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नेपाल को सैन्य सहायता से भारत का इनकारकहीं महंगी न पड़े यह ठसकहमारे सत्ता अधिष्ठान के बाबुओं की क्या कहिए, एक बुरी परिस्थिति को बदतर बनाने में उनका कोई सानी नहीं है! जब नेपाल नरेश ज्ञानेन्द्र ने 1 फरवरी, 2005 को सरकार बर्खास्त करके आपातकाल लगाया था तो भारत अच्छी तरह जानता था कि अब उसके सामने संकट की स्थिति उपजने वाली है। लेकिन उसकी प्रतिक्रिया जाहिर करने में भारत को तीन सप्ताह लग गए- और अब शाही नेपाली सेना को सहायता से हाथ खींच लेने की शक्ल में प्रतिक्रिया सामने आई है। न जाने क्यों मुझे यह लग रहा है कि यह सब बड़ी सीमित दृष्टि का परिणाम है।इसमें दो राय नहीं कि नेपाल में संवैधानिक राजशाही और भारत की मित्र सरकार काम करे तथा माओवादी आतंक लेशमात्र भी न हो, यही सबसे बेहतर परिस्थिति है। लेकिन दुर्भाग्य से, दुनिया जैसी है हमें उससे उसी रूप में व्यवहार करना होता है न कि जिस रूप में उसे होना चाहिए उससे। आइए उन परिदृश्यों पर नजर डालते हैं जो इन घटनाक्रमों के कारण संभावित हैं।परिदृश्य 1: माओवादी अपने हमले तेज कर देते हैं और देश के ज्यादातर हिस्सों पर अपनी पकड़ बना लेते हैं। नेपाल के 75 में से 39 जिलों पर अब भी उनका राज है। अगर भारत लोकतंत्र बहाली के नाम पर नेपाली सेना को आपूर्ति बंद करने का फैसला करता है तो इस बात के ज्यादा आसार हैं कि राजा ज्ञानेन्द्र और उनकी सेना माओवादियों के सामने हाथ खड़े कर दे। तब माओवादी भारत में बसे अपने नक्सलवादी साथियों से हाथ मिला लेंगे।परिदृश्य 2: अगर राजा ज्ञानेन्द्र भारत के सैन्य आपूर्ति रोकने के फैसले से खफा हो गए तो क्या होगा? यह याद रखना चाहिए कि उनके लिए पाकिस्तान और चीन से मदद लेने के रास्ते खुले हुए हैं। उससे उन्हें माओवादियों को पटकनी देने का दमखम आ जाएगा। जीत जाने के बाद राजा (और शायद उनके उत्तराधिकारी भी) जब तक जीवित रहेंगे, भारत के शत्रु बने रहेंगे।परिदृश्य 3: भारत सरकार अपने फैसले से पलटते हुए नेपाली सेना को सैन्य आपूर्ति बहाल कर देती है। नेपाल के नेता लोग इसका पुरजोर विरोध करेंगे। भले ही राजा ज्ञानेन्द्र माओवादियों के खिलाफ संघर्ष जारी रखें, नेपाल के लोगों का एक वर्ग भारत से नफरत करेगा।यह उस भीषण क्रिकेट टेस्ट मैच जैसा होगा जिसमें भारत के जीतने की कोई उम्मीद न हो और वह ड्रा से बेहतर कुछ सोच ही न सके। आज नेपाल के संदर्भ में इसका अर्थ है ऐसे समाधान के लिए काम करना जिससे वहां ऐसी सत्ता बने जो भारत-विरोधी न हो। क्या काठमाण्डू में माओवादी तानाशाही इस जरूरत को पूरा करेगी? क्या इस्लामाबाद और बीजिंग की सहायता पर आश्रित रहने वाली सरकार भारत के हित में होगी? इन सवालों पर गौर कीजिए और तब बताइए कि नेपाली सेना को आपूर्ति रोक देना भारत के हित में कैसे रहेगा?बेशक, वाशिंगटन और लंदन में लोकतंत्र बहाली के लिए हो रहे प्रदर्शनों की आवाजें मैंने भी सुनी हैं। लेकिन भाषणबाजी से कहीं महत्वपूर्ण भूगोल होता है। न तो अमरीका नेपाल का पड़ोसी है, न इंग्लैण्ड। दोनों में से किसी को भी अपने यहां नक्सलवादियों के घुस आने का खतरा नहीं है। और साफ कहूं तो जैसी कि अमरीकी और ब्रिटिश बातें करते हैं, न तो माओवादियों के दिल में लोकतंत्र के प्रति सम्मान है, न नेपाली सेना के। हमें ऐसी विदेशी नीति अपनानी है जो हमारे हित में हो, न कि आधी दुनिया दूर बसे शूं-शां करने वाले राजनयिकों के।कुछ पाठक सोचते होंगे कि राजा ज्ञानेन्द्र के चीनियों और पाकिस्तानियों के नजदीक जाने की बात करके मैं कोई हौव्वा खड़ा कर रहा हूं। दुनिया के एकमात्र हिन्दू देश का राजा कभी भी इस्लामी गणतंत्र और कम्युनिस्ट राज्य के साथ मेल नहीं बिठाएगा। क्या ऐसा ही है? आखिर वह क्यों ऐसा नहीं करेगा? राजतंत्र की मांग होती है कि एक शासक को अपने देश को सुरक्षित रखने के लिए हर तरह का प्रयास करना चाहिए। यही कारण है कि धुर-रूढ़िवादी विंस्टन चर्चिल दूसरे विश्व युद्ध में स्टालिन के पाले में था और यही कारण था कि राजा महेन्द्र ने पाकिस्तान को नेपाल में पैर जमाने दिए।15 दिसम्बर, 1960 को वर्तमान राजा ज्ञानेन्द्र के पिता राजा महेन्द्र ने संसद भंग करके 1959 का संविधान निलम्बित कर दिया था। नेपाली कांग्रेस के नेता- बी.पी. कोइराला, सूर्य प्रसाद उपाध्याय और गणेश मान सिंह- गिरफ्तार कर लिए गए थे और सभी राजनीतिक दलों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। जवाहरलाल नेहरू ने तब ठीक ऐसी ही प्रतिक्रिया की थी जो आज की केन्द्र सरकार ने की है यानी आपूर्ति रोककर राजा के हाथ बांधने की कोशिश। गुस्साया राजा पाकिस्तान की ओर मुड़ गया था।ध्यान रखें कि उस समय तक नेपाल ने पाकिस्तान के साथ राजनयिक संबंध बनाने की बात तक नहीं सोची थी। (पूर्वी पाकिस्तान, अब बंगलादेश, दूरी के हिसाब से काफी करीब था।) दिल्ली द्वारा दर्शायी गई जरूरत से ज्यादा प्रतिक्रिया ने ही नेपाल और पाकिस्तान के बीच संबंधों की पहल करवाई थी। साउथ ब्लाक के मठाधीश शायद इस पर भी गौर करें कि भारत का वह पैंतरा रत्तीभर की फर्क नहीं डाल पाया था और तीस साल बाद ही राजा बीरेन्द्र ने राजनीतिक गतिविधियां फिर शुरू करने की आज्ञा दी थी। आखिर भारत का 2005 का यह कृत्य 1960 के उस कृत्य से अधिक प्रभावशाली क्यों होगा? हालांकि तब से अब तक कई बदलाव आए हैं। पहला, उस समय किसी तरह की माओवादी गतिविधियों का भय नहीं था। दूसरा, चीन 40-45 साल पहले की तुलना में आज कहीं ज्यादा ताकतवर है- आर्थिक रूप से और सैन्य दृष्टि से भी। तीसरे, राजा ज्ञानेन्द्र चीनियों के साथ, अपने पिता और अपने बड़े भाई से, कहीं ज्यादा मेल-जोल रखते हैं। (चीनी नियंत्रण वाला हांगकांग निवेश के मामले में शाही परिवार का पसंदीदा स्थान है।) दूसरे शब्दों में, 1960 को देखते हुए भारत के लिए आज भू-राजनीतिक परिस्थिति कहीं अधिक खराब है।भारत के लिए कोई सुविधाजनक विकल्प नहीं है। उदार लोकतंत्र के सिद्धान्त न तो माओवादियों को भाते हैं, न नेपाली सेना को। लेकिन काठमाण्डू में माओवादी राज एक बदतर विकल्प है और इससे कुछ कम बदतर है पाकिस्तान और चीन पर आश्रित नेपाल। नेपाल को भारतीय सहायता रोक देने से ये दोनों ही विकल्प कहीं आगे चलकर संभावित जान पड़ते हैं। हमने तर्क के बजाय भाषणबाजी को तरजीह दी है और हम इसकी कीमत चुकाएंगे।(23.2.2005)NEWS
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