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-डा. महीप सिंह
कुछ वर्ष पहले राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् (एन.सी.ई.आर.टी.) द्वारा प्रकाशित और अपने आपको इतिहासकार मानने वाले सतीश चन्द्र की लिखी पुस्तक मध्यकालीन भारत को लेकर बहुत विवाद उत्पन्न हो गया था। उस पुस्तक में इतिहास के नाम पर ऐसी ऊल-जलूल और विकृत बातें लिखी हुई थीं जिन्हें विद्यार्थियों को पढ़ाना केवल गंभीर अपराध ही नहीं था, बल्कि अनेक पीढ़ियों को मानसिक दृष्टि से भ्रष्ट कर देना था। उस पुस्तक में अनेक आपत्तिजनक बातें थीं किन्तु गुरु तेगबहादुर और गुरु गोविन्द सिंह को लेकर अत्यन्त द्वेषपूर्ण बातें लिखी गई थीं। हिन्दी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित एक पुस्तक “उत्तर मुगल कालीन भारत” मेरे देखने में आई। इसके लेखक भी प्रो. सतीश चन्द्र हैं। पता नहीं क्यों सतीश चन्द्र जैसे लोगों ने अपने देश के इतिहास के स्वर्णिम और प्रेरक पृष्ठों पर कालिख पोतने का कार्य प्रारंभ कर दिया है?
सतीश चन्द्र की भाषा देखिए : “औरंगजेब द्वारा गुरु तेगबहादुर का वध किया गया। गुरु गोविन्द सिंह के दो पुत्रों की हत्या का दोष औरंगजेब पर नहीं स्थानीय अधिकारियों के सिर पर है…। 1705 में औरंगजेब ने गुरु को माफ कर दिया और उसे अपने पास दक्षिण बुलाया। ऐसा विचार है कि गुरु चाहता था कि औरंगजेब उसे आनन्दपुर वापस दिलवा दें।” अत्यन्त अशिष्ट भाषा लिखने के अतिरिक्त लेखक ने जो कुछ भी लिखा है वह पूरी तरह इतिहास विरुद्ध व भ्रामक है। यदि सतीश चन्द्र ने गुरु गोविन्द सिंह का फारसी भाषा में लिखा वह पत्र (जफरनामा) पढ़ा होता जो उन्होंने पंजाब से औरंगजेब को लिखा था तो उन्हें गुरु गोविन्द सिंह का चरित्र समझने में ऐसी भूल नहीं हुई होती। जफरनामा में कुल 111 शेर हैं। 46वें शेर में गुरु गोविन्द सिंह ने औरंगजेब को ताड़ना देते हुए लिखा था : “न तुम में इमामपरस्ती है, न कोई उचित ढंग है। तुमने न साहब को पहचाना है, न तुम्हें मुहम्मद पर विश्वास है।” औरंगजेब को ऐसा कठोर पत्र लिखने वाले गुरु गोविन्द सिंह ने क्या उससे क्षमा की याचना की थी और उसने उन्हें माफ कर दिया था? वह लिखते हैं कि गुरु के दो पुत्रों की हत्या का दोष औरंगजेब पर नहीं, स्थानीय, अधिकारियों के सिर पर है, किन्तु गुरु तेगबहादुर की हत्या (लेखक ने वध शब्द का प्रयोग किया है) का दोष किसके सिर पर है? उन्हें तो औरंगजेब की आज्ञा से बंदी बनाया गया था और दिल्ली के चांदनी चौक में शहीद किया गया था।
अपने आपको प्रगतिशील और पंथनिरपेक्ष सिद्ध करने की उतावले कुछ इतिहासकारों द्वारा कुछ मुगल बादशाहों द्वारा बलात धर्म परिवर्तन, मंदिरों के भंजन और विधर्मियों की नृशंस हत्याओं की घटनाओं पर बहुत लीपा पोती की जा रही है और उसे किसी न किसी प्रकार न्यायोचित ठहराने का प्रयास हो रहा है। उदाहरण के लिए पांचवे गुरु अर्जुन देव की शहादत है। दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालयों की एक पुस्तक है मध्यकालीन भारत। इसका संपादन प्रो. हरिश्चन्द्र वर्मा ने किया है। इस पुस्तक में उस काल के विभिन्न पक्षों पर इतिहासकारों के लेख संकलित हैं। मुगल बादशाह जहांगीर पर स्वयं हरिश्चन्द्र वर्मा का लेख है। लेखक ने अपने लेख में यह भरपूर प्रयास किया है कि जहांगीर को धार्मिक उदारता में उसके पिता अकबर से दो कदम आगे सिद्ध किया जाए। उन्होंने पृष्ठ 137 लिखा है : “अपने पिता की ही तरह जहांगीर ने भी गैर-मुस्लिम संप्रदाय के लोगों को सार्वजनिक पूजा-गृहों के निर्माण की छूट दी। उसके शासनकाल के अंतिम वर्षों में अकेले वाराणसी में ही 70 से अधिक मन्दिरों का निर्माण हुआ।
गुरु अर्जुन देव की शहादत के संदर्भ में प्रो. हरिश्चन्द्र का मत अत्यन्त हास्यास्पद है। वे लिखते है : “जहांगीर और सिखों के सम्बंध को लेकर अनेक प्रकार की विवादास्पद और कटु बातें कहीं गई हैं। सिखों के तत्कालीन धर्मगुरु अर्जुन देव से जहांगीर नाराज हो गया। नाराजगी का कारण गुरु द्वारा चलाया जा रहा धर्मान्तरण शुद्धि आंदोलन था। ऐसा माना जाता है कि कुछ मुसलमानों ने इस्लाम धर्म को छोड़कर उसे अपना धर्म गुरु स्वीकार कर लिया। जहांगीर का कहना है कि ऐसी स्थिति में उसके सामने दो ही रास्ते थे या तो वह बलपूर्वक गुरु को मुसलमान बना लेता या फिर गुरु की “धार्मिक दुकानदारी” बंद कर देता। वह इन दोनों विकल्पों पर विचार कर ही रहा था कि भाग्य से उसे एक बहाना हाथ लग गया। जब खुसरो ने बगावत कर दी तो वह गुरु से मिला। राजद्रोह के काम में समर्थन देने के लिए गुरु अर्जुन देव को मौत की सजा सुनाई गई। गुरु को जेल से छुड़वाने का हर प्रयत्न विफल हुआ और उनकी कारागार में ही मृत्यु हो गई।”
एक अन्य इतिहासकार श्री रामशरण शर्मा का मत है कि गुरु तेग बहादुर को सजा देने के पीछे जहांगीर का कोई मजहबी उद्देश्य नहीं था। जहांगीर के मन की बात और गुरु अर्जुन देव से उसकी नाराजगी आदि की जो बातें इस इतिहासकार ने लिखी हैं उनका आधार अथवा स्रोत क्या है, इसका कोई उल्लेख उसने नहीं किया। चूंकि इस सम्बंध में जहांगीर ने स्वयं स्रोत प्रदान किया है इसलिए उसकी कही बात की अनदेखी करके, उसके नाम से अटकलें लगाना और मनगढ़ंत बातें करना किस प्रकार का इतिहास है? जहांगीर ने फारसी में अपनी आत्मकथा तुजक-ए-जहांगीर लिखी थी। इसका अंग्रेजी अनुवाद सर्वसुलभ है। “जहांगीरीनामा” नाम से एक हिन्दी अनुवाद मेरे सामने है, जिसका अनुवाद ब्राजरत्न दास ने किया है। यह नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी द्वारा प्रकाशित है। इस पुस्तक के पृष्ठ 121 पर जहांगीर ने लिखा है : “गोविन्दवाल में, जो व्यास नदी के तट पर स्थित है, अर्जुन नामक एक हिन्दू रहता था जिसने पवित्रता तथा सिधाई का वस्त्र पहन रखा था। यहां तक की सरल ह्मदय हिन्दुओं तथा मूर्ख अशिक्षित मुसलमानों को भी उसने अपनी चाल तथा व्यवहार से आकर्षित कर लिया था और उन्होंने उसकी सिधाई का ढिंढोरा पीट रखा था। कई बार हमारा विचार हुआ कि इस व्यर्थ काम को रोक दें या उसे मुसलमान बना लें। अंत में जब खुसरो इस मार्ग से गया तब उसने खुसरो के साथ विशिष्ट व्यवहार किया था उसके माथे पर केसर का अंगुलि-चिन्ह् लगाया, जिसे हिन्दू लोग टीका कहते हैं और शुभ समझते हैं। जब हमने यह वृतांत सुना और उसकी मूर्खता समझी तब हमने उसे सामने उपस्थित होने की आज्ञा दी और उसके गृह, निवास स्थान तथा संतान को मुर्तजा खां को सौंप दिया। उसकी कुल संपत्ति जब्त करके उसको मार डालने का आदेश दे दिया।” क्या जहांगीर का ये आत्मकथ्य वैसा ही है, जैसा हरिश्चन्द्र वर्मा समझते हैं? क्या इस आत्मकथ्य से ये प्रकट होता है कि गुरु अर्जुन देव से जहांगीर की नाराजगी का कारण यह था कि गुरु ने मतान्तरण शुद्धि आंदोलन चला रखा था जिसके परिणामस्वरूप कुछ मुसलमानों ने इस्लामी मजहब छोड़ दिया था? सिख इतिहास में ऐसा एक भी उदाहरण नहीं है जब किसी मुसलमान का मतान्तरण किया गया हो।
हरिश्चन्द्र वर्मा ने श्री रामशरण शर्मा को उद्धृत करते हुए लिखा है कि गुरु को सजा देने के पीछे जहांगीर का कोई मजहबी उद्देश्य नहीं था? वे लिखते हैं, गुरु अर्जुन की कारागार में ही मृत्यु हो गई। शायद वह इस तथ्य से मुंह मोड़ना चाहते हैं कि उन्हें कठोरतम यातनाएं दी गई थीं और उन्होंने ईश्वरेच्छा मानकर उन्हें स्वीकार कर लिया था। आखिर इतिहास को इस प्रकार क्यों विकृत किया जा रहा है?
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