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दुर्भाग्य से हम लोग आजकल आत्मविश्वास शून्य बने हैं। आजकल के मानसशास्त्र, जिसे हीनभावना कहते हैं उससे ग्रस्त हैं। इसलिए हम लोगों को संसार में किसी के पास जाकर स्वभाषा में बोलने, स्ववेष में विचरण करने में भी मानों लज्जा लगती है। जहां पर स्वभावत: स्ववेष से लज्जा होती है वहां पर स्वधर्म और स्वसंस्कृति का आत्मविश्वास-युक्त उच्चारण कर, उससे लोगों को प्रभावित कर सकना कैसे संभव होगा? अपनी तो वास्तविक इच्छा ऐसी है कि प्रत्येक हिन्दू किसी भी समाज के बीच में जाकर रहे, तो वहां के उस शुष्क तृणवत् ढेर के समान बने हुए समग्र समाज को अपने समान ही अग्नि-स्फुÏल्लग के रूप में, याने अपने प्राचीन, श्रेष्ठ और सत्यधर्म के अनुगामी के रूप में, खड़ा करूंगा इतना आत्मविश्वास प्रत्येक में रहना चाहिए। अपने धर्म और संस्कृति के सम्बंध में ज्ञान प्राप्त कर निर्भय और नि:शंक होकर सबको आवाहन करने की शक्ति प्रत्येक में आनी चाहिए, ऐसी अपनी अभिलाषा है और उस दृष्टि से एक प्रबल वातावरण बनाने की आवश्यकता है। अपने समाज का व्यक्ति यह कर नहीं सकता, या उसके अंदर इतनी बुद्धि नहीं, ऐसी बात नहीं है। परंतु वह एक प्रकार की हीन भावना से ग्रस्त है। उसका स्वाभिमान नष्टप्राय हो चुका है।इसका एक कारण यह है कि 1200 वर्षों तक निरंतर परकीय आक्रमण के सामने धक्के खाते-खाते हमारी शक्ति कम हो गई है। अपनी इस मूलभूमि में भी आज की परिस्थिति के भय से हम अपने स्वत: को हिन्दू कहने में संकोच अनुभव करते हैं। परन्तु ऐसा साहस प्रकट होना चाहिए कि मैं हिन्दू हूं, इस भारत की पुण्य परम्परा का संरक्षण-संवर्धन और सभी प्रकार का संप्रसारण मेरा परम पवित्र कर्तव्य है और इसे पूर्ण करने के लिए मैं आगे बढूंगा। इस प्रकार का आत्मविश्वासयुक्त वायुमंडल अपनी इस मूल भूमि में अपने बड़े-बड़े कर्ता-धर्ता लोगों ने बनाया नहीं।यह देवभूमि, धर्मभूमि है। इसी में से वह आधार (आत्म विश्वास) उत्पन्न होगा। इस आधार को उत्पन्न करने का प्रथम प्रयास इस नाते, स्वाभिमानपूर्वक हम कहें कि हम सब लोग हिन्दू हैं, और हिन्दू इस नाते सारे जगत् में विचरण करें। सारे जगत् के लोगों को अपने महान् सनातन धर्म का सिद्धांत बताकर उनको इस प्रकार का जीवन व्यतीत करने के लिए प्रोत्साहन दें। अर्थात् केवल संख्या बढ़ाना यह अपना काम नहीं। जिनको अपने सिद्धांत पर विश्वास न होने के कारण संख्या बल पर विश्वास रखकर चलना पड़ता है वे भले ही चलें। अपने सिद्धांत अविचल, श्रेष्ठ, सनातन और अमर हैं; सब प्रकार से मनुष्य को अमर बनाने वाले हैं। इसलिए अपने को कोई चिंता करने की आवश्यकता नहीं पड़ती।कभी-कभी लोग कहते हैं कि जो भिन्न-भिन्न संप्रदाय चलते हैं उनका विनाश करने के लिए आप चले हैं क्या? स्वामी विवेकानंद के शब्दों में हम कह सकते हैं कि ऐसा हमारा कोई संकल्प नहीं है। हम किसी से यह नहीं कहते कि तुम ईसाई मत बनो या इस्लाम के अनुसार कुरानशरीफ का अध्ययन करना या पांच बार नमाज पढ़ना ठीक नहीं है। हम इतना ही कहते हैं कि जो कुछ करना है ईमानदारी से करो, चारित्र्यसम्पन्न बनकर और मानवता पर प्रेम करके करो। सदाचरण आदि सर्वश्रेष्ठ सद्गुण संसार के यच्चयावत् मानव जाति के लिए हैं। उसका परिपालन करते हुए चलो। उसके नाम पर अपने स्वार्थ को पूर्ण मत करो, व्यभिचार, विनाश मत करो।(श्री गुरुजी समग्र दर्शन, खण्ड-5, पृष्ठ- 74, 76)NEWS
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