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ऋषिकेश मुखर्जीसरल, सहज आनन्द खो गयाकौन भूला होगा “70 के दशक में बनी फिल्म आनंद को, जिसमें तिल-तिलकर मौत के करीब जाते व्यक्ति की मानसिक कशमकश के बीच जीवन के हास्य का बखूबी चित्रण किया गया था। यह असाधारण फिल्म बनाई थी उस जमाने के बहुप्रतिष्ठित निर्देशक ऋषिकेश मुखर्जी ने। ऋषि दा की खूबी ही यही थी कि वे रोजमर्रा के जीवन से जुड़ी छोटी-छोटी घटनाओं और मानवीय संबंधों का बहुत बारीक अध्ययन करते थे और फिल्मों के माध्यम से उन्हें परदे पर एक जीवंत कथा की तरह उतार देते थे। गुड्डी, मिली, आनंद, अभिमान, चुपके-चुपके, गोलमाल, नमकहराम, सत्यकाम जैसी फिल्में ऋषि दा के जीवन दर्शन की झलक तो दिखलाती ही हैं, भागमभाग भरी जिंदगी से परे एक बेहद सादा, सरल, लाग लपेट से दूर भी कुछ है, यह सिद्ध करती हैं। करोड़ों के बजट और ढेरों कलाकारों को लेकर बनी फिल्में भी जहां आज बाक्स आफिस पर असफल होती हैं वहीं ऋषि दा की कभी गुदगुदाती, तो कभी बेहद संजीदा माहौल बनातीं फिल्में सालों बीत जाने के बाद आज भी दर्शकों को बरबस बांध लेती हैं। ऐसे महान व्यक्तित्व का जाना अपने पीछे एक गहरी उदासी छोड़ गया। गत 27 अगस्त को मुंबई के लीलावती अस्पताल में उनका निधन हो गया। वे 84 वर्ष के थे और लंबे समय से गुर्दे की बीमारी से पीड़ित थे। 30 सितम्बर, 1922 को कोलकाता में जन्मे ऋषि दा ने अपने फिल्मी कैरियर की शुरुआत 1951 में सुप्रसिद्ध निर्माता-निर्देशक बिमल राय के सहायक के रूप में की थी। 1957 में उन्होंने अपने स्वतंत्र निर्देशन में पहली फिल्म मुसाफिर बनाई थी। जया बच्चन, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन, धमेंद्र, असरानी, अशोक कुमार, उत्पल दत्त आदि उनके पसंदीदा कलाकार रहे। जया बच्चन तो उन्हें पितातुल्य मानती थीं और वे स्वीकार भी करती हैं कि अभिनय की बारीकियां उन्होंने ऋषि दा से ही सीखीं। फिल्मकारों में ऋषिकेश मुखर्जी ने अपने लिए एक ऐसा स्थान बनाया जो आने वाले लंबे समय तक फिल्म उद्योग से जुड़े तमाम लोगों को प्रेरणा देता रहेगा। ऐसे फिल्मकार और ऐसे जीवंत व्यक्तित्व विरले ही होते हैं जो जीवन की जटिलताओं के बीच भी कहकहों के मौके तलाश लेते हैं।8
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