संवत् के मनोरंजक सत्य
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संवत् के मनोरंजक सत्य

by
Oct 4, 2005, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 04 Oct 2005 00:00:00

देवदत्तविजयी देश का संवत् पराजित देश के संवत् को धक्का देकर पीछे कर देता है। भारत में इसी कारण ग्रेगेरियन कैलेण्डर प्रचलित है जिसने जूलियन कैलेण्डर को विस्मृति में धकेल दिया है। यह इतना अवैज्ञानिक है कि इसमें नित्य संशोधन होते रहते हैं। वर्तमान प्रचलित ग्रेगेरियन कैलेण्डर में शताधिक संशोधनों के बाद अधुनातन संशोधन अमरीका के वाल्टीमोर प्रान्त के ज्योतिर्विद श्री डिक हेनरी ने किया है, जिसके द्वारा वर्ष को 364 दिन का बना दिया गया है, इसमें दिनांक और दिन सर्वदा एक समान होंगे। इसमें 52 सप्ताह होंगे और मार्च, जून, सितम्बर, दिसम्बर 31 दिन के होंगे। बाकी महीने 30 दिन के होंगे। फिर भी एक सप्ताह अधिक होगा जिसे प्रसिद्ध वैज्ञानिक “न्यूटन के नाम आवंटित कर दिया गया है। पुराने ग्रेगेरियन कैलेण्डर को ब्रिाटेन ने 1752 ई. में स्वीकार किया था। रोम ने भी इसे 1500 ई. में प्रयोग में लाना प्रारंभ किया था। फिर भी इसकी वैज्ञानिकता इतनी संदिग्ध है कि दो वर्ष पूर्व 21 फरवरी को समस्या उठ खड़ी हुई थी कि इस बार अर्थात् 100 वर्ष बाद 30 फरवरी का मास तो नहीं बढ़ जाएगा। अभी तो में इस समस्या का समाधान वैज्ञानिक रीति से संभव नहीं हो पाया है।इसके विपरीत भारतीय संवतों के सभी सिद्धान्त स्पष्ट हैं। ग्रहों और नक्षत्रों को पंचांगकार चल मानें या अचल मानकर गणना करे, किन्तु सूर्य और चन्द्र ग्रहणों के समय नहीं बदलते और गणना की वैज्ञानिकता पर कोई आंच नहीं आती। इसी तरह सूर्योदय और सूर्यास्त का काल भी घड़ी, पल और विपल तक शुद्ध मान का निकाला जा सकता है।विश्व इतिहास के प्रारम्भ से प्रचलित कल्पादि संवत् 1,97,29,49,106 का विवरण सामान्य जन के लिए कठिन मानकर छोड़ भी दिया जाए तो भी आधुनिक काल अर्थात कलि के प्रारंभ से संवत् उतने ही वैज्ञानिक हैं, क्योंकि सृष्टि का प्रारंभ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होता है। पिछले दिनों गोरखपुर में पं. दीनदयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय के पुराणेतिहास विभाग के छात्रों से मैंने युगाब्द के विषय में पूछा तो कोई छात्र इसका उत्तर नहीं दे सका था। हमारी मनोवृत्ति ही ईसाई संवत् पर आधारित हो गई है।सामान्य परिचय की दृष्टि से बिना ईसा पूर्व या ईस्वी संवत् का उपयोग किए हम कहना चाहें तो कहेंगे कि युधिष्ठिर संवत् तब से प्रारंभ हुआ जब युधिष्ठिर का राज्याभिषेक हुआ था। अर्थात् आज 5107अ36उ5143 वर्ष पूर्व से यह प्रारंभ हुआ था। कृष्ण का देहावसान उसी दिन हुआ जब कलियुग का प्रारंभ हुआ और सात ग्रह (शनि, सूर्य, चन्द्र, शुक्र, बुध, बृहस्पति, मंगल) मेष राशि में थे।फ्रांसीसी ज्योतिर्विज्ञानी बेली तथा अलबरूनी जैसे इस्लामी ज्योतिर्विद भी इसी मत के समर्थक हैं। कलियुग के प्रांरभ के दिन ही श्रीकृष्ण का प्रभास पाटन में शरीरान्त हुआ था। इसी वर्ष में पाण्डव अपने पौत्र परीक्षित को भारतवर्ष का राज्य देकर तीर्थाटन को चले गए थे। कलि के 26वें वर्ष में युधिष्ठर ने सपरिवार स्वर्गारोहण किया। “जयाभ्युदय युधिष्ठिर संवत”् तो युधिष्ठिर द्वारा सिंहासन त्याग के साथ ही प्रारंभ हो गया था। स्वर्गारोहण के पश्चात् लौकिकाब्द या सप्तर्षि संवत् का प्रारंभ हुआ।ये सभी संवत् चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही प्रारंभ होते हैं। इसलिए काल-क्रम में कोई अन्तर नहीं होता। परीक्षित ने 60 वर्ष के शासन करने के पश्चात् अपने पुत्र जनमेजय को राज्याभिषिक्त कर दिया और जनमेजय ने अपने शासन के 21वें वर्ष में जो दान पत्र लिखा उसमें “जयाभ्युदय युधिष्ठिर संवत्” का ही प्रयोग किया गया है। सीताराम की पूजा-अर्चना के लिए मुनिवृन्द क्षेत्रम् का यह दान पत्र प्रमाण है कि सीताराम की पूजा-अर्चना महाभारत काल के पूर्व से चली आ रही है। यह भी प्रमाणित होता है कि आधुनिक प्राचीन इतिहासवेत्ताओं की कल्पना के विपरीत रामायण काल महाभारत से पूर्व ही था। भारतीय इतिहास दृष्टि मानती है कि पुरातन युग से रामायण काल तक प्राचीन काल, रामायण से महाभारत काल तक मध्यकाल तथा महाभारत काल के पश्चात् आधुनिक काल मानना चाहिए।विक्रम संवत् आज बहु-प्रचलित है किन्तु इसका प्रारंभ विक्रमादित्य के नेपाल गमन से है, जब नेपाल के राजा अंशुवर्मन ने उनके आगमन के उपलक्ष्य में विक्रम संवत् का प्रारंभ किया। आज भी नेपाल में यही संवत् प्रचलित है और लोकप्रियता के कारण पाकिस्तान के कई उर्दू और सिन्धी भाषा के समाचारपत्र इसका उपयोग करते हैं। महाकवि कालिदास ने अपने ज्योतिष ग्रन्थ ज्योतिर्विदाभरण में इसी विक्रमादित्य को उल्लिखित करते हैं। वास्तव में विक्रमादित्य के व्यक्तित्व के कारण यह संवत् इतना प्रचलित हुआ कि यदि श्री मोरोपन्त पिंगले युगाब्द को प्रभावशाली रीति से पुन: प्रचलित न करते तो भय था कि इसे केवल पंचागों में देखा जा सकता था। फलितार्थ है कि ईसाई संवतों की अवैज्ञानिकता और युगाब्द की सार्वलौकिकता और वैज्ञानिकता के कारण समय आ गया है कि भारत युगाब्द को स्वीकार करे और वैश्विक स्तर पर इसका प्रचार-प्रसार करे।NEWS

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