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मुस्लिम महिलाओं का हित
मुजफ्फर हुसैन
इन दिनों देश के सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में विवाह पंजीकरण पर गरमा-गरम बहस चल रही है। यदि सरकार उच्चतम न्यायालय के निर्देश का पालन करके इसे सख्ती के साथ लागू करे तो भारतीय महिलाओं के लिए यह वरदान साबित हो सकता है। भारत में महिला सुरक्षा अभी खामियों से भरी है। महिलाओं को न तो न्याय मिलता है और न ही सामाजिक सुरक्षा। इस दिशा में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिशा-निर्देश जारी करने के साथ ही राष्ट्रीय महिला आयोग ने केन्द्र सरकार के पास इसके लिए एक विधेयक का प्रारूप भेज दिया है, जो सभी भारतीय नागरिकों पर लागू होगा। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय को भेजे गए इस विवाह पंजीयन अनिवार्य अधिनियम-2005 विधेयक के अनुसार विवाह के 30 दिन के भीतर उसका पंजीकरण करना अनिवार्य है, चाहे वह विवाहित किसी भी धर्म और जाति का हो। यदि यह प्रस्तावित विधेयक पारित हो गया तो इसके दायरे में विवाह तथा पुनर्विवाह शामिल होंगे। विवाह के दोनों पक्षों को विवाह का एक ज्ञापन तैयार कर उस पर हस्ताक्षर करने होंगे और उसे स्थानीय विवाह पंजीयक के समक्ष पेश करना होगा। इन लोगों को जो प्रमाणपत्र जारी किया जाएगा वह विवाह का सबूत होगा।
वस्तुत: अपने देश में जन्म, मृत्यु और विवाह के पंजीयन की व्यवस्था बहुत पहले से है। लेकिन इसके परिणाम आशाजनक नहीं हैं। पूर्ववर्ती राजग सरकार के गृह मंत्री श्री लालकृष्ण आडवाणी ने प्रदेशों और केन्द्र के पंजीयन अधिकारियों की एक बैठक नई दिल्ली में बुलाई थी। उक्त बैठक में जो आंकड़े दर्शाए गए वे संतोषजनक नहीं थे। बहुत कम विवाहित इस पंजीकरण को अपनी जिम्मेदारी समझते हैं। जन्म का पंजीकरण तो इसलिए अनिवार्य हो जाता है क्योंकि बालक की जन्मतिथि का प्रमाण पत्र लेना अनिवार्य होता है। विद्यालय में प्रवेश और नौकरी आदि में इसकी आवश्यकता पड़ती है, इसलिए लोग मजबूर होकर यह काम करते हैं। मृत्यु का पंजीकरण भी कब्रिस्तान और श्मशानघाट में जानकारी देते ही हो जाता है, हालांकि छोटे नगरों और विशेषत: ग्रामीण जनता में इसके प्रति उदासीनता है। लेकिन विवाह के पंजीकरण में सबसे अधिक लापरवाही बरती जाती है। विवाह का पंजीकरण नहीं होने से जीवन में अनेक कठिनाइयां पैदा होती हैं। इस मामले में सबसे बड़ा नुकसान महिलाओं को उठाना पड़ता है। पंजीयन का कानून अब तक राज्य सरकार के अन्तर्गत है और यह संविधान की समवर्ती सूची में है। लेकिन अब इसे प्रभावी बनाने के लिए महिला आयोग ने केन्द्र सरकार से गुहार लगाई है। फिलहाल महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश में ही विवाह के पंजीयन को अनिवार्य बनाने के लिए कानून है। केरल में भी विवाह को पंजीकृत कराने की व्यवस्था है लेकिन इस मामले में मुस्लिमों को छूट है। उन पर पंजीयन अनिवार्य न होकर ऐच्छिक है। इसका परिणाम यह होता है कि मुसलमान इसे सरकारी छूट समझ कर इसका पूरा लाभ उठाते हैं। सख्ती न करने के कारण यह भी बात लोगों के मन में आ गई है कि सम्भवत: विवाह का पंजीयन गैरइस्लामी है।
सामान्यत: मुसलमानों का यह मानना है कि निकाह उनका निजी मामला है इसलिए इस पर पर्सनल ला लागू होना चाहिए। मुस्लिम पर्सनल ला में पंजीकरण का कोई प्रावधान नहीं है इसलिए निकाह को पंजीकृत करना उनके लिए निरर्थक है। यह भ्रांति मुस्लिम महिलाओं के लिए अत्यंत कष्टदायी है। इसीलिए इस बार महिला आयोग ने अपने प्रारूप में इस बात का उल्लेख किया है कि विवाह का पंजीयन हर जाति और धर्म के लोगों पर समान रूप से लागू होगा। यदि विवाह का पंजीयन नहीं होगा तो विवाह को अवैध भी घोषित किया जा सकेगा, क्योंकि तब तक उस युगल के विवाह को सरकारी तौर पर मान्यता प्रदान नहीं मानी जाएगी।
अब एक नजर इस पर डालने की आवश्यकता है कि विवाह पंजीकरण से महिलाओं को क्या लाभ मिलने वाला है। हिन्दू महिला के पास कोई भी सबूत नहीं होता है कि उसका विवाह अमुक व्यक्ति के साथ हुआ है। हिन्दू विवाह उस समय पूर्ण मान लिया जाता है जब होने वाले पति-पत्नी के सात फेरे हो जाते हैं। लेकिन इसका कोई रिकार्ड नहीं होता है। पति इनकार कर सकता है कि अमुक महिला के साथ मेरा विवाह हुआ है। इसलिए पति बड़ी सरलता से दूसरा विवाह कर सकता है और पहली वाली पत्नी को अपनी सम्पत्ति के अधिकार से वंचित कर सकता है। पंजीयन अपने आप में एक सरकारी रिकार्ड होगा जिसके कारण कोई भी अपने विवाह को झुठला नहीं सकेगा। यद्यपि कोई भी विवाह इस आधार पर नहीं झुठलाया जा सकता कि वह कानून के अनुसार पंजीकृत नहीं है।
विवाह का पंजीयन अनिवार्य करने के लिए एक कानून बनाने का प्रस्ताव केन्द्र सरकार के समक्ष पिछले 15 साल से अधिक समय से विचाराधीन है। विवाह के पंजीकरण से बाल विवाह पर रोक भी लग जाएगी, क्योंकि संविधान में विवाह के लिए निश्चित की गई आयु से पूर्व विवाह होता है तो उसका पंजीयन असम्भव हो जाएगा।
मुस्लिम निकाह में एक प्रपत्र भरना अनिवार्य होता है, इसलिए यह तो नहीं कहा जा सकता कि दोनों का विवाह नहीं हुआ है। लेकिन विवाह के पश्चात जो दायित्व पुरुष के कंधों पर आता है, पुरुष उसे स्वीकार करने में आनाकानी करता है। इस्लाम चार निकाह की आज्ञा देता है, लेकिन अधिकांश पुरुष अपना दूसरा निकाह पहली पत्नी से छिपाकर करते हैं। निकाह पंजीयन हो जाने से यह बात स्पष्ट हो जाएगी कि उसने दूसरा निकाह किया है या नहीं। इससे यह भी पता लग जाएगा कि देश में बहु-विवाह करने वालों का प्रतिशत क्या है। मुस्लिम कानून में तलाक बहुत सरलता से हो जाता है। निकाह के पंजीयन के पश्चात तलाक देते समय निकाह पंजीयक अथवा उसके समकक्ष अधिकारी से पति को पूछना अनिवार्य हो जाएगा। यह अंकुश आ जाने से तलाक का प्रतिशत घटेगा और मुस्लिम महिला को राहत मिलेगी। तलाक के समय पति अपनी पहली पत्नी को मेहर लौटाने में बेईमानी करता है। तलाक कराने वाले मुल्ला-मौलवी भी उस धन राशि में हेराफेरी कर देते हैं। विवाह के पंजीयन के पश्चात ये सारे दस्तावेज निकाह पंजीयक के कार्यालय में रहेंगे, उसमें किसी भी प्रकार के संशोधन की कोई गुंजाइश नहीं रहेगी। दूसरा निकाह कर लेने के पश्चात् इद्दत की अवधि (तीन माह दस दिन) के लिए तलाकशुदा पत्नी एवं उसके बालकों को दिये जाने वाले खर्च के मामले में भी महिला का पक्ष मजबूत होगा। यदि ये सारे अंकुश लगते हैं तो मुस्लिम समाज इसे समान नागरिक कानून की परिभाषा देगा, जिसका विरोध वह लम्बे समय से कर रहा है। न्यायालय के निर्देशों पर सरकार कानून बनाती है तो निश्चित ही महिलाओं की सुरक्षा के लिए यह ठोस व्यवस्था होगी। शाहबानो के समय जो भूल हुई थी, उसे सुधारने का यह सुनहरा अवसर होगा।
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