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मंथन

by
Jun 2, 2005, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 02 Jun 2005 00:00:00

देवेन्द्र स्वरूपइस फारवर्ड ब्लाक कानेताजी से क्या रिश्ता?फारवर्ड ब्लाक के महासचिव एवं संसद सदस्य देवव्रत विश्वास नाराज हैं कि नेताजी सुभाषचंद्र बोस की 108वीं जन्मतिथि पर संसद के केन्द्रीय कक्ष में संसद द्वारा आयोजित श्रद्धांजलि समारोह में कोई भी कांग्रेसी मंत्री नेताजी के चित्र पर पुष्पांजलि चढ़ाने नहीं पहुंचा। उनका कहना है कि यदि नेहरू-इंदिरा परिवार के किसी सदस्य की जयंती होती तो एक भी कांग्रेसी मंत्री अनुपस्थित न रहता। उन्हें अधिक पीड़ा इस बात की है कि लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी, जो उनकी सहयोगी पार्टी माकपा के नेता हैं और बंगाली हैं, वे भी इस महत्वपूर्ण कार्यक्रम से अनुपस्थित रहे। देवव्रत विश्वास की पीड़ा में हम सहभागी हैं। हमें भी गहरी पीड़ा है कि नेताजी सुभाष बोस के भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अति महत्वपूर्ण योगदान को भुला दिया गया है। सबसे बड़ी बात है कि जिस प्रेरणा, आदर्शों और स्वप्न को लेकर उन्होंने सर्वोच्च त्याग और संघर्ष का मार्ग अपनाया उसके बारे में कोई अध्ययन-मनन आज देश में नहीं चल रहा। गांधी जी की इच्छा के विरुद्ध कांग्रेस के अध्यक्ष पद को जीतने, गांधी जी से उनके मतभेद, कांग्रेस से निष्कासन, फारवर्ड ब्लाक की स्थापना, अंग्रेजों के सुरक्षा पहरे को भेदकर विदेश पलायन, हिटलर से भेंट, पनडुब्बी में बैठकर जर्मनी से हजारों किलोमीटर दूर जापान पहुंचने का खतरा, रास बिहारी बोस और जनरल मोहन सिंह द्वारा गठित आजाद हिंद फौज का सेनापतित्व ग्रहण करके अंदमान टापू, मणिपुर में मोरांग और नागालैंड में कोहिमा तक स्वतंत्रता की विजय पताका फहराने जैसे अनेक रोमांचकारी और स्फूर्तिदायक साहसी प्रसंगों में ही उनकी स्मृति सिमट कर रह गयी है। किन्तु साहस और रोमांच की इन गाथाओं के पीछे नेताजी की जीवन-प्रेरणा, दार्शनिक निष्ठा और भावी भारत का स्वप्न क्या था, इस पर कोई चर्चा आज देश में नहीं दिखायी देती।यह दिखावा क्यों?नेताजी के जीवन के इस पक्ष की उपेक्षा का यदि कोई सबसे बड़ा अपराधी है तो वह उनके नाम पर राजनीति की दुकान चला रही फारवर्ड ब्लाक है। क्या साल में एक बार नेताजी के चित्र पर पुष्प चढ़ाना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है? क्या केवल यह राग अलापते रहकर कि 1945 में विमान दुर्घटना में उनकी मृत्यु नहीं हुई थी और इसकी जांच की मांग का आग्रह करते रहने से फारवर्ड ब्लाक क्या नेताजी का गौरव बढ़ा रहा है? भारतीय मानस पर जीवन के अंतिम क्षण तक संघर्षरत नेताजी के बलिदान की जो वीर छवि अंकित है, क्या वे ऐसा करके उस छवि को धूमिल नहीं कर रहे हैं? इससे भी बड़ी बात यह है कि नेताजी की जीवन-प्रेरणा एवं आदर्शों से पूर्ण सम्बन्ध-विच्छेद करके संसद और विधानसभा में दो-चार सीटें पाने के लोभ में फारवर्ड ब्लाक ने स्वयं को कम्युनिस्ट पार्टियों का पुछल्ला बना लिया है। इसे नेताजी के प्रति विश्वासघात कहें या उनके नाम पर राजनीतिक व्यापार? आज का फारवर्ड ब्लाक क्या स्वयं को सुभाष बाबू द्वारा 3 मई, 1939 को स्थापित फारवर्ड ब्लाक का सच्चा उत्तराधिकारी कहलाने का अधिकारी है?नेताजी के जीवन चरित्र एवं विचारों का अध्ययन करने से स्पष्ट हो जाता है कि जीवन के प्रारंभ से अंत तक उनकी निष्ठा भारत की प्राचीन संस्कृति एवं आध्यात्मिक दर्शन में अविचल रही। अपने बाल्यकाल से ही उन्होंने स्वामी विवेकानद के आध्यात्मिक चिंतन और छत्रपति शिवाजी की रणनीति से प्रेरणा ग्रहण की। सांसारिक सुखों में उनकी रुचि कभी नहीं रही। उनका आध्यात्मिक मानस हिमालय की गुफाओं में तपस्या करने के लिए छटपटाता रहा। केवल 14-15 वर्ष की आयु में ही उनका विरक्त मन उन्हें हिमालय की ओर खींच ले गया। वहां वे गुफाओं, कन्दराओं और आश्रमों में ऐसे गुरु की खोज में भटकते रहे जो उन्हें आत्मसाक्षात्कार करा सके। वहां से निराश होकर वे मथुरा में स्वामी परमानंद और वृन्दावन में स्वामी रामकृष्णदास को मिले। वाराणसी आये। वहां रामकृष्ण मिशन के स्वामी ब्राह्मानंद से अध्यात्म चर्चा की। उनसे संन्यास की दीक्षा देने का बहुत आग्रह किया किन्तु स्वामी ब्राह्मानंद ने उन्हें समझाया कि “संन्यास जीवन से चुपचाप पलायन का नाम नहीं है, बल्कि माता-पिता और संसार के समक्ष वैराग्य की निर्भीक घोषणा का नाम है। अत: जाओ और अपने माता-पिता की अनुमति लेकर ही संन्यास मार्ग पर आगे बढ़ो।” सुभाष बाबू ने यह बात मानी। उनका वीर विरक्त मन संन्यास और मातृभूमि की स्वतंत्रता के बीच झूलता रहा। सरकारी नौकरी न करने का उनका संकल्प था, किन्तु आई.सी.एस. की परीक्षा को पास करके दिखाने की पिताजी की चुनौती को स्वीकार कर वे 1920 में इंग्लैंड चले गये।इंग्लैंड में रहते हुए भी उनका मन स्वदेश में ही अटका रहा। उन दिनों की उनकी मन:स्थिति और जीवन दृष्टि पर बहुत अच्छा प्रकाश उन पत्रों से पड़ता है, जो उन्होंने इंग्लैंड से अपने एक सहपाठी और मित्र क्षेत्रेशचंद्र चट्टोपाध्याय को लिखे। ये क्षेत्रेश चट्टोपाध्याय प्रयाग विश्वविद्यालय के एक श्रेष्ठ और मेधावी शिक्षक के रूप में जाने जाते हैं। अपने पहले पत्र में सुभाष बाबू ने क्षेत्रेश को लिखा,”विवेकानन्द के दल ने बहुत सारा कार्य किया है, बहुत सारी शिक्षा भी दी है। बहुत बड़ा उदाहरण प्रस्तुत किया है। अब हम लोगों को उनके उदाहरण का अनुसरण करके उनकी भी तुलना में और बड़ा बनने की चेष्टा करनी होगी। विवेकानन्द ने अनेक आइडिया (विचार-सूत्र) दिये हैं। अब हम लोग उन्हें कार्यान्वित करेंगे। आइडिया तो पुस्तक में भी है। आइडिया अगर सिर्फ मन में रहता है तो पुस्तक और मनुष्य में फर्क क्या रहा? आवश्यकता है कुछ कार्य करने की। विवेकानंद के आइडिया के शतांश का एक अंश भी यदि कार्य में परिणत कर सके तो हम धन्य होंगे। तुम सब आओ, देखें हम लोग कुछ कर सकते हैं या नहीं। हम उन्हें याद करें या न करें, हमारी सत्चेष्टा एवं सत्कार्य के पीछे तो वे हैं ही।”क्षेत्रेश के पत्र से यह जानकर कि वे ग्रीक दर्शन का अध्ययन कर रहे हैं, सुभाष बाबू को बहुत कष्ट हुआ। कैम्ब्रिाज से 17 मार्च, 1920 के पत्र में उन्होंने क्षेत्रेश को फटकारते हुए लिखा, “पत्र में क्या लिखूं? ह्यदय जानता है कि मन में क्या है। आज जगत में हम लोग कहां हैं। हमेशा रवीन्द्रनाथ ठाकुर का गीत याद आता है, “दिन आगत ऐई, भारत तोबु कोई।” जगत् में हम लोगों का स्थान नगण्य, घृणित एवं लांछनयुक्त है। फिर भी हम लोग मेष की तरह सो रहे हैं। फिर भी हम सुख से नौकरी कर रहे हैं। हर वर्ष पुत्र उत्पादन कर रहे हैं एवं पुत्र-कन्या का विवाह करके दिवालिया हो रहे हैं।” पोलेंड, मांटेनेग्रो, अर्मानिया, सर्बिया, आयरलैंड, मिस्र, चीन और जापान आदि देशों में राष्ट्रीय जागृति का उदाहरण देते हुए सुभाष बाबू मित्र क्षेत्रेश को उलाहना देते हैं-“फिर भी हमारे देश के चरित्रवान, विद्वान एवं बुद्धिमान युवक ग्रीक दर्शन के अध्ययन में जीवन नष्ट करना चाहते हैं। इससे भारतवासियों को क्या फर्क पड़ता है कि ग्रीक दर्शन का सत्य आविष्कृत हुआ या नहीं। अभी भारत की वह स्थिति नहीं आयी है कि यहां की चरित्रवान, बुद्धिमान सन्तान ग्रीक सभ्यता का आलोक खोजने में अपना जीवन खपा दे।” अपनी मनोव्यथा को उड़ेलते हुए इस पत्र में आगे लिखते हैं – “हमारी सभ्यता के आलोक की खेाज कर रहे हैं मैकडोनेल, मैक्समूलर और वेबर। हम उनकी पुस्तकें पढ़कर अपना परिचय पा रहे हैं। अपना परिचय पाने के लिए विलायत से पुस्तक मंगवाकर पढ़नी होगी, यह स्थिति कब तक चलेगी? फिर भी तुम लोग समय, शक्ति एवं अर्थ व्यय करके ग्रीक भाषा के अध्ययन में निमग्न हो। लज्जा एवं दुख की बात है।”प्राचीन भारतीय दर्शन एवं संस्कृति के अध्ययन की दिशा बताते हुए सुभाष बाबू लिखते हैं-“पहली बात- संस्कृत साहित्य के इतिहास से सम्बन्धित एक भी अच्छी पुस्तक भारतवासी द्वारा लिखित नहीं है।दूसरी बात- भारतीय ज्ञान एवं संस्कृति के विकास पर आर.सी. दत्त को छोड़कर किसी भी अन्य भारतवासी द्वारा लिखित पुस्तक नहीं है।तीसरी बात – भारतीय दर्शन के इतिहास पर एक भी अच्छी किताब नहीं है जबकि यूरोपीय दर्शन के इतिहास पर सैकड़ों किताबें हैं।चौथी बात – भारतीय जातियों एवं उनके विकास अर्थात् भारतीय जन के बारे में किसी भारतीय द्वारा लिखित कोई समाजशास्त्रीय अध्ययन उपलब्ध नहीं है। फलस्वरूप, पाश्चात्य पण्डित यह कहने का साहस करते हैं कि पुनर्जन्मवाद एक बर्बर मिथकवाद का अवशेष मात्र है। मैं पूछता हूं ये सब लांछन और कितने दिनों तक सहने होंगे? फिर भी क्या ग्रीक भाषा के अध्ययन में जीवन दांव पर लगाओगे?””पाश्चात्य लोगों के अनुसार हम भेड़ों के झुण्ड की तरह हैं। कब तक यह सुनते रहेंगे? तुम सब यदि वास्तविक जगत के इस सब कड़वे यथार्थ को भूल जाओ, तो किसकी आंख खुलेगी? तुम्हारा केवल वेद के अन्दर वास करने से काम नहीं चलेगा। भारतवर्ष के अन्दर वास करना होगा। मानता हूं कि वेद इतना महान, इतना गहरा है कि उसके अंदर सैकड़ों क्षुद्र प्राणी डूब सकते हैं। परन्तु हमारा डूबने का समय अभी नहीं आया है। इस समय वास्तविक जगत का कठोर आघात हमारे देश के द्वार पर ध्वनित हो रहा है। अभी द्वादश वर्षाणि व्याकरण मधीयते कहने का समय नहीं आया है।”विदेश में स्वदेश चिंताजिन दिनों यह पत्राचार चल रहा था, उन्हीं दिनों भारत में गांधी जी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन का शंखनाद गूंजने लगा। 17 फरवरी, 1921 के पत्र में सुभाष बाबू क्षेत्रेश को लिखते हैं, “यहां सारे भारतवासियों का ध्यान देश में चल रहे असहयोग आंदोलन की ओर लगा हुआ है। असहयोग की बाढ़ ने देश के सभी वर्गों को झकझोरा है। यह एक बहुत बड़ी चीज है। मेरी समझ में असहयोग आन्दोलन हमारे देश में छात्रों एवं जनसाधारण के लिए अधिक फलदायी होगा, क्योंकि वे ही अधिक त्याग स्वीकार पाएंगे।”इंग्लैंड में अंग्रेज जाति पर असहयोग आंदोलन के प्रभाव का वर्णन करते हुए सुभाष बाबू कहते हैं, ” साधारण अंग्रेज युवक (एवं व्यस्क भी) भारत के सम्बन्ध में बहुत अधिक नहीं जानता और जानना चाहता भी नहीं। वह जानता है कि अंग्रेज एक महान जाति है एवं भारतवासियों को सभ्य बनाने के लिए अपनी हानि सहकर भी वह भारत गयी है। इस धारणा के लिए जिम्मेदार हैं हमारे एंग्लो इंडियन अफसर एवं पादरी लोग। ईसाई मिशनरी हमारी संस्कृति के महान शत्रु हैं- यह बात मैंने इस देश में आकर समझी। वे मिशन के लिए पैसा इकट्ठा करने हेतु अंग्रेज पब्लिक को यह समझाने का प्रयास करते हैं कि भारतवासी एक असभ्य जाति है एवं “भील” अथवा “कोल” जातियों की फोटो मंगवाकर इस देश में दिखाते हैं।”सुभाष बाबू का निष्कर्ष है कि इन लोगों को तथ्यों और तर्क से नहीं समझाया जा सकता। उसके लिए भारत में जनान्दोलन ही एकमात्र उपाय है। वे लिखते हैं, “भारतवर्ष में जितना ही अधिक आंदोलन होगा अंग्रेज उतना ही भारतवर्ष के संबंध में अधिक समाचार पाते रहेंगे। आजकल असहयोग का समाचार लगभग प्रत्येक समाचार पत्र में रहता है। भारतवर्ष में आंदोलन होने से और भी एक सुफल फलित हुआ है। अब ब्रिाटिश पूंजीपति हमारे देश में नयी पूंजी लगाने से डरने लगे हैं। इण्डियन सिविल सर्विस की ओर भी लोग उतने आग्रही नहीं रहे। डरते हैं कि भारतवर्ष में आजकल भारतीय मंत्री के नीचे काम करना होगा।”अतीत के प्रति गौरव भाव उत्पन्न करने की आवश्यकता पर बल देते हुए सुभाष बाबू लिखते हैं, “तुमने लिखा है कि अतीत के गौरव पर देशभक्ति को प्रतिष्ठित करना उचित नहीं है। बात सही है और मैं भी चाहता हूं कि जिस विषय को लेकर अतीत गौरवमय नहीं है, उसे गौरवान्वित करना उचित नहीं है। फिर भी हमारे अतीत के इतिहास में गर्व करने योग्य बहुत कुछ है एवं न्याययुक्त गर्व से बहुत शक्ति मिलती है। प्रत्येक अंग्रेज की नस-नस में अतीत के गौरव की कहानी सदा विराजमान है।”क्या प्राचीन भारत के इतिहास के प्रति यह दृष्टि देवव्रत विश्वास के कम्युनिस्ट मित्रों को स्वीकार्य है? यदि नहीं तो वे उनके पास क्यों चिपके हुए हैं?अगले पत्र में 6 अप्रैल, 1921 को आक्सफोर्ड से वे क्षेत्रेश को लिखते हैं, “यूरोप की घटनाओं के प्रति मेरा कोई विशेष आग्रह नहीं है। हमारी दृष्टि में आग्रहपूर्ण आकांक्षा भारत की ओर है। वहां की घटनाओं की वर्तमान स्थिति क्या है एवं उसका भावी परिणाम क्या हो सकता है, (यह) जानने के लिए मेरा मन अत्यंत व्याकुल हो उठा है। आशा है तुम्हारा नेत्रदोष पूरी तरह से दूर हो गया है। तुमने क्या तय किया है, जानने के उत्सुक हूं।”इसी पत्र में वे लिखते हैं, “गांधी इस समय एक अन्तरराष्ट्रीय व्यक्तित्व हैं। मेरे भाईसाहब फ्रांस घूमने गये थे। वहां उन्होंने एक अध्यापक से गांधी का नाम सुना एवं उनकी प्रशंसा भी। अंग्रेजों में भी जो लोग चिन्तन शक्ति एवं निष्पक्ष हैं वे गांधी के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हैं।”कम्युनिज्म अस्वीकारगांधी जी के प्रति आदर का यह भाव सुभाष के मन में हमेशा बना रहा। स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए अहिंसा के प्रश्न पर उनका गांधी जी से मतभेद था। इसी प्रश्न पर 1939 में उन्होंने गांधी जी के प्रत्याशी पट्टाभि सीतारमैया को हराकर कांग्रेस का अध्यक्ष पद जीता था। कार्यसमिति के गठन को लेकर उनका गांधी जी से लम्बा पत्राचार हुआ, अन्तत: उन्हें कांग्रेस को छोड़ना पड़ा और विदेश जाना पड़ा, किन्तु फिर भी विदेश से 2 अक्तूबर, 1943 को अपने रेडियो सन्देश में उन्होंने गांधी जी की महानता का वर्णन किया। गांधी जी के असहयोग आंदोलन से प्रेरित होकर ही वे आई.सी.एस. को ठोकर मार कर भारत लौट आए और पूरी शक्ति से स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े।स्वतंत्रता आंदोलन में स्वयं को समाजवादी कहते हुए भी उन्होंने कम्युनिज्म को स्वीकार नहीं किया और 1934 में लिखित अपनी पुस्तक “दि इंडियन स्ट्रगल” में जवाहरलाल नेहरू की 18 दिसम्बर, 1933 के उस वक्तव्य की कड़ी आलोचना की, जिसमें उन्होंने कम्युनिस्ट विचारधारा को चुनने की घोषणा की थी। सुभाष बाबू का समाजवाद भारत की मिट्टी में से उपजा था। कम्युनिज्म उन्हें क्यों स्वीकार्य नहीं है इस बात को उन्होंने “दि इंडियन स्ट्रगल” पुस्तक और नवम्बर, 1944 में टोकियो विश्वविद्यालय के छात्रों के समक्ष “भारत का वर्तमान और भविष्य” विषय पर बोलते हुए स्पष्ट शब्दों में प्रस्तुत किया। अपने इस अंतिम और ऐतिहासिक प्रबोधन में उन्होंने भारत की प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति के प्रति अपनी गहरी निष्ठा को प्रस्तुत किया। भारतीय कम्युनिस्टों ने उन दिनों नेताजी को “तोजो का कुत्ता” जैसी भद्दी-भद्दी गालियां दीं, फारवर्ड ब्लाक के भूमिगत स्वतंत्रता सेनानियों को गिरफ्तार कराया। और अब देवव्रत विश्वास वाला फारवर्ड ब्लाक उन्हीं कम्युनिस्टों के तलुवे चाट रहा है। वे भारतीय संस्कृति के विरुद्ध उसी की भाषा में बोल रहे हैं। कम से कम इसे सुभाष बाबू द्वारा स्थापित फारवर्ड ब्लाक तो नहीं ही कहा जा सकता। (28-1-2005)NEWS

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