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रूबैया अपहरण से वाराणसी विस्फोट तक
सम्भलो, अब भी समय है जगमोहन
पूर्व केंद्रीय मंत्री
1990-91 में प्रकाशित हुई मेरी पुस्तक “माई फ्रोजन टरब्युलेंस इन काश्मीर” की शुरुआत में ये पंक्तियां थीं-“यह पहले भी घट चुका है, यह अब भी घट रहा है और यह आगे भी घटेगा।” ऐसा लिखने का एक कारण था। मैं इस नतीजे पर पहुंचा था कि भारत में ऐसी राजनीतिक और प्रशासनिक प्रवृत्ति बन गई है जो आतंकवाद को खत्म नहीं करती बल्कि उसे शह देती है। सत्ता अधिष्ठान बहुत नरम पड़ गया है और इसके संस्थान बेजान। इसके लोकतांत्रिक स्वरूप में विघटन और भ्रष्टाचार गहरे समा चुके हैं। व्यक्तिगत और राजनीतिक सत्ता के निहित स्वार्थ हावी हो चुके हैं। ऐसे माहौल में इस बात में जरा भी संदेह नहीं कि आतंकवादी घटनाएं जारी रहेंगी, चाहे वे दिसंबर 1989 में श्रीनगर में पूर्व केंद्रीय गृहमंत्री की बेटी डा. रूबैया सईद के अपहरण के रूप में हों या भारत की प्रशासनिक राजधानी दिल्ली में बम विस्फोटों के रूप में, आर्थिक राजधानी मुंबई में या प्रोद्यौगिकी राजधानी बंगलौर में। इसी बात की पुष्टि 7 मार्च को वाराणसी, जो देश की सांस्कृतिक राजधानी है, में आतंकवादी हमलों में हुई।
इतिहास के चश्मे से बीते हुए कल को देख चुकने के बाद यह तय था कि अगर हम इसी तरह सत्ता की कुंजी थामने वालों के दिमाग और गतिविधियों को संचालित कर रहीं नकारात्मक ताकतों की ओर से आंखें मूंदे रहे तो ऐसी त्रासद घटनाओं से कोई बच नहीं सकता।
भारत में आतंकवादी घटनाओं से उपजी परिस्थिति की हम चीन के थ्येनआनमन चौराहे पर “लोकतंत्र समर्थक आंदोलन” से तुलना करें। एकबारगी तो चीनियों को लगने लगा था कि वहां जो कुछ घट रहा था कहीं वह देश को अस्थिर न कर दे, जनता में बड़े पैमाने पर अफरा-तफरी न मचा दे और देश के संसाधनों को विकास की बजाय आंतरिक संघर्षों की ओर न मोड़ दे, जिसे बाहरी ताकतें भी हवा देने लगें। लेकिन मजबूत इरादों के साथ मानवाधिकारियों और बंद कमरे में बहस करने वाले बुद्धिजीवियों की बयानबाजियों को अनदेखा करके उसने कार्रवाई की। कुछ ही दिन में चीन संकटों से उबर गया। आज यह देश शांति और ताकत दोनों के साथ आर्थिक प्रगति की राह पर है। जबकि दूसरी ओर भारत न केवल खूनी आतंकवाद में उलझा है अपितु इसके भीतरी और बाहरी दुष्परिणामों को भी भुगत रहा है। सत्ता और इसके प्रशासनिक तंत्र द्वारा चुनौती का डटकर सामना न कर पाने और एक शक्तिशाली, प्रखर केंद्रित नीति न अपनाने के कारण देश को भारी कीमत चुकानी पड़ी है।
मेरे कहने का अर्थ यह नहीं है कि हम चीनियों का तरीका अपनाएं बल्कि मैं कहना चाह रहा हूं कि समस्या से निपटने के लिए हमें इरादों की स्पष्टता चाहिए और अपने प्रयासों में ढिलाई नहीं आने देनी चाहिए। राष्ट्रीय एकता और स्थायित्व बनाए रखने को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए। अगर हम थ्येनआनमन चौक पर आंदोलन में मरने वालों की दर्ज संख्या 1000-5000 को मान भी लें तो भारत में आतंकवाद में 1980 से अब तक लगभग एक लाख हत्याओं से उसकी तुलना नहीं की जा सकती।
पिछले 5 दशकों से भारत में किसी न किसी रूप में आतंकवाद रहा है। स्वतंत्रता के तुरंत बाद तेलंगाना जल उठा था, उत्तर पूर्व में अलगाववाद ने अपने खूनी पंजे फैलाने शुरू कर दिए थे, प. बंगाल और बिहार में नक्सलवादी हिंसा शुरू हुई। “60 के उत्तराद्र्ध में इन दो राज्यों में बंदूक की गोली के जरिए सत्ता पाने वालों के आतंक के बादल घुमड़ते रहे। असम, पंजाब और कश्मीर ने लंबे समय तक आतंकवाद का वीभत्स दंश झेला। हमारे दो प्रधानमंत्री, एक मुख्यमंत्री और एक पूर्व थलसेना अध्यक्ष इसकी गोलियों और बमों का शिकार बने। यहां तक कि सरकार से इतर नेताओं, जैसे हरचंद सिंह लोंगोवाल तक को नहीं छोड़ा गया। कश्मीर में 44,000 लोग आतंकवाद की बलि चढ़ चुके हैं। कश्मीरी पंडितों के प्रमुख नेताओं को दिनदहाड़े गोलियां मार दी गर्इं। ऐसा आतंक का माहौल बनाया कि पूरे पंडित समाज को घाटी छोड़नी पड़ी। शेख नुरुद्दीन नूरानी की 550 साल पुरानी दरगाह चरार-ए-शरीफ तक को जला दिया गया। कश्मीर विधानसभा और भारतीय संसद पर हमला किया गया। इस बीच देश का 40 प्रतिशत क्षेत्र, जिसके अंतर्गत 13 राज्यों के 200 जिले हैं, नक्सली आतंक की चपेट में आ गया। सन् 2005 में आतंकवाद के इस स्वरूप ने 892 लोगों की जान ली।
देश के एक बड़े हिस्से में ऐसे वीभत्स आतंकवाद के बढ़ते प्रभाव के बावजूद सत्ता अधिष्ठान के मठाधीशों ने राजनीति और सत्ता के ओछे स्वार्थों से ऊपर उठने की कोशिश नहीं की, जबकि नकारात्मक, हिंसक ताकतें मजबूत होती गर्इं। डेनिश अखबार के कार्टून प्रकरण ने दिखा दिया है कि राजनीतिक स्वार्थों के लिए किस हद तक विस्फोटक रवैया अपनाया जा सकता है। इसी तरह वाराणसी विस्फोटों के बाद राजनीतिक तत्वों को राष्ट्रीय सहमति बनाकर विध्वंसक ताकतों का एकजुटता से सामना करने की आवश्यकता नहीं दिखाई दी।
हमें यह बात ध्यान रखनी होगी कि आतंकवाद में बहुत रक्त बह चुका है, आतंकवादियों के सामने भारत के मर्म-स्थल असुरक्षित हैं, राजनीतिक दल ओछी जोड़-तोड़ में उलझे रहे हैं और प्रशासन की संपूर्ण प्रकृति का पतन होने दिया गया है। समय आ गया है कि राजनीतिक दल बीते समय को गंभीरता और संवेदनशीलता से आंकें तथा इससे उचित सबक सीखकर देश की राज-व्यवस्था में सुधार की एक साझी नीति बनाएं ताकि भारत के संस्थान लोकतंत्र को एक नया अर्थ और उद्देश्य देने की ऊर्जा प्राप्त करें, पूरी तैयारी से आतंकवाद और विघटनवाद का सामना करें। निश्चित ही इसमें विदेशी हाथ है, पर हमारा बिखरा हुआ समाज इसका प्रभाव बढ़ाने में मददगार होता है।
अगर वर्तमान राजनीतिक तंत्र के उपचार के तुरंत उपाय नहीं किए गए तो आतंकवाद हमको चोट पहुंचाता रहेगा। देश अपने वर्तमान आर्थिक विकास, विज्ञान और प्रोद्यौगिकी में बढ़ते कदमों, ज्ञान के भण्डार के रूप में अपनी पहचान और हाल में अमरीका के साथ परमाणु संधि के बावजूद भंवर में गहरे उतरता जाएगा।
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