|
अप्रिय घटनाओं से उत्तेजित न हों
अप्रिय घटनाओं से उत्तेजित हो उठना, वैसे सहज स्वाभाविक ही है। हम भी कभी-कभी उत्तेजित हो उठते हैं। कोई अप्रिय-अवांछनीय बात होने पर लगता है, कि निकल पड़ें डंडा हाथ में लेकर! ऐसे प्रसंग पर कोई उत्तेजना न आई, तो लोग भी कहते हैं कि ये लोग कुछ करने वाले नहीं है। हाथ पर हाथ रखे बैठने वाले लोग हैं ये तो। किन्तु जो वास्तव में कोई ठोस कार्य करना चाहता है, जिसके सामने कोई बड़ा लक्ष्य है, उसे छोटी-छोटी उत्तेजना का शिकार नहीं होना चाहिए। उसे अपनी स्वत: की योजना को ही कार्यान्वित करने के बारे में दृढ़ रहना चाहिए। सब प्रकार के दु:खद समाचार प्राप्त होने पर भी निर्विकार बने रहना चाहिए और कभी भी विचलित नहीं होना चाहिए। ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार अपनी कुलदेवता के पवित्र मंदिर के विध्वंस का समाचार पाकर भी, शिवाजी बड़ी शान्ति और धैर्य के साथ उचित समय की राह देखते रहे। अपनी रण-योजना करते रहे।
तो समय की राह याने क्या? अफजलखां के साथ हुआ युद्ध, एक बड़ा विचित्र प्रकार का युद्ध था। दोनों ओर से रण-नीति खेली जा रही थी। दोनों एक -दूसरे के साहस को तोड़ने की चेष्टा कर रहे थे। इसी को अंग्रेजी में “वार आफ नव्र्हज्” कहते हैं। प्रत्येक चाहता था, कि प्रतिपक्षी हमारे लिए अनुकूल युद्ध-क्षेत्र में उतर आए। इसीलिए मैदान पर लड़ने का अभ्यस्त अफजलखां चाहता था, कि शिवाजी पहाड़ी प्रदेश से निकलकर मैदान पर आए। किन्तु नित्य पहाड़ों में रहने वाले शिवाजी और उनके सैनिकों को, पहाड़ों और अरण्यों में लड़ने का अभ्यास था। अत:अफजलखां की विशाल सेना और युद्ध-सामग्री को, पहाड़ी इलाके में ही तहस-नहस किया जा सकता था। इसलिए शिवाजी ने सोचा कि यदि उनका शत्रु प्रतापगढ़ के पहाड़ी प्रदेश में आ जाए, तो उसके साथ हिसाब पूरा कर लिया जा सकेगा। इस प्रकार दोनों ही एक-दूसरे पर दबाव लाने का प्रयत्न कर रहे थे। अन्ततोगत्वा अपनी संयमशीलता और नीति के कारण, शिवाजी जीत गए। याने शत्रु को मनोवांछित स्थान में खींच लाने के पहले दौर में, शिवाजी की जीत हुई। क्योंकि प्रताप-गढ़ को घेरने के उद्देश्य से आगे बढ़ा हुआ अफजलखां, अपनी समस्त सेना के साथ उस दुर्गम पहाड़ी अरण्य में खिंचा चला आया।
फिर भी उसकी सेना ओर उसके साधन, शिवाजी की तुलना में कई गुणे अधिक थे। अत: फिर से कोई दूसरा दांव जरूरी था। अत: उन्होंने साचा कि स्वयं अफजल खां को ही मारकर, उसकी विशाल सेना में तहलका मचाकर और उससे निर्माण होने वाली शत्रु-सेना की घोर निराशा तथा हतबुद्ध स्थिति में आक्रमण करते हुए विजय प्राप्त की जा सकती है। इसलिए उन्होंने खान से सुलह की बात छेड़ी। उसे सूचित किया- मैं तुम्हारे साथ सुलह की इच्छा रखता हूं। तुम्हारे साथ तुम्हारे बादशाह के पास चलने को तैयार हूं। मैं बादशाह की चाकरी भी कर सकता हूं। इस प्रकार के प्रलोभन द्वारा, शिवाजी ने अफजलखां से वार्तालाप के स्थान, समय आदि सम्बंधी अपने अनुकूल शर्ते भी मनवा लीं! अफजलखां बड़ा ताकतवर और अभिमानी था। उसने समझा कि वह शिवाजी को जाल में फंसा रहा है। इसलिए उसने सब शर्ते भी मनवा लीं! अफजलखां बड़ा ताकतवर और अभिमानी था। उसने समझा कि वह शिवाजी को जाल में फंसा रहा है। इसलिए उसने सब शर्ते मान लीं, और वह शिवाजी से मिलने आ पहुंचा।
यहां दो प्रवृत्तियों का उत्तम संघर्ष हमें देखने को मिलता है। एक प्रवृत्ति याने शत्रु का विनाश कर मैं अवश्यमेव विजय प्राप्त करूंगा। यह प्रवृत्ति थी शिवाजी की। उनमें विजय-प्राप्ति का पूर्ण विश्वास था। दूसरी ओर था बड़ी उद्दण्डता से मिलने के लिए आने वाला अफजलखां। वह बड़े अभिमान से आया। प्रतिज्ञा करके आया। परन्तु मन के अन्दर नित्य यही विचार था, कि न जाने यह शिवाजी कैसा है? लोग कहते हैं, कि वह शैतान की तरह आज यहां तो कल वहां दिखाई देता है! अफजल खां आया तो बहुत घमण्ड में था, फिर भी मन ही मन आशंकित था।… मन में दुविधा की स्थिति थी कि पता नहीं क्या होगा? अंतत: दोनों के बीच टक्क्र होने पर स्वाभाविकत: वही विजयी हुआ, कि जिसके मन में अपनी विजय का विश्वास था। अफजल खां मारा गया और … शिवाजी को अभूतपूर्व विजयश्री प्राप्त हुई। (श्रीगुरुजी समग्र दर्शन खण्ड-6 पृ. 75)
NEWS
टिप्पणियाँ