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ब्रिटिश कूटनीति की विजय है आरक्षण सिद्धांत-9
पूना पैक्ट ने राजनीति की दिशा बदल दी
देवेन्द्र स्वरूप
गोलमेज सम्मेलन के अंत में गांधी जी अस्पृश्यता और ऊंच-नीच जाति भेद के निवारण व हिन्दू समाज के तथाकथित दलित वर्गों को भावी संविधान में पृथक निर्वाचन का अधिकार देने के विरुद्ध प्रबल सामाजिक आंदोलन चलाने के अपने संकल्प की घोषणा करके 28 दिसम्बर, 1931 को स्वदेश वापस लौटे। किन्तु भारतीय जनमानस एवं मीडिया पर गांधी जी के गहरे प्रभाव से आतंकित ब्रिटिश शासन ने उन्हें 4 जनवरी, 1932 को ही पुन: जेल में बंद करके उन्हें सामाजिक आंदोलन चलाने का अवसर ही नहीं दिया। जेल में बंद गांधी जी ने 11 मार्च, 1932 को भारत सचिव सेमुअल होर को एक लम्बा पत्र लिखकर चेतावनी दी कि अस्पृश्यता और जाति भेद की समस्या हिन्दू समाज की आंतरिक समस्या है और उसे एक सामाजिक आंदोलन द्वारा ही स्थाई रूप से हल किया जा सकता है। किन्तु ब्रिटिश सरकार ने उन्हें जेल में ठूंस दिया है। पर यदि ब्रिटिश सरकार दलित वर्गों के पृथक निर्वाचन का अधिकार देने पर तुली रही तो वे अकेले ही इसका विरोध करेंगे और हिन्दू समाज के विभाजन को रोकने के लिए अपने प्राणों का होम करने में भी संकोच नहीं करेंगे। किन्तु अब तक गांधी जी ब्रिटिश कूटनीति के जाल में पूरी तरह फंस चुके थे। गोलमेज सम्मेलन की अल्पसंख्यक समिति की ओर से ब्रिटिश प्रधानमंत्री को सांप्रदायिक निर्णय का अधिकार देने वाले प्रतिवेदन पर हस्ताक्षर करके गांधी जी अपने हाथ बांध चुके हैं। ब्रिटिश सरकार की आंखों में गांधी जी ब्रिटिश सरकार के सबसे बड़े शत्रु के अलावा कुछ नहीं थे, क्योंकि वे भारतीय राष्ट्रवाद की आधारभूमि हिन्दू समाज को राष्ट्रीय एकता के सूत्र में गूंथने में क्रमश: सफल हो रहे थे। उनके विजय रथ को रोकने के लिए हिन्दू समाज को भीतर से तोड़ना आवश्यक था। इस प्रक्रिया में डा. अम्बेडकर को अपनी अपार बौद्धिक क्षमता और अंग्रेजी भाषा में भाषण कला के कारण ब्रिटिश शासकों ने अपना मित्र बनाया था। इसीलिए उन्होंने इंग्लैंड पहुंचे डा. अम्बेडकर के आग्रह पर जेल में बंद गांधी की चेतावनी को दरकिनार कर दिया और 17 अगस्त, 1932 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने “साम्प्रदायिक निर्णय” में दलित वर्गों को बीस वर्ष के लिए ही क्यों न हो, पृथक मताधिकार की घोषणा करके गांधी जी को आमरण अनशन का अंतिम शस्त्र उठाने के लिए बाध्य कर दिया।
भूचाल पैदा करने वाला अनशन
उनके अनशन से राष्ट्र जीवन में भूचाल सा आ गया। इस भूचाल का कुछ अनुमान समकालीन स्रोतों से लग सकता है। वे महाराष्ट्र सरकार द्वारा प्रकाशित एक ग्रन्थमाला, जो अज्ञात कारणों से पृथक खंड के आगे नहीं बढ़ी, के प्रथम खंड में उपलब्ध हैं। इन स्रोतों को पढ़कर लगता है कि जन भावनाओं के ज्वार के कारण डा. अम्बेडकर कुछ समय के लिए अकेले पड़ गये थे और दलित नेताओं का बड़ा वर्ग भी गांधी जी के साथ खड़ा था। इस वातावरण में 25 सितम्बर, 1932 को पूना-पैक्ट पर हस्ताक्षर हुए। पृथक मताधिकार के प्रावधान को हटा दिया गया। ऊपर से देखने पर पूना-पैक्ट को गांधी जी की विजय कहा जा सकता है पर वस्तुत: वह ब्रिटिश कूटनीति की गांधी जी पर विजय थी। पूना पैक्ट दलित समस्या को सामाजिक आंदोलन की परिधि से बाहर खींचकर ब्रिटिश संवैधानिक सुधार प्रक्रिया का अंग बना देता है। वह दलित समस्या का राजनीतिकरण कर देता है। दूसरे, इस पैक्ट के द्वारा गांधी जी को अपनी इच्छा के विरुद्ध “संयुक्त मताधिकार के साथ आरक्षण” के सिद्धान्त पर अपनी स्वीकृति की मुहर लगाने को विवश होना पड़ा है।
वस्तुत: दलित वर्गों के लिए आरक्षण की बात ब्रिटिश शासकों के मन में पहले से चल रही थी। साईमन कमीशन ने भी मई 1930 की अपनी रपट में भी आरक्षण के साथ “संयुक्त मताधिकार” की ही सिफारिश की थी। द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में जाने के पूर्व डा. अम्बेडकर ने 14 अगस्त 1931 को गांधी जी से भेंट करके दलित वर्गों को आरक्षण द्वारा राजनीतिक प्रतिनिधित्व देने का सुझाव दिया था, जिसे गांधी जी ने दलितों के लिए आत्मघाती बताया था। गांधी जी आरक्षण के सिद्धान्त को आत्मघाती क्यों मानते थे?
अनशन प्रारम्भ करने के पूर्व 16 सितम्बर, 1932 को एक वक्तव्य जारी करके गांधी जी ने कहा, “सीटों के आरक्षण के बारे में मेरे विचार बहुत कड़े हैं। किन्तु यदि सवर्ण हिन्दुओं और दलित वर्गों के नेताओं के बीच संयुक्त मताधिकार के आधार पर कोई समझौता होता है तो मैं उसे स्वीकार करूंगा, क्योंकि मेरा अनशन संवैधानिक मताधिकार, उसका रूप चाहे जो हो, के विरुद्ध है। सदा सर्वदा के लिए वह खतरा टलते ही मेरा अनशन समाप्त हो जायेगा। मेरे अनशन का सीमित उद्देश्य है। दलित प्रश्न मुख्यतया धार्मिक प्रश्न है। मैं इसे अपना विषय मानता हूं, क्योंकि मैं जीवन भर उस पर ध्यान लगाता रहा हूं। मैं इसे अपनी व्यक्तिगत पवित्र धरोहर मानता हूं जिसे मैं छोड़ नहीं सकता।
महाराष्ट्र के दलित नेता पी.एन. राज भोज के पत्र के उत्तर में गांधी जी ने लिखा, “यदि दलित वर्गों के नेता मेरे विचारों को अनदेखा करके सीटों का संवैधानिक आरक्षण प्राप्त करना चाहते हैं तो वे इसके लिए स्वतंत्र हैं। मैं इस निर्णय के विरुद्ध अनशन नहीं करूंगा। किन्तु ऐसी किसी योजना के लिए आप मेरे आशीर्वाद की आशा भी न करें… यदि मुझे अवसर मिला तो मैं दलित वर्गों में संवैधानिक आरक्षण के विरुद्ध जनमन पैदा करने का प्रयास निश्चित ही करूंगा।” जेल में किसी पत्रकार से भेंट का प्रथम अवसर मिलने पर गांधी जी ने कहा, “मेरा अनशन पृथक मताधिकार के विरुद्ध है, न कि सीटों के संवैधानिक आरक्षण के विरुद्ध। यह कथन कि मैं आरक्षण का नि:संदिग्ध विरोध करके उद्देश्य को हानि पहुंचा रहा है, केवल अंशत: सही होगा। मैं आरक्षण का विरोधी था और इस समय भी हूं।… मेरी समझ से ऐसा संवैधानिक आरक्षण लाभ करने के बजाय हानि ही करेगा। इससे सुधार की स्वाभाविक प्रक्रिया रुक जायेगी। कानूनी आरक्षण वैसाखी के समान है। वैसाखी का सहारा लेने वाला व्यक्ति स्वयं को कमजोर बना लेता है।”
इसी भेंट-वार्ता में गांधी जी ने स्वयं “स्वेच्छया अस्पृश्य” कहकर दलित वर्गों का अंग बताया और कहा, “दलित वर्गों का उत्थान सीटों के आरक्षण से नहीं, अपितु हिन्दू सुधारकों द्वारा उनके मध्य निरंतर सेवा कार्य से ही होगा।”
आरक्षण का चाकू
21 सितम्बर को पी.एन. राज भोज से प्रत्यक्ष भेंट में गांधी जी ने कहा, “मेरा तात्कालिक पृथक मताधिकार द्वारा दलित वर्गों को शेष हिन्दू समाज से अलग करने की योजना को विफल करना है। संयुक्त मताधिकार में आरक्षण की व्यवस्था के प्रति गंभीर शंकायें रखते हुए भी यदि इसी आधार पर सब सहमत होते हैं तो मैं अधिकतम झिझक के बावजूद उनके साथ रहूंगा।”
स्पष्ट ही, ब्रिटिश कूटनीति ने गांधी जी को ऐसे विषम चक्रव्यूह में फांस लिया था कि गांधी को पृथक मताधिकार की विभाजनकारी फांस को काटने के लिए आरक्षण के चाकू का इस्तेमाल करना पड़ा। इसलिए पूना-पैक्ट पर अम्बेडकर के इस कटाक्ष को पूरी तरह अनुचित नहीं कहा जा सकता कि, “यदि गांधी जी ने मेरे दृष्टिकोण के प्रति यही उदारवादी पहले दिखा दी होती तो उन्हें इस कठिन परीक्षा से गुजरने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती।” उदारवाद नेता चिमनलाल सीतलवाड की प्रतिक्रिया थी “गांधी जी ने लंदन में दलित वर्गों के लिए सीटों के आरक्षण के सुझाव को स्वीकार करने से सर्वथा इनकार कर दिया था पर यहां पूना में उन्होंने न केवल सीटों का आरक्षण स्वीकार कर लिया बल्कि पृथक प्राथमिक निर्वाचक मण्डल को भी मान लिया।” वरिष्ठ उदारवादी नेता वी.एस. श्रीनिवास शास्त्री ने “पूना पैक्ट को खराब सौदेबाजी” घोषित कर दिया।
इतिहास की आंखों से देखें तो भारतीय राजनीति के दिशानिर्धारण की जो पहल गांधी जी ने अंग्रेजों से छीन ली थी, वह पूना पैक्ट के बाद उनसे छिन कर पुन: अंग्रेजों के पास चली गई। 1915 से 1930 तक गांधी जी ने अपनी अभिनव जीवन शैली और संघर्ष पद्धति से राष्ट्रीयता का जो ज्वार उभारा था, जन-शक्ति के सहारे पूर्ण स्वराज्य की प्राप्ति का जो विश्वास समाज के मन में पैदा किया था, उसे गोलमेज सम्मेलन में जाकर, ब्रिटिश प्रधानमंत्री को साम्प्रदायिक निर्णय का अधिकार देकर और पूना-पैक्ट में आरक्षण के सिद्धान्त के समक्ष समर्पण करके अंग्रेजों की संवैधानिक सुधार प्रक्रिया के कुटिल चक्र में फंसा दिया। राजनीतिक एजेन्डा की पहल उनके हाथों से निकल गई। प्रत्येक प्रक्रिया अपनी दिशा में ही आगे बढ़ती है और अपने ही ढंग का नेतृत्व ऊपर फेंकती है। आरक्षण के सिद्धान्त के साथ भी वैसा ही हुआ। गांधी जी ने 1933 में पुन: सामाजिक धरातल पर सशक्त हरिजन आंदोलन खड़ा करने का सराहनीय प्रयास किया। किन्तु आरक्षण के सिद्धान्त में से निकले दलित नेतृत्व को यह रास नहीं आया। जैसा कि हम पहले ही बता चुके हैं कि उन दिनों अशिक्षा और गरीबी में डूबे अस्पृश्य समाज में नेतृत्व था ही कहां? मुट्ठी भर स्वयंभू नेता ब्रिटिश हाथों में खेल रहे थे। शायद इसीलिए साईमन कमीशन की रपट में शर्त लगाई गई थी कि आरक्षित सीटों के लिए दलित प्रत्याशियों के नामों पर गवर्नर की स्वीकृति की मुहर लगना आवश्यक होगा। 1934 में गांधी जी ने कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता को त्याग कर राजनीति के दिशा निर्धारण में अपनी सीमा को स्वीकार कर लिया। उनका वह वक्तव्य उनके मन की निराशा को व्यक्त करता है। आचार्य कृपलानी ने कहीं लिखा है कि गांधी जी 1942 से कांग्रेस में निष्प्रभावी हो गये थे, किन्तु मुझे लगता है कि यह प्रक्रिया 1932 के पूना-पैक्ट से प्रारंभ हुई।
संख्या बल का महत्व
पूना पैक्ट में आरक्षण के सिद्धान्त को मान्यता मिलने पर उसे 1935 के भारत सरकार एक्ट में सम्मिलित कर लिया गया। एम.सी. राजा, अम्बेडकर, थावरे, गवई आदि सभी नेताओं का आग्रह था कि वे अपने समाज के लिए “दलित वर्गों” जैसा शब्द प्रयोग नहीं चाहते। उन्हें बहिष्कृत या प्रोटेस्टेंट हिन्दू जैसा नाम दिया जाना चाहिए। इस पर गांधी जी ने “हरिजन” शब्द फेंका जिसे उस समय मीडिया और नेतृत्व ने हाथों हाथ लिया किन्तु ब्रिटिश सरकार ने उसे न अपनाकर “अनुसूचित जाति” जैसे शब्द को कानूनी मान्यता दी, स्वाधीन भारत के संविधान ने इस नामकरण और “आरक्षण के सिद्धान्त” को ज्यों का त्यों अपना लिया। यद्यपि भारत के इतिहास में स्वतंत्रता प्राप्ति का वह अवसर ऐसा ऐतिहासिक मनोवैज्ञानिक रूप था कि राष्ट्र किसी भी बड़े परिवर्तन को स्वीकार करने की मन:स्थिति में था। गांधी जी का राजकुमारी अमृत कौर के नाम अप्रैल 1947 का पत्र इस बारे में पुनर्चिन्तन का कुछ संकेत देता है। किन्तु वह नहीं हो पाया। स्वाधीन भारत का सम्पूर्ण सार्वजनिक जीवन संविधान अर्थात् राजनीति केन्द्रित हो गया। सत्ता में पहुंचना ही राजनीति का एकमात्र लक्ष्य रह गया। चुनावी राजनीति में आदर्शवाद और राष्ट्रनिष्ठा से अधिक महत्व संख्या बल का हो गया। जातिवाद और संप्रदायवाद वोट बैंक राजनीति के दो मुख्य आधार बन गए। जातिगत आरक्षण में निहित स्वार्थ उत्पन्न हो गया। अनुसूचित जातियों/जनजातियों के लिए आरक्षण का जो प्रावधान केवल दस साल के लिए किया गया था वह साठ साल बाद अब चिरस्थायित्व की दिशा में है। 1970 के बाद “दलित” शब्द को पुनरुज्जीवित कर दिया गया है और अब “दलित” शब्द को उसकी हिन्दू पृष्ठभूमि से काट कर अन्य संप्रदायों तक विस्तारित कर दिया गया है।
भारतीय संविधान में आरक्षण के सिद्धान्त को मान्यता मिल जाने के बाद अन्य जातियों के मन में ही आरक्षण का लाभ उठाने की इच्छा पैदा हुई। वयस्क मताधिकार पर आधारित प्रथम आम चुनाव ने अन्य जातियों को अपने संख्या बल का अहसास कराया। अत: हिन्दू समाज की “मध्यम जातियों” ने संविधान की धारा 340 में उल्लिखित “अन्य पिछड़े वर्गों” शब्दावली को अपने ऊपर लागू करके आरक्षण की मांग उठाना शुरू कर दिया। इस पृष्ठभूमि में प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने प्रथम प्रधानमंत्री पं.नेहरू की सलाह पर 29 जनवरी, 1953 को सुप्रसिद्ध गांधीवादी काका कालेलकर की अध्यक्षता में “पिछड़े वर्ग आयोग” के गठन की घोषणा की और 18 मार्च को उसके विधिवत् उद्घाटन के अवसर पर भाषण करते हुए प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने इस आयोग को जातिवादी आधार से ऊपर उठने का आह्वान करते हुए कहा कि इस समय देश की 90 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी और पिछड़ेपन में डूबी हुई है।
जातिवाद का सहारा
उस प्रारम्भिक चरण में राष्ट्रवादी नेतृत्व के चिन्तन की कुछ झलक, इस आयोग के अध्यक्ष काका कालेलकर के राष्ट्रपति के नाम 30 मार्च, 1955 के पत्र से, जो उन्होंने आयोग की रपट के साथ भेजा, मिल जाती है। अपने पत्र में उन्होंने लिखा कि, “इस रपट को अंतिम रूप देने तक मुझे लगने लगा कि पिछड़ेपन की व्याख्या का आधार जाति नहीं, अन्य कसौटियों पर किया जाना चाहिए। जब हम जाति का आधार छोड़ेंगे तभी हम सभी समुदायों के अतिनिर्धन व उपेक्षित लोगों की मदद कर पायेंगे।” उन्होंने लिखा, “इस आयोग में दो साल के अनुभव से मुझे जातिवाद का खतरा निश्चय रूप से लगने लगा है।” क्योंकि “वयस्क मताधिकार के कारण देशभर में सत्ता पाने के लिए जाति-चेतना को फैलाया जा रहा है और जातियों को राजनीतिक दलों में संगठित किया जा रहा है। जाति का महत्व बढ़ने से विभिन्न दल जातिवाद का सहारा ले रहे हैं।” काका ने लिखा दु:ख की बात है कि पिछड़ी जातियों के धनी एवं सम्पन्न वर्ग अपने ही जाति बन्धुओं की उपेक्षा करते हैं।” उन्होंने चेतावनी दी कि “जाति के आधार पर आरक्षण देने से ईसाई और मुसलमानों के मन में भी आरक्षण की सुविधा पाने की इच्छा जग रही है। यद्यपि वे दावा करते हैं कि उनका मजहब जाति एवं जातिभेद को नहीं मानता।”
काका कालेलकर ने स्मरण दिलाया कि “हमारे राष्ट्र ने जाति-विहीन और वर्ग-विहीन समाज रचना का लक्ष्य अपनाया है। इसलिए हमें पिछड़ेपन की कसौटी व्यक्ति या परिवार को बनाना चाहिए।” क्योंकि “राष्ट्रीय एकता की मांग है कि लोकतांत्रिक प्रणाली में किसी भी सरकार का एक सिरे पर केवल “व्यक्ति” और दूसरे सिरे पर केवल “राष्ट्र” को मान्यता देना चाहिए।” इनके बीच अन्य समूहों को मान्यता मिलने से राष्ट्रीय एकता एवं व्यक्ति की स्वतंत्रता बाधित होती है।” उनका दृढ़ मत था कि “सरकारी नौकरियों में तो आरक्षण कदापि नहीं होना चाहिए, क्योंकि शासन का लक्ष्य नौकरियां बांटना नहीं, जनता को कुशल एवं हितकारी प्रशासन देना होता है।”
अपने इन राष्ट्रवादी विचारों के कारण उनके ही आयोग के एक जातिवादी सदस्य ने उन पर ब्राहृणवादी होने का आरोप लगा दिया। इस आयोग के अन्य तीन सदस्यों डा. अनूप सिंह, पी.जी. शाह एवं सदस्य सचिव अरुगांशु डे ने भी जाति आधारित आरक्षण के सिद्धान्त को अवैज्ञानिक एवं विभाजनकारी बताया। कालेलकर आयोग की रपट को 3 सितम्बर, 1956 को संसद में विचारार्थ प्रस्तुत किया गया। इस रपट को सरकार ने पूरी तरह अस्वीकार कर दिया क्योंकि गृहमंत्रालय की टिप्पणी में कहा गया था कि “जातिवाद समस्त समाज के निर्माण की दिशा में हमारी प्रगति के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा सिद्ध हो रहा है। किन्हीं विशिष्ट जातियों को पिछड़ी जातियों की मान्यता देने का परिणाम जाति आधारित वर्तमान भेदभाव को चिरस्थाई बनाने में होगा।” 1965 में यह रपट पुन: संसद में रखी गई किन्तु तब भी भारत सरकार के प्रवक्ता ने जाति को पिछड़ेपन का आधार बनाने को अन्य गरीबों के प्रति अन्याय एवं सामाजिक न्याय के पृथक सिद्धान्त के विरुद्ध घोषित किया। उसने आर्थिक आधार को अपनाने का सुझाव दिया। और रपट पुन: ठुकरा दी गई।
राष्ट्र कितना आगे बढ़ा है कि अब तो आरक्षण को ही हर समस्या का एकमात्र हल कहा जा रहा है। (31 अगस्त, 2006) समाप्त
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