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नरेश शांडिल्यपांच गांव भी जो हमें, दे ना पाए पार्थ।उनकी खातिर यह ह्मदय, क्यों करता है आर्त।।कृपाचार्य धृतराष्ट्र वो, भीष्म द्रोण वो कर्ण।क्या तुझको दिखता नहीं, एक सभी का वर्ण।।ये वो दु:शासन खड़ा, दुर्योधन के साथ।पांचाली के चीर पर, रेंगे जिसके हाथ।।वो पासों का फर्श था, यह रण का मैदान।वहां भाग्य भगवान था, यहां कर्म भगवान।।अर्जुन! भूल “वृहन्नला”, तू नायक है आज।तू ही कल का केसरी, तू ही कल का ताज।।तेरे जैसे पुरुष का, झुका हुआ यह भाल।उन्नायक संघर्ष के, उठ गांडीव संभाल।।तुझे मारने खड़े जो, उनसे ऐसी प्रीत।किस ऋतु में गाने लगा, तू किस ऋतु का गीत।।जो तू ही ना रहा तो, रिश्ते नाते व्यर्थ।तुझसे ही हर शब्द है, तुझसे ही हर अर्थ।।मैं जब तेरा सारथी, क्या चिन्ता की बात।मैं झेलूंगा वक्ष पर, हर पहला आघात।।जीता तो तेरी धरा, हारा तो आकाश।शंख फूंक अब युद्ध का, काट भरम का पाश।।21
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