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सभ्यता के गहराते अंधेरे को चीरती

by
Jun 11, 2005, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 11 Jun 2005 00:00:00

अन्तज्र्योतिदेवेन्द्र स्वरूपमानव सभ्यता विज्ञान और तकनालाजी के पंख लगाकर आकाश में ऊंचे और ऊंचे उड़ती ही जा रही है। मनुष्य की आदिम प्रकृति की अर्थ और काम की भूख में से सभ्यता की यात्रा के वर्तमान चरण का आरंभ कब हुआ कह पाना कठिन है। क्या तब जब अगिरा ऋषि अग्नि को पृथ्वी पर लाये या तब जब मनुष्य ने पहली बार पहिए जैसे यन्त्र का आविष्कार किया? मानव की भौतिक सुखों की चाह से प्रेरित उसकी सृजनात्मक प्रतिभा सुख के नए-नए साधनों की खोज में निरन्तर लगी हुई है। इसी खोज में से अनेक विद्याओं और शिल्पों का जन्म हुआ। इस खोज यात्रा के अनेक संकेत-संदर्भ हमारे विशाल प्राचीन वाङ्मय में यत्र-तत्र बिखरे हुए हैं। कभी वैन्य पुत्र पृथु ने पहली बार उखड़-खाबड़ पृथ्वी को समतल किया, अकृष्ट पच्र्य भूमि पर कृषि कर्म आरंभ किया, विश्वकर्मा ने अनेक शिल्प शास्त्रों की रचना की-वास्तुकला, काष्ठकला, कुम्भकार कला, धातु विद्या आदि-आदि। प्राचीन विश्वास है कि भारतीय जिन नए प्रदेशों में गए वहां अपने साथ इन शिल्पों को ले गए। वस्त्रहीन, मांसभक्षी और घर विहीनों को उन्होंने सभ्यता का वरदान दिया। अठारहवीं शताब्दी तक सभ्यता की सीढ़ी पर भारत का बहुत ऊंचा स्थान रहा। भारत की इस ऊंचाई ने ही यूरोप को भारत पहुंचने के वैकल्पिक मार्गों को खोजने के लिए व्याकुल कर दिया। इसी व्याकुलता ने विश्व के वर्तमान मानचित्र को आकार दिया और उसी में से सभ्यता की यात्रा के नए चरण का आरंभ हुआ।गैलिलियो, कोपरनिकस और न्यूटन आदि से ब्राह्मांड के स्वरूप और नियमों को जानने की वैज्ञानिक यात्रा ने नए चरण में प्रवेश किया, भाप-शक्ति के रूप में नई ऊर्जा की खोज और मशीन के द्वारा उत्पादन की प्रक्रिया के साथ सभ्यता का जो रूपान्तरण शुरू हुआ है उसकी गति उत्तरोत्तर तीव्र होती जा रही है। पहले हजारों साल में कोई एक नया आविष्कार होता था तो अब प्रत्येक दशाब्दी क्या प्रत्येक वर्ष नए यन्त्र, नए आविष्कार हमारे सामने आ रहे हैं। कभी लगता है कि विज्ञान ने मानव शरीर, मन और मस्तिष्क के सब रहस्यों को जान लिया है। अब वह कृत्रिम जीवन के सृजन की क्षमता अर्जित कर चुका है। अब वह नारी-पुरुष के संयोग के बिना ही मानव को जन्म देने में समर्थ है। जीन, जीनोम और डी.एन.ए. जैसी नई-नई खोजें मानव जीवन के सब रहस्यों का उद्घाटन कर सकती हैं। जब शरीर को समझ लिया तो उसमें पलने वाली या उस पर हमला करने वाली बीमारियां भला विज्ञान की पकड़ से बाहर कैसे रह सकती हैं। एक समय तो यह विश्वास हो चला था कि आधुनिक विज्ञान ने सभी पुरानी बीमारियों पर विजय पा ली है। मलेरिया, टी.बी., पोलियो, न्यूमोनिया आदि सभी बीमारियों के अचूक निदान खोज लिए गए हैं। प्रत्येक बीमारी के निरोध का टीका मिल गया है। मलेरिया उन्मूलन, पोलियो उन्मूलन, टी.बी. उन्मूलन जैसे नारे प्रचार तंत्र माध्यमों पर छा गए। लोग निश्चिन्त हो गए- एक टीका लगवाओ, तीन बीमारियों से छुट्टी पा जाओ। रोग, बुढ़ापा और मृत्यु ही मानव के दु:ख के मुख्य कारण माने जाते हैं। इन्हीं दु:खों से मुक्ति का उपाय खोजने के लिए शुद्धोधन पुत्र सिद्धार्थ राजमहल के सुख-वैभव को लात मारकर वैराग्य के पथ पर चल पड़े थे। उन्होंने दु:ख के कारणों की मीमांसा की, उससे बाहर निकलने का मार्ग भी बताया। पिछले ढाई हजार साल में कुछ व्यक्ति उनके बताए साधना पथ पर चलकर दुखा:तीत, तथागत की स्थिति में पहुंच भी गए। पर विशाल मानव समाज दु:ख से जूझता ही रह गया, वह रोग और मृत्यु से छुटकारा नहीं पा सका। विज्ञान की सब गर्वोक्तियों के बावजूद आज भी मानव वहीं का वहीं खड़ा है। पुरानी बीमारियां फिर लौट रही हैं और नई अकल्पित बीमारियां उनसे भी भयंकर रूप लेकर उसे घेर रही हैं। कभी मैडकाऊ, कभी एड्स, कभी बर्ड फ्लू, कभी अलझीमर जैसे नए-नए नाम धारण करके रोग मानव जाति को घेर रहा है। विज्ञान यह दावा करने में असमर्थ है कि उसने इन रोगों का अचूक निदान खोज लिया है। कुछ समय पहले एड्स का शोर मचा था। एड्स को मिटाने के लिए करोड़ों-अरबों डालरों की सहायता राशि तृतीय विश्व के देशों में झोंकी जा रही थी। यह रोग क्यों पैदा होता है, उसकी जड़ कहां है? इन प्रश्नों के उत्तर में इतना ही बताया गया कि यह अनियंत्रित यौन-कर्म से पैदा होता है, अत: उससे बचने का उपाय है सुरक्षित यौनाचार। इसके लिए “कन्डोम” मुफ्त बांटे जाने लगे। यह किसी ने नहीं बताया कि अनियंत्रित यौनाचार से बचो, अपनी काम-वासना को संयमित करो।संयम क्यों? संयम तो अंधविश्वास है, पिछड़ापन है, पोंगापंथ है। इसलिए खुलकर यौनाचार करो, विवाह बन्धन से ऊपर उठो, बाहर निकलो। मर्यादाओं की बात करना, संयम का उपदेश देना मानव-सुख पर आक्रमण है, उसकी स्वतंत्रता पर बन्धन है, ऐसा करने वाले लोग स्वयं को नैतिक पुलिस की स्थिति में रख रहे हैं और नैतिक पुलिस को कोई भी “स्वतंत्र चेता” मनुष्य स्वीकार नहीं कर सकता।आजकल बर्ड फ्लू का भूत पूरी दुनिया पर सवार है। यूरोपीय संघ में उच्चतम स्तर पर चर्चा का विषय है। चीन, इन्डोनेशिया आदि सब देशों में बर्ड फ्लू से मानव मौतों की खबरें प्रसारित हो रही हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बर्ड फ्लू को अपना मुख्य कार्यक्रम बनाया है। प्रत्येक देश की सरकार बर्ड फ्लू का प्रतिरोधात्मक उपाय खोज रही है। उसकी प्रतिरोधक दवाई का अभी तक पता नहीं चल पाया। कौन सी चिड़िया है, वह कहां की रहने वाली है जो इस बीमारी को सब देशों में फैला रही है? एक समय कहा गया कि वह चिड़िया भारत से उड़कर बाहर गई। सचमुच वह चिड़िया भारत के मनुष्यों से अधिक देशभक्त होगी कि उसने अपने देश को उस बीमारी से मुक्त रखकर बाहरी देशों पर आक्रमण करने का देशभक्तिपूर्ण निर्णय लिया। यदि उस चिड़िया का पता लग सके तो क्यों न उसे ही भारत का राष्ट्रीय पक्षी घोषित कर दिया जाए?यह मान लिया गया है कि सभ्यता की प्रगति का अर्थ है प्रकृति पर विजय पाना, देश और काल की दूरियों को मिटाना। शरीर सुख, यौनतृप्ति और मनोरंजन के साधनों को प्रत्येक घर, प्रत्येक व्यक्ति को उपलब्ध कराना। इसके लिए आधुनिक विज्ञान और तकनालाजी ने मनुष्य को गैस का चूल्हा, ओवन, मिक्सी, फ्रिज, एयरकन्डीशनर, हीटर, गीजर, वाशिंग मशीन, विद्युत चालित सफाई यन्त्र फ्लश, सीवर, लिफ्ट जैसी श्रममुक्त शरीर सुख के उपकरण प्रदान किए। मनोरंजन को जनसुलभ बनाने के लिए फिल्म, ट्रांजिस्टर, टू-इन-वन रिकार्ड प्लेयर, टेलीविजन, कैमरा, डिजिटल कैमरा, आडियो कैसेट, वीडियो कैसेट, कम्प्यूटर, सी.डी. जैसे नए-नए अकल्पित वरदान दिए हैं। बिजली, पेट्रोल, डीजल, गैस, अणु शक्ति जैसी नए-नए ऊर्जा स्रोतों की खोज की। पर क्या ये ऊर्जा स्रोत अक्षय हैं, अमर हैं? यदि ये समाप्त हो गए तो मानव सभ्यता का क्या होगा? गर्वोक्ति की जा रही है कि इस सूचना क्रांति के युग में अब दुनिया एक गांव जितनी छोटी हो गई है। अब पूरी दुनिया हमारे कमरे में रखे एक छोटे से टेलीविजन स्क्रीन पर हमारी आंखों के सामने है। दुनिया के किसी भी कोने में घट रही छोटी से छोटी घटना को हम अपनी डाइनिंग टेबिल पर बैठे स्वादिष्ट भोजन का रस लेते हुए देख रहे हैं। चाहे वह सुनामी की तबाही हो, चाहे कैटरीना का प्रकोप हो, चाहे बाढ़ में डूबती मुम्बई हो, चाहे मिस्र में घटी विमान दुर्घटना हो। हम भोजन कर रहे हैं, प्राकृतिक आपदा को देख रहे हैं।इस सभ्यता ने हमें ट्रेन दी है, स्वचालित कार दी है, विमान दिए हैं, हेलीकाप्टर दिए हैं, उपग्रह दिए हैं, राकेट दिए हैं। दूरियां मिट रही हैं, मनुष्य अल्पकाल में कहीं भी पहुंचने में और कितनी भी ऊंचाई तक उड़ने में समर्थ है। अब वह वायुमंडल के परे वायु शून्य अन्तरिक्ष में उड़ान भर रहा है, चन्द्रमा, मंगल और शुक्र ग्रहों पर उतर रहा है, वहां अपनी बस्तियां बसाने के सपने देख रहा है। उसने कम्प्यूटर का आविष्कार किया है। कम्प्यूटर पर ई-मेल और इन्टरनेट की सुविधायें पैदा की हैं। इन्टरनेट यानी ज्ञान का अथाह समुद्र है। किसी भी विषय पर चाहे जितना ज्ञान वहां उपलब्ध है। अब लाइब्रोरी में भटकने और माथा खपाने की आवश्यकता ही नहीं। बस स्विच दबाइये, एक्सप्लोरर या गुगल सर्च आपके लिए सब जानकारी खोज लायेगा। एक विशाल पुस्तकालय की हजारों लाखों पुस्तकों को कुछ सी.डी. में समाहित कर अपनी जेब में रखा जा सकता है। कम्प्यूटर का लघु संस्करण लैपटाप आपके साथ सफर कर सकता है। और अब लैपटाप का भी छोटा संस्करण पाम04 आ गया है। इसके भी आगे नानो तकनालाजी की बात की जा रही है। इसी 26 अक्तूबर को हिन्दुस्तान टाइम्स ने सम्पादकीय में लिखा कि किसी राइस यूनीवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने नानो तकनालाजी के द्वारा एक ऐसी छोटी कार का निर्माण किया है, जिसका आकार एक मानव-केश के 80 हजारवें हिस्से के बराबर है। सर्वथा अकल्पनीय। मानव बुद्धि के परे। कहा जा रहा है कि नानो तकनालाजी द्वारा ऐसे असंख्य नन्हे-नन्हे अदृश्य रोबोट निर्माण किए जा सकेंगे जो मनुष्य की इच्छा मात्र से सब काम स्वयं कर देंगे। तब मनुष्य को करने के लिए कुछ नहीं रहेगा। उसे इच्छा भर करना होगा। किन्तु साथ ही यह भी कहा जा रहा है कि ये रोबोट मानव नियंत्रण के बाहर चले जायेंगे और वे ही मानव जाति व उसकी सभ्यता के संहारक भी बन जायेंगे। टेलीग्राफ, टेलीफोन, वायरलेस के अगले कदम के रूप में अब मोबाइल फोन हमारे हाथ में आ गया है। जिसे देखो वही मोबाइल फोन कान से लगाए घूम रहा है। आप कहीं भी हों, जंगल में, हवा में या श्मशान में- हर जगह आप पूरी दुनिया के सम्पर्क में हैं। एस.टी.डी. व आई.एस.डी. की तरह अब साइबर कैफे भी सब जगह उपलब्ध हैं।पर दु:खद पक्ष यह है कि मनोरंजन, आवागमन, संचार-सम्पर्क, यौनतृप्ति और मुख-स्वाद के ये नए-नए साधन मनुष्य को देवत्व की ओर बढ़ाने के बजाय पशुत्व की ओर धकेल रहे हैं। ये तो बाह्र उपकरण या साधन मात्र हैं। वे मनुष्य की प्रवृत्तिजन्य इच्छाओं की अभिव्यक्ति या पूर्ति का माध्यम बन सकते हैं किन्तु मानव प्रवृत्ति का परिष्कार नहीं कर सकते। इसलिए प्रत्येक नए आविष्कार के साथ अपराधों का रूप भी बदल रहा है। मोबाइल आया तो अपने साथ एस.एम.एस. लाया। एस.एम.एस. अश्लीलता लाया। अश्लीलता तो हमारी प्रवृत्ति है, उसने मोबाइल को औजार बनाया। प्राचीन मनीषा ने यह जाना कि मनुष्य की मूल प्रवृत्ति पशु से भिन्न नहीं है। कहा भी गया कि आहार, निद्रा, भय और मैथुन आदि प्रवृत्तियां मनुष्य और पशु में समान होती हैं। मनुष्य धर्म और ज्ञान के द्वारा इनसे ऊपर उठकर देवत्व की ओर जा सकता है। मनुष्य को देवत्व की ओर बढ़ाने वाली संस्कार प्रक्रिया को ही संस्कृति कहते हैं। जब सभ्यता संस्कृति से सम्बंध विच्छेद कर लेती है तो वह राक्षसी बन जाती है। जब तक संस्कृति सभ्यता की नियामक शक्ति रहती है तभी मनुष्य भौतिक सुख के परे एक आत्मिक दैवी सुख का अनुभव करता है, इसे ही अध्यात्म कहा गया है। यह आत्मिक सुख की खोज ही मानव की सांस्कृतिक यात्रा की प्रेरणा रही है। उस आत्मिक सुख की ओर बढ़ाने वाले गुणों-सत्य, अहिंसा, दया, दम, शम, अपरिग्रह, करुणा को जाग्रत और सुदृढ़ करने वाली संस्कार प्रक्रिया को देश और काल के अनुसार चलाने का कार्य ही विभिन्न सन्त-महात्मा, धर्म प्रवर्तक करते आए हैं। वे सभी मनुष्य को बाह्र भोगों और सुविधाओं का बन्दी न बनकर आन्तरिक दैवी सुख की ओर प्रवृत्त करने का प्रयास करते हैं। वे बताते हैं कि जीव-जगत और ब्राह्म का अभिन्न अटूट रिश्ता है। प्रकृति पर विजय प्राप्त करना सभ्यता या मनुष्य का लक्ष्य नहीं हो सकता। प्रकृति हमारी माता है, वह हमें जन्म देती है, हमारा पोषण करती है। अत: प्रकृति के दोहन के बजाय हमें उसके पोषण का भाव अपनाना चाहिए।किन्तु आधुनिक सभ्यता प्रकृति पर विजय पाने का अहंकार लेकर आगे चली। उसने प्रकृति का जमकर दोहन किया। कुछ समय तक उसे लगा कि प्रकृति उसके सामने नतमस्तक है। पर अब जब प्रकृति ने उलटवार प्रारंभ किया है, अपना रौद्ररूप दिखाना प्रारंभ किया है तब मानव और उसका विज्ञान अपने को असहाय पा रहे हैं। दक्षिण पूर्वी एशिया में सुनामी, सर्वशक्तिमान अमरीका पर कैटरीना, रीटा और विल्मा जैसे समुद्री तूफानों का आक्रमण,कश्मीर और पाकिस्तान पर भूकम्प, मुम्बई, बंगलौर, विशाखपट्टनम, चेन्नै, उड़ीसा और बंगाल में भारी वर्षा के कारण तबाही ने मानव सभ्यता की कमजोरी को नंगा कर दिया है। इन बड़े-बड़े महानगरों में वर्षा से उत्पन्न बाढ़ ने सभ्यता का चक्का जाम कर दिया। बंगलौर जैसा आई.टी. स्वर्ग एकाएक नरक जैसा दिखने लगा। विज्ञान ने हाथ खड़े कर दिए हैं। उसे स्वीकार करना पड़ा कि वह आने वाले भूकम्प या सुनामी की सही-सही भविष्यवाणी करने में असमर्थ है। अब वह इतना ही कह रहा है कि पर्यावरण का संतुलन बिगड़ गया है, प्राकृतिक शक्तियों के संतुलन को बिगाड़ने के लिए हमारी वर्तमान सभ्यता और जीवन शैली ही जिम्मेदार है, इन्हें बदलना होगा, अन्यथा मानव जाति और उसकी सभ्यता का सर्वनाश सुनिश्चित है। यह कहना कठिन है कि शुद्ध पेय जल के अभाव में मानव जाति प्यासी मरेगी या प्राकृतिक बाढ़ व समुद्री तूफानों के कारण डूब कर मरेगी। अथवा भूमंडलीय तापीकरण व ज्वालामुखी विस्फोटों के कारण भट्ठी में झुलस कर मरेगी। ये तीनों प्राकृतिक प्रकोप एक साथ उसे चारों ओर से घेर लेंगे। पर इस समय मानव जाति के अंत की चर्चा तो चल ही पड़ी है। वह अंत कब आयेगा, इस के बारे में अलग-अलग अनुमान है। 1972 में जब क्लाक आफ रोम ने सभ्यता के भविष्य के बारे में एक महत्वपूर्ण कम्प्यूटर स्टडी करायी थी तो उसकी भविष्यवाणी थी कि सभ्यता का यह चक्र सन् 2021 में आत्मनाश को आमंत्रित करेगा। एलविन टाफ्लर और शूमाकर जैसे चिन्तकों ने भी यही देखा। इधर कुछ वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि आर्कटिक महाद्वीप की हिमराशि 2050 तक नहीं तो 2100 तक अवश्य पिघल जाएगी। हिमखंडों का पिघलना प्रलय के सूचक होते हैं।भारत के लिए प्रलय और सृष्टि की भाषा नई नहीं है। हमने माना है कि सभ्यता की यात्रा चक्रीय होती है। प्रत्येक चक्र पूरा होने पर आत्मनाश या प्रलय को आमंत्रित करना, अव्यक्त स्थिति में आता है और सृष्टि के नए चक्र की पीठिका तैयार करता है। इसलिए पुराण के पांच लक्षणों में सर्ग और प्रतिसर्ग की बात की गई। कल्प, मन्वन्तर और युग की कालगणना में भी यही विश्वास अन्तर्हित है। अत: हमारी आस्था है कि सभ्यता का कोई भी चक्र स्वयं को पूरा किए बिना रुकेगा नहीं। सभ्यता के प्रवाह को रोक पाना असंभव है। उससे व्यक्तिगत स्तर पर बाहर निकलना संभव हो सकता है। यदि हम यह आस्था लेकर चलें कि भौतिक सभ्यता परिवर्तनशील और नश्वर है किन्तु मैं स्वयं किसी अविनश्वर सनातन अमरसत्ता का अंश हूं और अपने उस रूप का साक्षात्कार करने का प्रयत्न ही मुझे सभ्यता के मरणपाश से बाहर निकाल सकता है तो मुझे सभ्यता की बाहरी चकाचौंध से ऊपर उठकर अन्तर्मुखी बनने का प्रयास करना होगा, अपने दैवी भाव को जगाना होगा। विज्ञापन के इस युग में जब विज्ञापन केवल अर्थ और काम की वासना को उद्दीपित कर रहा है, केवल सैक्स और अपराध बेच रहा है, हमें अपना सुख अपने भीतर खोजना होगा। सभ्यता के इस गहराते अंधेरे के बीच अपनी अन्तज्र्योति से अपने उद्धार का मार्ग खोजना होगा।(27 अक्तूबर, 2005)NEWS

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