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हर पखवाड़े स्त्रियों का अपना स्तम्भ”स्त्री” स्तम्भ के लिए सामग्री, टिप्पणियां इस पते पर भेजें-“स्त्री” स्तम्भद्वारा, सम्पादक, पाञ्चजन्य, संस्कृति भवन, देशबन्धु गुप्ता मार्ग, झण्डेवाला, नई दिल्ली-55तेजस्विनीकितनी ही तेज समय की आंधी आई, लेकिन न उनका संकल्प डगमगाया, न उनके कदम रुके। आपके आसपास भी ऐसी महिलाएं होंगी, जिन्होंने अपने दृढ़ संकल्प, साहस, बुद्धि कौशल तथा प्रतिभा के बल पर समाज में एक उदाहरण प्रस्तुत किया और लोगों के लिए प्रेरणा बन गईं। क्या आपका परिचय ऐसी किसी महिला से हुआ है? यदि हां, तो उनके और उनके कार्य के बारे में 250 शब्दों में सचित्र जानकारी हमें लिख भेजें। प्रकाशन हेतु चुनी गईं श्रेष्ठ प्रविष्टि पर 500 रुपए का पुरस्कार दिया जाएगा।डा. प्रीति निगोसकरवह सतरंगी तूलिका-श्रीति राशिनकरडा. प्रीति निगोसकर द्वारा बनाया गणपति का सुंदर तैलचित्र”चित्र मेरा स्वच्छंद स्पंदन है, उसमें दर्द नहीं उभरता। दर्द लिखने में उभरता है, पर रंगों में, चित्रों में मेरे हाथ, मन-मस्तिष्क कभी उदासी चित्रित नहीं कर सकते। मैं अंदर से कभी उदास नहीं होती हूं।” ये शब्द हैं भोपाल (म.प्र.) की डा.प्रीति निगोसकर के जिन्होंने जीवन के प्रत्येक मोड़ पर दु:खों को झेलते होती हुए, संघर्ष करते हुए यह साबित किया है कि, मन में कुछ नया करने की उम्मीद इंसान को अन्तत: सफलता अवश्य दिलाती है।29 सितम्बर 1955 को ग्वालियर में जन्मी प्रीति जन्म से ही शारीरिक विकलांगता का शिकार बनीं। बचपन में बच्चे उड़ती हुई तितलियों के पीछे दौड़ते हैं। लेकिन प्रीति अस्पताल के कमरे में डाक्टरों व परिचारिकाओं के बीच कमर के नीचे प्लास्टर में लिपटी पड़ी रहती। बिस्तर पर ही प्रीति की मां व मौसी नन्ही प्रीति को कागज के फूल बनाना, रंगीन पेंसिल से चित्रों में रंग भरना सिखातीं। यहीं से शुरू हुआ प्रीति का चित्रकार बनने का सफर।डाक्टर बनकर विकलांगों की विकलांगता दूर करने का सपना संजोए प्रीति बैसाखियों के सहारे विद्यालय जाने लगी, लेकिन विकलांगता के कारण ही उसका वह सपना पूरा न हो पाया। विद्यालय के चित्रकला एवं मूर्तिकला शिक्षक की प्रेरणा से प्रीति ने पहली बार तूलिका हाथ में ली। उज्जैन में कालिदास बाल चित्रकला प्रतियोगिता में प्रीति को म.प्र. में सर्वश्रेष्ठ बाल चित्रकार पुरस्कार मिला। तभी से चित्रकला की दुनिया में उनका सफर शुरू हुआ।उज्जैन के पद्मश्री स्व. विष्णु वाकणकर के मार्ग-दर्शन में प्रीति ने खैरागढ़ विश्वविद्यालय से बी.एफ.ए. (चित्रकला में स्नातक) किया। प्रीति यहां की प्रथम छात्रा रही जिसने इस विश्वविद्यालय से उपाधि हासिल की थी। नियति के आगे हार न मानने वाली प्रीति प्रसिद्ध चित्रकार स्व. श्रीधर बेन्द्रे के सानिध्य में भी रही। पुणे में स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम पूरा कर रही थी, तब वहां के राजा दिनकर केलकर संग्रहालय के संस्थापक श्री केलकर से मुलाकात हुई और उनके आग्रह पर प्रीति संग्रहालय का काम सम्भालने लगी। लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। एक दिन प्रीति से बिस्तर से उठते ही नहीं बना। उसी हालत में उसने अपनी स्नातकोत्तर परीक्षा दी। उसके बाद डाक्टर ने प्रीति के पैरों का आपरेशन किया। लेकिन यहां फिर नियति आड़े आयी। आपरेशन के बाद उसका एक पैर छोटा हो गया। पैर में आपरेशन से स्टील की छड़ डालने के बाद ही वह खड़ी हो सकी। प्रीति कहती है, “समाज विकलांगों को अलग ही नजर से देखता है। मैंने अपनी नानी से बहुत कुछ सीखा जो हिंगणे स्त्री शिक्षा विद्यालय के पहले छात्रों से एक थीं। मुझे चित्रकला का स्वछंद गीत शायद मेरी नानी ने ही सिखाया।”विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन से प्रीति ने चित्रकला में पीएच.डी.उपाधि हासिल की। वह बताती हैं, “आपरेशन के बाद मैंने अपने दर्द के साथ दूसरों का दर्द भी जानने की कोशिश की। विकलांगों की संस्था का गठन किया।”बचपन से लेकर अब तक चित्रकला में प्रीति ने अनेकों पुरस्कार जीते हैं। वर्ष 1977 व 1988 में दो बार अ.भा. कालिदास मूर्ति एवं चित्रकला प्रदर्शनी में विशेष एवं प्रथम पुरस्कार उन्हें मिला है। चंडीगढ़, अमृतसर, शिमला, भोपाल जैसे अनेक स्थानों पर आयोजित अखिल भारतीय स्तर की चित्र प्रदर्शनियों में प्रीति के चित्रों का चयन हुआ है। इसके अलावा खुद प्रीति ने भारत भर में अपने चित्रों की एकल प्रदर्शनियां लगाई हैं।प्रीति कुशल चित्रकार तो हैं ही, साथ-साथ कविताएं भी लिखती हैं। वह कहती हैं, “मुझे अपने समाज से सहेलियों एवं रिश्तेदारों से हमेशा सहयोग मिला है जिसके सहारे आज मैं इस मंजिल पर पहुंची हूं। आज चित्रकला के प्रति लोगों का रुझान बढ़ा है। समाज में कलाकार को आदर की दृष्टि से देखा जाने लगा है, जो शुभ संकेत है। कलाकारों को जो अवसर मिल रहे हैं उन्हें उसे खोना नहीं चाहिए। प्रत्येक कलाकार को कला के प्रति समर्पित होना चाहिए।जीवन के प्रति आशावादी दृष्टिकोण रखने वाली प्रीति अपनी कला के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित है। वह कहती है, “जीवन के हर मोड़ पर मुझे मेरे माता-पिता, बहनों एवं ऐसी महिलाओं ने, जो कुछ क्षणों के लिए मिलीं एवं बिछड़ गईं, सहारा दिया। उनसे मैंने बहुत कुछ सीखा है। गुरु स्व. वाकणकर का वाक्य था “चरैवेति…. चरैवेति”। वह कहते, बिस्तर पर चित्र नहीं बना सकती तो शब्दों से अपनी भावनाएं व्यक्त करो। जिस माध्यम से मन का सौंदर्य सृष्टि पर उंड़ेल सकती हो, उस माध्यम को अपनाओ। तभी तो प्रीति कहती हैं- “कभी सिल्क पर जलरंग, तो कभी कपों पर प्रयोग होते हैं। रंगों की दिलचस्पी जिंदगी के प्रति लगाव और बढ़ा देती है। कभी मैं आसमां का बादल बन जाती हूं तो कभी चिड़िया की चहक, तो कभी मन को बारिश की रिमझिम गीला कर जाती है…..और मेरे जीवन का केन्वस सतरंगी हो उठता है।”निश्चित ही प्रीति के चित्रों में खुशियां ही खुशियां हैं। ये चित्र जीवन की मुस्कान बिखेरते हैं तो प्रीति के शब्द जीवन के प्रति ललक पैदा करते हैं।NEWS
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