हिन्दू ही लोकतंत्र के रक्षक
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हिन्दू ही लोकतंत्र के रक्षक

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Oct 4, 2005, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 04 Oct 2005 00:00:00

आज की आवश्यकता है संगठित हिन्दू-शक्ति

-पूरन चन्द्र डोगरा (आई.पी.एस.)

पूर्व महानिदेशक, पंजाब पुलिस

भारत के अस्तित्व के लिए आवश्यक है कि यह एक हिंदू बहुल देश ही रहे। दुनियाभर में हिंदुत्व की ख्याति सहिष्णु और सर्वपंथसमभाव की रही है। आप किसी चर्च या मस्जिद में जाकर भी अपने को हिंदू कह सकते हैं। हिंदुत्व में किसी तरह की धर्मादेश संहिता या एक ही अधिकृत धार्मिक पुस्तक अथवा किसी एक पैंगबर का ज्ञान नहीं है। यह एक ऐसा धर्म है जिसमें हर कोई, चाहे वह किसी भी जाति या नस्ल का हो, फल-फूल सकता है। हिंदुत्व में मतांतरण का कोई स्थान नहीं है। यहां कोई काफिर नहीं है और न ही दारूल हरब है। हमारे वेदों के अनुसार, हिंदुत्व एक जीवन पद्धति है। क्या वसुधैव कुटुंबकम् के दर्शन को मानने वाला हिंदू कभी कट्टर हो सकता है? कभी नहीं।

हिंदुत्व की उत्पत्ति किसी के खिलाफ युद्ध में से नहीं हुई। यह हमारे ऋषि-मुनियों का ईश्वरीय ज्ञान है। भारत विभिन्न जातियों, भाषाओं और संप्रदायों वाला एक बहुविध पर सामंजस्यपूर्ण ढंग से आपस में गुंथा हुआ एक देश है। हमारा विश्वास है कि कोई भी व्यक्ति किसी भी उपासना पद्धति का अनुसरण कर सकता है, उसका अपना अलग इष्टदेव हो सकता है, पर हर संप्रदाय एक ही ईश्वर की ओर ले जाता है। हिंदू प्रत्येक मानव में ईश्वर के स्वरूप को देखता है, क्योंकि उसमें ईश्वर का अंश है।

भारत को केवल हिंदुत्व ही एक सूत्र में बांधे रख सकता है। अगर कभी भारत में हिंदू अल्पसंख्यक हुए तो इस देश और यहां के निवासियों की स्थिति कैसी होगी, इसका अनुमान “सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा” के रचयिता और बाद में पाकिस्तान के मुखर समर्थक सर मोहम्मद इकबाल के शब्दों से लगाया जा सकता है। साफिया अमीर ने अपनी पुस्तक “मुस्लिम ब्रादरहुड इन इंडिया” में लिखा है कि इकबाल ने इस्लाम को सभी मुसलमानों की “मातृभूमि” बताया। उन्होंने राजनीतिक राष्ट्रवाद को पांथिक राष्ट्रवाद में परिवर्तित करते हुए कट्टरता को पांथिक राष्ट्रवाद करार देते हुए जायज ठहराया। उन्होंने आगे कहा, “इस्लाम के मूर्तिपूजा को समाप्त करने के उद्देश्य को देखते हुए वह देशभक्ति (राष्ट्रवाद से उत्पन्न) को स्वीकार नहीं कर सकता क्योंकि यह “मूर्तिपूजा का ही एक सूक्ष्म रूप” है, जिसके कारण विभिन्न देशों के देशभक्तिपूर्ण गीतों से लगता है कि मातृभूमि का दैवीकरण कर दिया गया है। सन् 1913 में एक साक्षात्कार में इकबाल ने कहा था कि वह वर्तमान में प्रचलित और व्यवहार में लाए जाने वाले राष्ट्रवाद के विरोधी हैं, क्योंकि वह इस्लाम के ऊंचे आदर्शों को हासिल करने में बाधक है। उनका मानना था कि मुस्लिम बहुल देशों में इस्लाम और राष्ट्रीयता, जिसने इस्लाम की भूमिका के लिए खतरा पैदा किया, के बीच संघर्ष का प्रश्न ही नहीं उठता और अल्पसंख्यकों के साथ मुस्लिम कानून ने शादी जैसे मुक्त सामाजिक संबंधों की अनुमति दे ही रखी है। इकबाल ने निष्कर्ष निकालते हुए कहा कि ऐसे देशों में, जहां इस्लाम राष्ट्रीयता को प्रश्रय देता है, दोनों व्यावहारिक रूप से समान हैं। राष्ट्रवाद उसी स्थिति में मुसलमानों के लिए खतरा था, जहां वे अल्पसंख्यक थे और तब उसने, उनके संपूर्ण आत्म विलोपीकरण की मांग की। इसलिए इकबाल का मानना था कि ऐसी परिस्थितियों में इस्लाम की एक सांस्कृतिक इकाई के रूप में आत्मनिर्णय की मांग न्यायसंगत है।

ऐसे में क्या एक गैर मुस्लिम के लिए ऐसे मुस्लिम बहुल देश में सम्मान के साथ रहना संभव होगा और क्या एक दूसरे संप्रदाय का व्यक्ति अपने पंथ के अनुसार आचार-व्यवहार कर पाएगा? मध्य पूर्व एशिया के देश इसके जीते-जागते उदाहरण हैं। इन देशों की सरकारें इस्लाम के अलावा किसी संप्रदाय को सार्वजनिक रूप से अपनी पूजा-पद्धति के पालन की अनुमति नहीं देतीं। इन सरकारों ने मुस्लिम शरीयत कानून को लागू किया हुआ है।

बदलाव जरूरी

हिंदुत्व सनातन धर्म है। मानव सभ्यता के आरंभ से ही यह चिरंतन धर्म बिना किसी मतांधता के शुद्ध, तार्किक और कर्म-प्रेरक रहा है। पर समय के साथ-साथ कुछ निहित स्वार्थों के कारण इसमें खामियां पनपीं। इसके कारण विभाजन पैदा हुए और वर्ण व्यवस्था मजबूत हुई, जिसने सदियों तक दूसरों को अपना अनुचर बनाए रखा। एक समय, वर्ण व्यवस्था श्रम के विभाजन और कर्तव्यों का प्रतीक थी। पर पीढ़ियों तक उसके साथ भेदभाव और सामाजिक अत्याचारों के लिए एक वर्ग विशेष की क्यों निंदा की जाए? यह एक वर्ग विशेष पर सबसे बड़ा अत्याचार था। यह हिंदू समाज पर एक धब्बा है, जिसके लिए हमारी दुनिया भर में निंदा हुई।

दूसरा पहलू है हिंदू समाज का अलग-अलग संप्रदायों में विभाजन। हिंदू समाज में असंख्य संप्रदाय हैं। हमारे अनेक देवी-देवता हैं। पुराने समय से हिंदुओं का एक केंद्रीय मंच नहीं रहा है। हम स्वयं को हिंदू तो कहते हैं पर पूजा अपने गुरुओं की ही करते हैं। संप्रदायों में किसी भी तरह से हिंदुत्व के केंद्रीय विचार की व्याप्तता नहीं है। हिंदुत्व के सभी संप्रदायों को समान रूप से आकर्षित करने वाला एक भी मंच नहीं है। एक समुदाय के रूप में हिंदुओं से कोई भी भयभीत नहीं है। ऐसा माना जाता है कि हिंदू इस कदर बंटे हुए हैं कि वे एक मंच पर आ ही नहीं सकते हैं। मुझे इसमें कोई संदेह नहीं कि इस देश की अखंडता को बनाए रखने के लिए हिंदू समाज को एक मंच पर संगठित होना होगा। हम भले ही अलग-अलग संप्रदायों, भिन्न-भिन्न उपासना पद्धतियों को मानते हों, पर एक प्रेरक और शक्तिशाली केंद्रीय बिंदु होना चाहिए। आज वेदों के महत्व को रेखांकित करते हुए एक आंदोलन शुरू करने की आवश्यकता है। निंदा योग्य जाति व्यवस्था को जड़ से मिटा दिया जाना चाहिए। जब हम इस देश के विभिन्न समुदायों की बात करते हैं तो हम हिंदू, मुसलमान, ईसाई और हरिजनों की बात करते हैं। हरिजनों को हिंदुओं के साथ क्यों नहीं गिना जाता? हम विकृत ऐतिहासिक तथ्यों को स्वीकार कर रहे हैं। हमें वेदों के संदेश को हाशिए पर रह रहे सभी हिंदुओं, विशेषकर दलितों में फैलाना चाहिए।

नेताओं द्वारा राजनीतिक लाभ के लिए कांची कामकोटि पीठ के जगदगुरु शंकराचार्य स्वामी जयेंद्र सरस्वती की गिरफ्तारी और उसके विरुद्ध देश भर में हिंदुओं का कोई आंदोलन न होना, आंखें खोल देने वाला अनुभव था। इससे पता चलता है कि या तो हिंदू समाज र्निजीव है अथवा उनके मन में इस पीठ के प्रति कोई आदर नहीं है। क्या सरकार इमाम को गिरफ्तार करने की हिम्मत कर सकती थी? ऐसा होने पर व्यापक स्तर पर हिंसा के साथ दंगे हो गए होते। सभी राजनीतिक दल इसकी आलोचना करते और कथित पंथनिरपेक्ष नेताओं ने उनकी तत्काल रिहाई की मांग की होती। इस प्रकरण को लेकर हमें आत्ममंथन करने की आवश्यकता है। तथ्य यह है कि स्वामी जयेंद्र सरस्वती ने पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिए प्रयत्न किए थे। पर योजनाबद्ध ढंग से शंकराचार्य जी को पहले गिरफ्तार किया गया और फिर उनकी प्रतिष्ठा को मिट्टी में मिलाया गया।

समय की पुकार

समय तेजी से हमारे हाथों से निकलता जा रहा है। अगर हमने सही कदम नहीं उठाए तो वह दिन दूर नहीं जब हिंदू अपने ही देश में अल्पसंख्यक बन जाएंगे। हिंदुत्व इस देश की आधारभूमि है, जो कि भारतीय राष्ट्रवाद का ही एक पर्याय है। हम इसे भारतीयता भी कह सकते हैं। हमें हिंदू मूल्यों को संरक्षित करने, सहेजने और उन्हें बढ़ावा देने की आवश्यकता है, क्योंकि तभी भारत पंथनिरपेक्ष बना रह सकेगा। दलितों-वंचितों को मुख्यधारा में लाएं। वे हिंदुत्व को शक्ति प्रदान करेंगे। उनमें अपने धर्म के प्रति अपना जीवन दांव पर लगाने का साहस और संकल्प है। ईसाई मिशनरियों के हमलों के विरुद्ध वनवासियों का संघर्ष इसका जीता जागता उदाहरण है। ऊंची जाति का कोई भी व्यक्ति ऐसे प्रतिरोध नहीं कर सकता है। मैं जानता हूं कि यह बात थोड़ी टेढ़ी है। हमारे भीतर जाति बोध बहुत गहरे पैठा है। यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि ऊंची जातियों के विरोध के कारण एक दलित का बेटा अपने विवाह पर घोड़ी पर नहीं बैठ सकता? एक दलित भारतीय प्रशासनिक सेवा के अफसर ने बताया था कि उसे अपने इस पद के कारण सम्मान मिलता है, पर गांव में अपने दूसरे रिश्तेदारों की तरह ही उसे जातिगत भेदभाव और छुआछूत का सामना करना पड़ता है।

हमें ये मानसिक अवरोधक तोड़ने होंगे। किसी को तो शुरुआत करनी होगी। आज हमारे पास विवेकानंद नहीं हैं जो कि वैदिक विचारों के साथ मानसिक और शारीरिक रूप से शक्तिशाली हिंदू चाहते थे। हिंदू युवा आधुनिक, पंथनिरपेक्ष और दूरदर्शी है। वह अपने दम पर समाज, देश और दुनिया में एक जगह बनाना चाहता है। वह बेवजह आडंबरपूर्ण भाषणों में नहीं उलझना चाहता है। वह कट्टर नहीं है। वह आगे बढ़ना चाहता। वह व्यक्तिगत स्तर पर धार्मिक है। प्रकृति की उपासना में से निकलने के कारण हिंदुत्व हर हिंदू का व्यक्तिगत और निजी धर्म है। हिंदू युवा के समक्ष एक आधुनिक, शक्तिशाली, भ्रष्टाचार से रहित और भविष्य की ओर देखने वाले हिंदू समाज का खाका रखें। वह मौजूदा हिंदू नेतृत्व को पुरातनपंथी और रूढ़िवादी मानता है। वह अपने जीवन के भौतिकवादी पक्ष को नकारना नहीं चाहता। वह एक बेहतर जीवन स्तर चाहता है और उसके लिए एक हद तक अपने धर्म की भी परवाह नहीं करता। बिना रोजगार और बिना किसी आर्थिक सहायता की हालत में उसके अस्तित्व का क्या होगा? वह भौतिकवादी होने के साथ कथित रूप से प्रगतिशील युवा भी होना चाहता है। हमें वैदिक संस्कृति में अपने युवाओं को शिक्षित करने के लिए व्यापक स्तर पर एक पुनर्जागरण अभियान आरंभ करने की आवश्यकता है।

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