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संगीत की दिव्य आभा का तिरोधान21 मार्च, 1916 – 21 अगस्त, 2006काशी के गंगा घाट पर भोर की वेला में शहनाई के सुर बिखेरती जानी पहचानी आकृति मानो विश्वनाथ की नगरी की एक पहचान ही बन गई थी। बेनिया बाग की सुहाग गली के उस आखिरी तिमंजिले मकान में रहने वाले अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खान सूरज उगने से पहले ही गंगा तट की सीढ़ियों पर बैठकर रियाज करते थे। बहुत छोटी उम्र से वृद्धावस्था में काया जर्जर होने तक यह सिलसिला जारी था। काशी छोड़कर कहीं गए ही नहीं, जाने की कभी लालसा भी नहीं हुई। और आखिरी घड़ी भी काशी में ही…। 21 अगस्त की बहुत भोर में ही करीब 2.20 बजे शहनाई के उस्ताद की हृदय गति रुक गई। कहते हैं उनको अपने जाने का पूर्व आभास हो गया था इसलिए अंतिम सांस लेने से कुछ घंटे पहले ही उन्होंने अपने पुत्र व शिष्य नैयर हुसैन को राग अहीर भैरवी की बारीकियां इस तरह समझाईं थीं मानो गुरु मंत्र दे रहे थे। 21 मार्च, 1916 को बिहार में भोजपुर के डुमरांव में पिता पैगंबर बख्श व माता मिट्ठन के पुत्र के रूप में जन्मे बिस्मिल्लाह खान का बचपन में नाम था कमरुद्दीन। डुमरांव के रजवाड़ों में शहनाई बजाना खानदानी पेशा था सो शहनाई की तान सुनते हुए होश संभाला। अभी बिस्मिल्लाह 4 साल के थे कि माता का इंतकाल हो गया। वे अपने मामा अल्लाह बख्श के साथ काशी आ गए और उसके बाद कहीं नहीं गए। मामा अल्लाह बख्श विश्वनाथ मंदिर में शहनाई बजाया करते थे, सो बाबा विश्वनाथ और गंगा बिस्मिल्लाह खान की शहनाई के माध्यम से भक्ति का केन्द्र बन गए। निर्मल गंगा धार के सामने घंटों की सुर साधना में बिस्मिल्लाह ने ठुमरी, कजरी और चैती को शहनाई के स्वरों में साधा। वे कहा करते थे कि गायक जिस अंदाज में ठुमरी या चैती प्रस्तुत करता है उसे शहनाई के स्वरों के जरिए साधने का एक अलग ही आनंद है। धीरे-धीरे बिस्मिल्लाह खान की ख्याति फैलने लगी। देश की संगीत परिषदों से आमंत्रण आने लगे तो विदेशों में भी उनके कार्यक्रम आयोजित हुए। 15 अगस्त, 1947 को आजादी के दिन लालकिले पर उनका शहनाई वादन अविस्मरणीय है। तब से लगातार हर स्वतंत्रता दिवस पर उस्ताद बिस्मिल्लाह खान का शहनाई वादन किसी समारोह या दूरदर्शन के “सीधा प्रसारण” से पूर्व अवश्य सुनाई देता रहा। एक अलौकिक अनुभूति लोग महसूस करते। उस्ताद बिस्मिल्लाह खान अपनी कला में ऐसे शीर्ष पर पहुंचे थे जहां सम्मान उनके हाथों का स्पर्श पाकर सम्मानित होते थे। और भारत के शायद ही ऐसा कोई शीर्ष सम्मान होगा जो उनको न अर्पित किया गया हो। 11 अप्रैल, 1956 को राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने हिन्दुस्तानी संगीत सम्मान अर्पित किया, राष्ट्रपति के ही हाथों 27 अप्रैल, 1961 को पद्मश्री से सम्मानित किया गया। 16 अप्रैल, 1968 को पद्म भूषण, 22 मई, 1980 को पद्म विभूषण के बाद 4 मई 2001 को तत्कालीन राष्ट्रपति के. आर. नारायणन ने उस्ताद बिस्मिल्लाह खान को भारत के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया। सुहाग गली के उस तिमंजिला मकान की बैठक में करीने से सजे ये सम्मान और शीशे में मढ़े हुए प्रशस्ति पत्र उस्ताद बिस्मिल्लाह खान के व्यक्तित्व के बारे में बहुत कुछ कहते हैं, परन्तु उनकी सादगी और सज्जनता ऐसी रही कि व्यवहार में रत्तीभर भी अहंकार नहीं झलकता था। कहने वाले भले कहते हों कि उनके विस्तृत परिवार ने उनकी ख्याति का बहुत लाभ उठाया पर खुद बिस्मिल्लाह खान अंत तक उसी साधारण से कमरे में, एक अतिसाधारण गद्दा, चादर बिछी खाट पर लेटते थे और वही सूती कुर्ता-पाजामा उनकी पहचान थी। ज्यादा तामझाम उन्हें शुरू से ही पसंद नहीं था। शायद इसीलिए गहन बीमारी में किसी बड़े अस्पताल में न जाने की जिद सी ठानी हुई थी। सरकारी मदद पहुंचती, नम्रता से स्वीकारते …और बस। दिल्ली में इंडिया गेट पर शहनाई वादन की उनकी इच्छा अंत तक बनी रही थी। केन्द्र सरकार ने उनको आमंत्रित भी किया, पर काया इतनी कमजोर हो चुकी थी कि ऐसा संभव ही नहीं हो पाया। अफगानिस्तान, यूरोप, ईरान, इराक, कनाडा, पश्चिम अफ्रीका, अमरीका, सोवियत रूस, जापान, हांगकांग आदि देशों में शहनाई का जादू बिखेरने वाले बिस्मिल्लाह खान ने “गूंज उठी शहनाई” और एक कन्नड़ फिल्म “सनाढि अप्पण्णा” के लिए संगीत भी दिया। उस्ताद बिस्मिल्लाह खान एक अर्से से बीमार तो थे, पर अचानक एक दिन उनके विदा हो जाने की खबर सुनाई देगी, यह नहीं लगता था। देश के सर्वोच्च राजनीतिक नेताओं से लेकर आम नागरिक तक उस्ताद के इंतकाल पर दु:खी दिखा। राष्ट्रपति डा. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम, प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह, पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी सहित वरिष्ठ राजनेताओं ने उनको श्रद्धांजलि अर्पित कर कहा है कि वे भारतीय शास्त्रीय संगीत के एक महानायक थे। उनकी मृत्यु देश के लिए एक बड़ी हानि है। संसद में सभी सांसदों ने दो मिनट का मौन रखकर उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की स्मृति को नमन किया। 22 अगस्त को उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की पार्थिव देह को बनारस के फातमान कब्रिस्तान में खुपुर्दे खाक किया गया। …और शहनाई का यह अनूठा सुर सदा के लिए शांत हो गया। प्रतिनिधि31
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