से नहीं डरता। मुझे रा.स्व.संघ से अनेक अपेक्षाएं हैं। संघ सही मार्ग पर चले, चलना भी चाहिए। माकपा के मेरे मित्र और कम्युनिस्ट विचार के अतिवामपंथियों को मेरा संघ के सरसंघचालक के साथ बैठना नहीं सुहाएगा, वे मुझे गालियां देंगे, यह मैं जानता हूं। लेकिन मुझे संघ से बहुत कुछ कहना है।हिन्दुस्थानी धर्म चाहे वह वैदिक धर्म हो, हिन्दू धर्म हो या फिर कोई और, वे सभी बच्चों में भगवान देखते हैं लेकिन मुझे अपना बचपन याद आता है। बहुत कष्ट सहे हैं हमने। स्कूल में भेदभाव, पीने के पानी में भेदभाव और खेलने में भेदभाव, सब मैंने सहा है। मेरा गांव वेण नदी के किनारे है। वहां हमारा पीने का पानी लेने का स्थान भी अलग था। नदी किनारे पहले सवर्णों के पीने का स्थान, उसके बाद उनके नहाने का स्थान और फिर उनके पशुओं के नहाने-धोने का स्थान, फिर उसके बाद हमारे लिए पीने का पानी लेने का स्थान था जिसके ठीक बाद गांव का श्मशानघाट था। वहीं नदी के पास एक बड़ा सा पोखर था। श्री चन्द्रचूड़ के परिवार का वह पोखर था। हमारे कुछ मित्रों ने मुझे एक बार कहा कि चलो उसमें नहाते हैं। बाल स्वभाव था, हम उसमें तैरने चले गए। खूब मौज-मस्ती की। अचानक कहीं से चंद्रचूड़ बाहृण परिवार के एक वरिष्ठ व्यक्ति को पता लग गया। और जब वह घोड़े पर बैठकर आए तो मेरे बाकी साथी तो भागो-भागो कहते हुए भाग गए, मैं और मेरा छोटा भाई उसी ताल में रह गए। उन्होंने आकर मेरे बाप का नाम पूछा। मैंने जैसे ही लक्ष्मण महार बताया, शायद आज कोई विश्वास न करे, उस व्यक्ति ने घोड़े के नीचे उतरकर मेरे ऊपर इतने पत्थर बरसाए कि जान बचाना मुश्किल हो गया। मेरे मित्र, जो मुझे वहां ले गए थे, जब उन्हें लगा कि ये दोनों भाई नहीं बचेंगे तो उन्हें पछतावा हुआ कि क्यों हमने इन्हें तैरने का निमंत्रण दिया? तो उन मित्रों ने जाकर उस व्यक्ति को घेरा, उसकी धोती खोल दी, तब हम भागकर अपने घर पहुंचे। बाद में वह व्यक्ति मेरे घर पहुंचा, बहुत गालियां दीं, ऐसी गालियां दीं, जिसे कोई सुन नहीं सकता और जब वह चला गया तो मेरी मां ने बबूल की पतली छड़ी लेकर मेरी इतनी पिटाई की, वे यादें आज भी ताजा हैं, यद्यपि मेरी मां अब इस संसार में नहीं है।मैं डा. अम्बेडकर को धन्यवाद देता हूं, जिन्होंने हमारा दर्जा जानवर से उठाकर इन्सान के समान किया। डा. अम्बेडकर न होते तो हम आज भी जानवर जैसे ही रहते। बाबा साहब ने इन अत्याचारों, यज्ञोपवीत, कर्मकाण्ड के खिलाफ बगावत की। “हिन्दू धर्म में पैदा हुआ हूं लेकिन हिन्दू धर्म में मैं मरूंगा नहीं”, ऐसी उद्घोषणा की और बौद्ध धर्म अपनाया और दलितों को उनके वे मूलभूत अधिकार दिलाए जिन अधिकारों से यह जातियां पिछले पांच हजार वर्षों से वंचित थीं। यद्यपि मैं मानता हूं कि बौद्ध धर्म हिन्दू धर्म की व्यापक परिधि के अन्तर्गत ही आता है लेकिन हिन्दू धर्म की कुछ कालबाह्र बातों, कर्मकाण्डों का निवारण हर हाल में करने के लिए बाबा साहब ने मतान्तरण का कदम उठाया। यद्यपि बौद्ध लोग पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करते, हिन्दू धर्म करता है तथापि इस विश्वास के अनुसार यदि बाबा साहब पुन: जन्म लेते हैं तो हमारे जैसे कितने ही लोग अपनी चमड़ी की जूतियां बनाकर उनके पैरों में डाल देंगे क्योंकि डा. अम्बेडकर के कारण हम आज सम्मानजनक अवस्था में हैं।समरसता के प्रयास अब व्यापक होने चाहिए। इसे एक आन्दोलन का रूप देना होगा। लेकिन अभी क्या स्थिति है? वाल्मीकि ऋषि का जन्मदिन भी हिन्दुओं में सिर्फ वर्ग विशेष के लोग मनाते हैं, आखिर क्यों? आजादी के इतने वर्षों बाद भी यदि 800 जातियां और 5000 उपजातियों का भारत में अस्तित्व है तो फिर समाज कैसे जुड़ेगा? हम किस मुंह से नए समाज के निर्माण की बात करते हैं? मैं अपनी प्राचीन संस्कृति, धर्म और आज की अवस्था से वाकिफ हूं। हम लोग पश्चिमी संस्कृति और वहां के लोगों की बड़ी आलोचना करते हैं लेकिन जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में वे अत्यधिक सभ्यता से रहते हैं। मैं जर्मनी गया था एक साहित्य सम्मेलन में, अछूत जातियों और जातिप्रथा पर मैंने वहां भाषण दिया। भाषण के बाद मुझसे लोगों ने पूछा कि आपने इतने अत्याचार सहे, इतना सब कुछ हुआ? आपकी संस्कृति कौन सी है? मुझे बाबा साहब की घोषणा याद आ गई कि “हिन्दू धर्म में पैदा हुआ हूं लेकिन उसमें मरूंगा नहीं।” बाबा साहब ने बौद्ध दर्शन अपनाया तो क्या वे हिन्दू धर्म से दूर हो गए? यदि आप बौद्ध दर्शन को हिन्दू धर्म से अलग समझते हैं तो इसके जैसा कोई गुनाह नहीं। यदि जैन को अलग समझते हैं, यदि सिख को अलग समझते हैं तो इसके जैसा कोई गुनाह नहीं है। जिसे हम हिन्दू धर्म कहते हैं, जिसने मेरा बचपन छीना है, उस हिन्दू धर्म का सबसे निम्न स्तर का कर्मकाण्ड मैंने झेला है। यही मेरे नसीब में आया। वैसे मेरा परिवार नागपंथी है। मेरे चाचा वारकरी सम्प्रदाय से जुड़े रहे हैं। संत ज्ञानेश्वर से सम्बंधित वारकरी सम्प्रदाय है। नागपंथी सम्प्रदाय में अमावस्या व पूर्णिमा के दिन नाग देवता को चिलम (गांजा) चढ़ती है। ऐसा क्यों होता है, कारण मुझे पता नहीं। बचपन में मेरी मां मुझे यह चिलम बनाने और उसे जलाने का काम देती थी। इसे करने में कम से कम दो घंटे लगते। मेरे मन में इसे देखकर यही आया कि यदि देवता को इतनी चीजें लगती हैं तो यह कैसे देवता हैं? और मैं नास्तिक हो गया।बाद में जब मैं मुम्बई आया तो मैं समाजवादी विचार से जुड़ा। वहां भी मैंने अस्पृश्यता का अनुभव किया। जो समाजवादी समता के पक्ष धर माने जाते हैं, वैसे ही एक समाजवादी कार्यकर्ता की लड़की मेरे साथ पढ़ती थी। एक शाम, संभवत: उस दिन दीपावली थी, हम दोनों पिक्चर देखने गए। रात हो गई तो वह लड़की घर नहीं लौट पाई तो मैं उसे लेकर अपने घर आ गया। मेरे घर के लोगों ने उसे हिफाजत से रखा। बाद में अगले दिन जब उसे वापस उसके घर ले गए तो उसके परिवार वालों ने उसकी शुद्धि के लिए यज्ञ किया। मुझे अपमानित किया गया सो अलग। वही पीड़ा अब कविता बनकर फूट पड़ती है। तो यह हाल है समाजवादी विचार के लोगों का। मेरे घर मारपीट करने पहुंच गए। मैंने ग्रामीण-शहरी दोनों जगह की अस्पृश्यता को देखा है। आचार्य नरेन्द्र देव, लोहिया, मधु दंडवते के कार्यकर्ताओं को मैंने देखा है। और कम्युनिस्ट विचारकों, नेताओं-डांगे साहब, चारू मजूमदार आदि-सभी को मैंने देखा, माÐक्सस्टों के साथ मैंने काम किया है। वस्तुत: कम्युनिस्टों ने छुआछूत को कभी समस्या माना ही नहीं। और कम्युनिस्ट लोग इस मुद्दे पर आज भी कुछ नहीं कर रहे हैं। अगर कुछ किया है तो यही कि अब तक जिन्हें पूंजीपति कहते थे, केन्द्र में आज उनके साथ बैठकर सरकार चला रहे हैं।जर्मनी में मुझसे पूछा गया कि आप बुद्धिस्ट हैं कि अम्बेडकरवादी या माक्र्सवादी? कौन सी संस्कृति है आपकी? मैंने उत्तर दिया कि, “वैदिक और अवैदिक विचार का भारत में जो संकर हुआ है, इससे जो सांस्कृतिक अधिष्ठान पैदा हुआ है, वही मेरी संस्कृति है। मैं बौद्ध विचारों का हूं लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मेरा वेदों से कोई नाता नहीं है, हिन्दू धर्म से नाता नहीं है। हिन्दू धर्म बहुत व्यापक है। इसमें सभी समाहित हैं। लेकिन मुझे लगता है कि हम आदि शंकराचार्य जी से आगे नहीं बढ़ना चाहते। सामाजिक और राष्ट्रीय धर्म बनता कैसे है, उस पर विचार होना चाहिए। डा. अम्बेडकर ने इस बारे में “माई थाट्स आन पाकिस्तान” में लिखा है कि इस देश में शक आए, हूण आए, तुर्क आए, मुगल आए, सभी ने हमारे प्राचीन धर्म पर प्रहार किए हैं। इन आक्रमणों को झेलते हुए हिन्दू धर्म आज जहां खड़ा है, मुझे लगता है वह वैश्विक धर्म है, जिसे हम मानव धर्म कहते हैं। आदि शंकराचार्य नहीं होते, यदि बादरायण नहीं होते, यदि वेद संहिता नहीं होती तो बादरायण नहीं होते। वेद मंत्रों पर ही शंकराचार्य ने अद्वैत सिद्धान्त की नींव रखी। उसके बाद निम्बार्काचार्य आए, मध्वाचार्य आए। इन लोगों ने धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आदि की अवधारणाओं पर काम किया लेकिन मेरा मानना है कि आदि शंकराचार्य के अद्वैत सिद्धांत के बाद इहलौकिक जीवन के बारे में सोचने वाला कोई एक विचार होना आज बहुत आवश्यक है।हम बड़े लक्ष्य को लेकर चल रहे हैं। हमें मतभेदों के होते हुए भी मिलजुलकर काम करना है। जाति-तोड़ने के लिए सरकारों ने, राजनीतिक दलों ने बहुत प्रयास किए पर कुछ नहीं हुआ। मुझे नहीं लगता कि संघ से शक्ति लेकर भाजपा आदि घटक दल भी इस बारे में कुछ कर पाए। राजनीति और सरकार से सामाजिक परिवर्तन का काम हो भी नहीं हो सकता। इसके लिए तो ऊंची जाति व नीची जाति के लोगों को एक मंच पर खड़े होकर काम करना होगा। मैं संघ के मंच पर इसीलिए आया। यहां से बाहर जाने पर मुझे गालियां मिलेंगी, ऐसे पागलों की गालियां मिलेंगी जिन्हें जाति प्रथा तोड़ने के लिए खुद कुछ करना नहीं है। डा. अम्बेडकर का मिशन अभी अधूरा है। बाबा साहब के नाम पर राजनीति करने वाले आज बाबा साहब के उद्देश्यों को भूल गए हैं। उसे याद रखने की जरूरत है। द20
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