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न छूटा हिन्दू धर्म न हिन्दी से प्रेमरंजीत रामनारायण से विशेष बातचीतरंजीत रामनारायण का जन्म 4 दिसम्बर, 1948 को दक्षिण अफ्रीका के डरबन स्थित एक सुदूरवर्ती गांव में हुआ था। उनके पिता श्री रामनारायण मजदूरी कर किसी तरह परिवार का भरण-पोषण कर पाते थे। अपने जीवन के प्रारंभिक दिनों की याद करते हुए रंजीत भावुक हो जाते हैं। उनसे 28 जनवरी, 1963 का वह दिन नहीं भुलाया जाता जब उन्हें स्कूल के प्रधानाध्यापक ने इसलिए निकाल दिया था कि उनके पास पढ़ने-लिखने की किताब-कापियां नहीं थीं। प्राध्यापक ने उनका “ब्लेजर” उतार कर एक दूसरे बच्चे को पहना दिया। दो समय की रोटी के लिए उनके माता-पिता खेतों में हाड़-तोड़ मेहनत करते थे। फिर रंजीत ने भी पिता के साथ खेतों में काम शुरू किया। उन्होंने बाद में नेटल मोटर इंडस्ट्री में एक कारखाना मजदूर के रूप में अपने नए जीवन की शुरुआत की। मजदूरी के पैसे जमाकर उन्होंने एक पुराना ट्रक खरीदा और कालान्तर में “ट्रान्सपोर्ट” व्यवसाय की नींव रखी। दक्षिण अफ्रीकी समुदाय में प्रचलित नस्लीय रंग भेद के कारण भी उन्हें कष्ट उठाने पड़े, लेकिन इन सभी का सफलतापूर्वक सामना करते हुए उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में अपने व्यवसाय को खड़ा किया। आज उनके द्वारा स्थापित “रामनारायण समूह” दक्षिण अफ्रीका की बड़ी “ट्रांसपोर्ट कम्पनियों” में से एक है। व्यापार जगत में इस बुलन्दी को छूने के बावजूद रंजीत रामनारायण अपने कष्ट के दिन नहीं भूलते। परिणामत: जहां उन्होंने सामाजिक विषमता को दूर करने के लिए रंजीत रामनारायण शैक्षिक ट्रस्ट की स्थापना कर गरीब व जरूरतमन्द बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के लिए आर्थिक सहायता देना प्रारंभ किया, वहीं हिन्दू धर्म और हिन्दू संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए मंदिर निर्माण सहित अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रमों को भी बढ़ावा दिया। भूखे-गरीब-बेसहारा बच्चों के लिए नि:शुल्क भोजन व्यवस्था करने का उनका कार्यक्रम भी अपने आप में अनोखा है। इसके अलावा नेत्रहीन, मूक-बधिर तथा वृद्ध लोगों की सहायता के लिए भी उन्होंने कई कार्यक्रम चलाए हैं।पाञ्चजन्य से एक विशेष बातचीत में श्री रंजीत रामनारायण ने कहा कि उन्हें अपने पूरखों की मातृभूमि भारत से गहरा लगाव है। उनके पुरखे बिहार प्रदेश के बक्सर के पास एक गांव के रहने वाले थे, जहां आज भी उनके सगे-सम्बंधी रहते हैं। उन्होंने कहा कि, “वे निकट भविष्य में अपने पुरखों की भूमि पर उनकी स्मृति में किसी न किसी प्रकल्प का श्रीगणेश करेंगे।”उन्हें हिन्दी भाषा से भी गहरा लगाव है। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में जिस ढंग की हिन्दी बोली जाती है, उसी भाषा में पाञ्चजन्य से बातचीत की। रोचक बिहारी शैली में जिस प्रकार वे बोल रहे थे, लग ही नहीं रहा था कि उनके पुरखे सैकड़ों वर्ष अफ्रीका में बस गए थे और उनका जन्म भी वहीं हुआ था। उन्होंने कहा-“हमार बाप-दादा सन् 1860 में मुलुक (भारत) से गिरमिटिया मजदूर बनकर दक्षिण अफ्रीका आया। भारत में जवन पहिले का ब्रिटिश सरकार रहा, ओ लोगन हमारा बाप-दादा लोगन को विलायत ले गया। ओ समय हमरे बाप-दादा लोगन को ब्रिटिश सरकार बहुत दु:ख दिया, लेकिन दु:ख देने से हमारा बाप-दादा अऊर हिम्मती बना। मालिक की कृपा से सब दु:ख दूर हुई गया। जब से इ नेल्सन मंडेला का सरकार बना, तब से हम लोगन को थोड़ा छुटकारा मिला है अऊर तब से हम हिन्दू लोगन को जीवन मिला, नहीं त पहिले का अंग्रेज सरकार हम लोगन के बड़ा दु:ख दिया। सब दु:ख सहकर भी हम अपने धरम से डिगा नहीं।…37 साल की उमर में हमार धन्धा खूब जमा, अऊर हम राजा हो गया, लेकिन केवल धन का राजा नहीं, हम मन से राजा हुआ। भगवान हमको बहुत दिया, अब हमको अपने धरम का खूब सेवा करना है।”बातचीत में श्री रंजीत रामनारायण ने दक्षिण अफ्रीका में हिन्दुओं के आपसी मतांतरण का भी उल्लेख किया। उन्होंने बताया, “नई पीढ़ी को हिन्दू धर्म की प्रथाओं, त्योहारों आदि के सन्दर्भ में बहुत सारे भ्रम हैं। हमें इस बारे में हिन्दुत्व की सही व्याख्या करने वाले विद्वानों की जरूरत है। हमने अन्तरराष्ट्रीय सहयोग न्यास के श्री बालेश्वर अग्रवाल सहित विश्व हिन्दू परिषद को भी अपनी चिन्ताओं से अवगत कराया है। आशा है वे इस बारे में कुछ करेंगे।” इस बारे में भारत सरकार के रवैये पर उन्होंने कहा कि, “भारत सरकार को अपनी राजनीति से फुर्सत कहां? विदेशों में रहने वाले हिन्दुओं का जीवन, उनकी संस्कृति का संरक्षण करने जैसे विषय सरकार की वरीयता में कहीं नहीं है। इसके लिए तो हमें-आपको ही प्रयास करने पड़ेंगे।” हनुमान जी के परमभक्त श्री रंजीत रामनारायण ने गर्व से बताया कि वे दक्षिण अफ्रीका में अब तक 9 भव्य मन्दिरों का निर्माण करा चुके हैं।प्रस्तुति : राकेश उपाध्यायNEWS
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