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बर्बाद करने पर तुली सरकार- डा. मुरली मनोहर जोशीसंसद सदस्य एवं पूर्व केन्द्रीय मानव संसाधन विकासमंत्रीभारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता डा. मुरली मनोहर जोशी हिन्दुत्व,शिक्षा,स्वदेशी आदि मुद्दों पर सदैव मुखर रहे हैं। संप्रग सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने जब शिक्षा के निर्विषीकरण के नाम पर विष फैलाने का अभियान प्रारम्भ किया, तब डा. जोशी ही थे जिन्होंने इस मुद्दे पर सड़क से लेकर संसद तक में सरकार का विरोध किया। 18 अगस्त, 2004 को राज्यसभा में पाठ पुस्तकों में परिवर्तन के मुद्दे पर चर्चा में भाग लेते हुए उन्होंने जो ऐतिहासिक वक्तव्य दिया, वह आज भी प्रासंगिक व पठनीय है। उसी वक्तव्य के प्रमुख अंश यहां प्रस्तुत हैं-12 जून, 2004 को सरकार ने अपने राजकीय आदेश में कहा कि लंबे समय से जनता और शिक्षण समुदाय इतिहास की पाठपुस्तकों में सांप्रदायिकता व अन्य कमियों के विषय में चिंतित है। लेकिन सरकार ने यह स्पष्ट नहीं किया कि किन किताबों के बारे में कौन सी शिकायतें सरकार के पास आई हैं।मेरे कार्यकाल में लिखी गईं जिन पाठपुस्तकों के बारे में आपत्ति व्यक्त की जा रही है, उसके बारे में कभी किसी संप्रदाय ने, किसी मुस्लिम, ईसाई, सिख, यहूदी, जैन या बौद्ध संस्था ने कोई आपत्ति प्रकट नहीं की। जब मैं मंत्री था, मैंने कहा था कि यदि कोई इन पाठ पुस्तकों में संविधान या पंथनिरपेक्षता के विरुद्ध कुछ बताता है तो हम उसे सुधारेंगे, लेकिन कोई शिकायत नहीं आई। लेकिन अब नई सरकार ने बिना कारण बताए पाठपुस्तकों के पुनरीक्षण के लिए समिति गठित कर दी। कहा गया कि कमेटी पुस्तकों से सांप्रदायिकता दूर करेगी। प्रो. एस. सत्तार, प्रो.जे.एस. अग्रवाल और प्रो. वरुण डे को इस कमेटी में मनोनीत किया गया। इस कमेटी ने जो रिपोर्ट दी है, मैंने उसे पढ़ा है, उसमें ये लोग कहीं नहीं बता सके हैं कि पुस्तकों में सांप्रदायिकता कहां है, “भगवाकरण” कहां है, वह “विष” कहां है, जिसकी चर्चा जोरों पर है। रिपोर्ट में जो त्रुटियां बताई गई हैं, वे हास्यास्पद हैं। जैसे- “कबीर पर कम लिखा गया है, अकबर द्वारा दास व्यापार की समाप्ति का पुस्तक में वर्णन नहीं है।” रिपोर्ट में कुछ चीजें हटाने की सिफारिश की गई है जैसे- “चन्द्रगुप्त और चाणक्य ने राजनीतिक दृष्टि से भारत को एक सूत्र में बांधा,” धरती को माता कहने पर रिपोर्ट में आपत्ति है, “पुणे, महाराष्ट्र” पर आपत्ति है। “गंगा, यमुना, सरस्वती, सिन्धु और सतलुज” आदि नदियों को पवित्र लिखने पर आपत्ति है। “वैदिक काल में महिलाओं का स्थान ऊंचा था, कुछ को तो ऋषियों के समान दर्जा प्राप्त था,” इस पंक्ति पर आपत्ति की गई है। इस पर भी आपत्ति है कि प्राचीन भारत को पुस्तकों में ज्यादा स्थान दिया गया है। ऐसी आपत्तियां हैं। एक भी उदाहरण इस रिपोर्ट में ऐसा नहीं है जो इसमें भगवाकरण, सांप्रदायिक बातें बताता हो या किसी संस्कृति के विरुद्ध हो।वस्तुत: माक्र्सवादी विचार में देशभक्ति, राष्ट्रभक्ति आदि बातें मान्य नहीं हैं। अब यदि माक्र्स के विचारों को हम स्वीकार लें तो मुझे कुछ नहीं कहना है। यह स्पष्ट है सरकार कम्युनिस्टों के दबाव में है इसलिए माक्र्स ने भारत के इतिहास के बारे में जो लिखा है, उसे ही यहां पाठपुस्तकों का आधार बनाया जा रहा है। कार्ल माक्र्स ने लिखा है कि हिन्दुस्थान का कोई इतिहास नहीं है। अगर कोई इतिहास है तो वह पराजय का इतिहास है। माक्र्स एण्ड एंजिल्स, “दि फस्र्ट इण्डियन वार आफ इंडिपेन्डैंस 1857-1859” प्रोग्रेस पब्लिकेशन, मास्को में जो माक्र्स का लिखा हुआ छपा है, उसी में माक्र्स ने भारत विरोधी यह बातें कही हैं।मैं पूछता हूं कि क्या इस देश का इतिहास केवल 700 ई. से शुरू होता है, जब मोहम्मद बिन कासिम का आक्रमण हुआ था? वस्तुत: हमारा इतिहास पांच हजार, छह हजार ई.पू. से भी प्राचीन है। किन्तु इस बात पर आपत्ति है कि प्राचीन भारत का बखान क्यों, इस पर ज्यादा सामग्री क्यों? मध्यकालीन भारत पर ज्यादा सामग्री क्यों नहीं? मंत्री जी, आप इस देश की शिक्षा के साथ क्या करना चाहते हैं? क्यों देश की शिक्षा को बर्बाद करने पर तुले हैं? आप मध्यकाल का, अंग्रेजों के जमाने का इतिहास पढ़ाना चाहते हैं लेकिन “सोने की चिड़िया” रहे भारत का इतिहास क्यों नहीं पढ़ाना चाहते? आपको इसमें विष नजर आता है, भगवाकरण की गंध आती है। और जो पुरानी पुस्तकें थीं जिन्हें आप फिर से पढ़ाएंगे, क्या बातें हैं उन पुस्तकों में? गुरू तेग बहादुर के बारे में उल्टा-सीधा बताने वाला फारसी स्रोत कौन सा है जिसके आधार पर उन्हें लूटपाट के आरोप में गिरफ्तार करने व सजा देने की बात पुरानी पुस्तकों में लिखी गई है? क्या जैन पंथ की स्थापना महावीर स्वामी ने की थी, तो स्वामी पाश्र्वनाथ कौन थे? क्या भगवान महावीर के पहले के तेईसों तीर्थंकर काल्पनिक थे? आप बच्चों को यह क्या पढ़ा रहे हैं? जाटों को इन पुस्तकों में लुटेरा बताया गया है। लिखा है कि सूरजमल जाट भरतपुर में लूटमार करते थे और सारे देश में त्राहि-त्राहि मची थी।फिर लिखा गया है कि प्राचीन भारत में गोमांस खाया जाता था। मैंने पूछा था कि कहां से लिया है यह, किन पुस्तकों में इसका स्रोत है तो कहा गया वेदों में है। चारों वेद रखकर हमने चुनौती दी कि बताओ कहां लिखा है? जो संस्कृत जानते नहीं, उनसे वेद की व्याख्या हो पाएगी भला? कोई उत्तर मुझे नहीं मिला। फिर लिखा गया है कि प्राचीन भारत में गोमांस खाया जाता था किन्तु सुअर का मांस नहीं? इसे लिखकर क्या साबित करना चाहते हैं आप? यह बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा है, देश के भविष्य, देश के पूरे उत्थान और पतन से संबंधित है यह प्रश्न। भक्ति आंदोलन क्या सामंतशाही की देन है? आर.एस. शर्मा की प्राचीन भारत नामक पुस्तक में भक्ति आंदोलन को सामंतवाद की देन कहा गया है। क्या कबीर सामंतवादी समाज के प्रतिनिधि थे, क्या गुरू नानक सामंतवादी समाज में पैदा हुए? तुलसीदास, रामानुज, सूरदास क्या सामंतों की देन हैं? मैं बताना चाहता हूं कि भारत माक्र्सवादी अवधारणा से न पहले कभी चला था, न आज चल रहा है और न आगे कभी चलेगा। माक्र्स की दृष्टि से लेखन बंद करिए। भारत का इतिहास भारत की दृष्टि से लिखा जाना चाहिए।रिपोर्ट में कहा गया है कि हिन्दुत्व की एक अन्तर्धारा इन पुस्तकों में बह रही है। क्या है हिन्दुत्व? भारत की महान सांस्कृतिक धरोहर है हिन्दुत्व। इस देश की मूल जीवन धारा है, सर्वोच्च न्यायालय ने इसे “वे आफ लाइफ” कहा है, पं. नेहरू ने भी अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में सन 1942 के दीक्षांत समारोह में भाषण देते वक्त भारत की महान संस्कृति पर गर्व व्यक्त किया है, आप इस हिन्दुत्व को भले ही भारतीयता, इण्डियननेस कहिए, यही धारा इस देश के नौजवानों के खून में प्रवाहित होनी चाहिए। पुस्तकों के भगवाकरण की बातें कही जा रही हैं। 2 अप्रैल, 1931 को कराची में कांग्रेस कमेटी की बैठक की रपट मैं यहां प्रस्तुत करता हूं। देश के झण्डे का रंग कैसा हो, इस पर यह रपट है। सरदार पटेल, मौलाना आजाद आदि अनेक नेता इस झण्डा कमेटी में शामिल थे। रपट में कहा गया है कि वैदिक काल से केसरिया इस देश का प्रतीक है। इस केसरिया, भगवा को ही आप कहते हैं टाक्सीफिकेशन। आप “भगवा विष” कहते हैं। क्या आप तिरंगे झंडे से भगवा हटाने की हिम्मत रखते हैं?आप पाठक्रमों को सुधारने में प्रक्रिया अपनाने की बात कह रहे हैं। प्रक्रिया कहती है कि हर पांच साल में विचार होना चाहिए। क्यों नहीं हुआ 1986 से 1997 तक विचार? 1986 की राजीव गांधी सरकार की शिक्षा नीति के अनुसार ही हमने सुधार किए थे। हमने पाठक्रम पुनरीक्षण शुरू किया तो हमें पुस्तकें बनाने में तीन साल लगे। एक साल में हमने इसे नहीं किया और आपने आदेश निकाल दिया कि साल भर के भीतर सारी पुस्तकें बदल डालो। विपिन चंद्र, सतीश चंद्र, वरुण डे, और जितने ये पश्चिम बंगाल के माक्र्सवादी लेखक हैं उन सबको फिर से लाने का फरमान जारी कर दिया। लेकिन मैं कांग्रेस को, देश को सावधान करना चाहता हूं कि माक्र्सवादी पार्टी, ये कम्युनिस्ट विचारक-लेखक ये सभी विष कन्याएं हैं, ये जिसका आलिंगन करेंगे, उसकी जान निकाल कर रख देंगे। आप अपने साथ जो चाहे करें पर भगवान के लिए, देश के भविष्य के वास्ते शिक्षा से खिलवाड़ मत कीजिए। भारत की महानता को खंडित मत कीजिए।28
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