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पाकिस्तानबंटवारे से क्या खोया, क्या पायापुस्तक का नाम: पाकिस्तान की हकीकतलेखक: राम नरेश प्रसाद सिंहप्रकाशक: शिवा प्रकाशन, रोड नं. 9(शिव मंदिर के सामने),राजीव नगर, पटना-800024पृष्ठ: 240मूल्य: 300 रुपएक्यों हुआ भारत का विभाजन? विभाजन के कारण क्या थे? उन कारणों को दूर करने के प्रयासों में कमी कहां रह गई थी? विभाजन के पश्चात् भी साम्प्रदायिक हिंसा-उन्माद क्यों फैला? शांतिपूर्ण ढंग से विभाजन को कार्यरूप क्यों नहीं दिया जा सका? ये और ऐसे अनेक प्रश्न अब तक अनसुलझे या फिर दुखान्त ही बने हुए हैं। कुछ उत्तर खोजे गए, किन्तु विवादास्पद। द्विराष्ट्रवाद सिद्धान्त के आधार पर भारत का विभाजन तो हो गया किन्तु क्या इससे इस महाद्वीप के मुसलमानों की समस्या हल हो गई? अगर हो गई होती तो फिर पाकिस्तान से अलग होकर बंगलादेश का निर्माण क्यों हुआ? इससे ही द्विराष्ट्रवाद के सिद्धान्त और उसकी वैधता पर प्रश्नचिह्न लग जाता है। इसी को ध्यान में रखकर भारतीय गुप्तचर ब्यूरो के वरिष्ठ अधिकारी रह चुके तथा राष्ट्रपति पुलिस पदक से सम्मानित श्री राम नरेश प्रसाद सिंह ने पाकिस्तान का बारीकी से अध्ययन किया और उसे अपनी पुस्तक “पाकिस्तान की हकीकत” में व्याख्यायित किया है।”विभाजन: मुसलमानों के लिए अधिक दुखदायी” अध्याय में उन्होंने भारत से पाकिस्तान गए मुसलमानों, विशेषकर भारत से पूर्वी पाकिस्तान गए मुसलमानों की दुर्दशा का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है। लेखक का मत है, “मुस्लिम लीग और विभाजन के समर्थक नेताओं के बहकावे में आए मुसलमानों की ऐसी दुर्दशा पहले कभी नहीं हुई थी। उनकी मनोकामना धराशायी हो गयी। भारत में रह गए मुसलमानों की स्थिति पाकिस्तान में रह गए हिन्दुओं की तुलना में काफी अच्छी रही। अति उत्साह में पाकिस्तान गए कुछ मुसलमान वहां के सौतेलेपन के कारण वापस हिन्दुस्तान आ गए। किन्तु जो पाकिस्तान में रह गए उनकी हालत अब भी दूसरे दर्जे की बनी हुई है। आरम्भ में मुहाजिरों का स्वागत किया गया, परन्तु 1958 में अयूब खान का शासन आते ही दुर्दिन प्रारम्भ हो गया। उन्हें सताया जाने लगा। फलत: उन्होंने एक राजनैतिक पार्टी मुत्ताहिदा कौमी मूवमेंट (एम.क्यू.एम.) का गठन किया। उनकी बढ़ती राजनीतिक शक्ति पंजाबियों को बर्दाश्त नहीं हुई, इस कारण मुहाजिरों पर हमले बढ़ने लगे। मुहाजिरों के नेता अल्ताफ हुसैन, जो प्राण रक्षा हेतु लंदन में निवास कर रहे हैं, ने सन् 2000 में लंदन की एक पत्रकार वार्ता में कहा था कि भारत का विभाजन मानव जाति की सबसे बड़ी भूल थी।””सर्वाधिक दुर्दशा पूर्वी पाकिस्तान गए मुसलमानों की हुई। उर्दू-भाषी मुसलमानों का बंगालियों से सांस्कृतिक मेल नहीं बैठा। सन् 1971 में पश्चिमी पाकिस्तान के खिलाफ बड़े पैमाने पर हुए विद्रोह में उर्दू भाषियों ने पश्चिमी पाकिस्तान का ही साथ निभाया। पूर्वी पाकिस्तान 16 दिसम्बर, 1971 को पश्चिमी पाकिस्तान के चंगुल से मुक्त हो गया। तब बंगाली मुसलमानों ने उर्दू भाषी मुसलमानों को सताना शुरू कर दिया। वहां अब भी लाखों मुहाजिर और उर्दूभाषी कहीं के नहीं है।”इसलिए यह प्रश्न फिर-फिर उठता है कि निर्माण के बाद पाकिस्तान ने क्या पाया? इसका खुलासा पुस्तक के भाग-1 के छठे अध्याय में किया गया है। लेखक ने विस्तारपूर्वक उन कारणों का विश्लेषण प्रस्तुत किया है जिनके कारण पाकिस्तान की स्थिति चिन्ताजनक है। लेखक ने इसके तीन कारण बताए हैं- सामंतवादी व्यवस्था का कायम रहना, आर्थिक स्रोत के अधिकांश भाग का उपयोग रक्षा बजट में करना तथा विदेशी कर्ज में आकंठ डूबना। परिणामत: वहां भीषण गरीबी, बेरोजगारी, विषमता, अशिक्षा, महिलाओं पर अत्याचार और कुशासन का साम्राज्य है।लेखक का मानना है कि जनरल जिया-उल-हक के पाकिस्तान की सत्ता की बागडोर संभालने के बाद इस्लामीकरण की दौड़ तेज हो गई। मदरसों और मजहबी शिक्षा के कारण जेहादी प्रशिक्षण केन्द्र बढ़ने लगे। जनरल जिया के अनुसार, “पाकिस्तान का आधार और कुछ नहीं, सिर्फ इस्लाम है।” अफगान युद्ध के दौरान तो पाकिस्तान का इस्लामीकरण चरम स्थिति में पहुंच गया, लेकिन अब वही इस्लामी आतंकवाद ही पाकिस्तान के लिए संकट बन बैठा है। पाकिस्तान का चेहरा आतंकवाद के प्रचार-प्रसार के कारण धूमिल हो गया है। लेखक ने इसका विस्तृत विश्लेषण “पाकिस्तान का इस्लामीकरण” अध्याय में किया गया है।पुस्तक का एक महत्वपूर्ण अध्याय है “भारत-पाकिस्तान-बंगलादेश महासंघ”। विभाजन की त्रासदी को दूर करने के लिए क्या इन तीनों राष्ट्रों का महासंघ बनना चाहिए? यदि हां, तो यह कब तक सम्भव होगा? आखिर इसकी प्रक्रिया क्या होगी? ये प्रश्न भी आन्दोलित करते हैं। काश! यह सपना साकार होता, त्रासदी का कलंक मिटता। “जब तीनों राष्ट्रों की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि एक तरह की है तब एकता क्यों नहीं हो सकती। इसके लिए राजनेताओं को पहल करनी होगी। आर्थिक मुद्दों पर आपसी सहयोग की भी असरदार भूमिका होगी।” लेखक के सुझाव सराहनीय हैं। हालांकि इस दिशा में प्रयास जारी हैं, बावजूद इसके सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित नहीं हो पा रहे हैं। आर्थिक-राजनीतिक संगठन कितनी प्रभावकारी भूमिका निभा सकेंगे इसके बारे में कहना कठिन है।लेखक ने कष्ट साध्य शोध के आधार पर आंकड़े का संग्रह किया है, उनका विश्लेषण किया है, जो समीचीन हैं। कुल चार भागों में विभक्त पुस्तक “पाकिस्तान की हकीकत” बताती है। इस प्रकार शोध पर आधारित तथ्य से परिपूर्ण इस पुस्तक की प्रामाणिकता स्वत: बढ़ जाती है। अन्त में दिए गए परिशिष्ट में कुल दस भाग हैं जो संतुलित ढंग से प्रस्तुत किए गए हैं। अजय कुमार मिश्र21
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