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वचनेश त्रिपाठी
अहमदुल्ला शाह
फकीर वेश में क्रांतिकारी
कितनी निन्दात्मक और लज्जास्पद बात है कि सन् 1857 की क्रांति में अंग्रेजों के छक्के छुड़ाने वाले क्रांतिकारियों को इतिहास लेखक सैयद कमालुद्दीन हैदर हसनी हुसैनी ने अपने इतिहास ग्रंथ “कैसरुत्तवारीख”, भाग-2, पृष्ठ 203-204 पर “फासिद” (फसाद करने वाले) और “शोहदे” जैसे अपमानजनक शब्दों से याद किया है। सैयद कमालुद्दीन हैदर महान क्रांतिवीर मौलवी अहमदुल्ला शाह के विषय में लिखते हैं, “अहमदुल्ला फकीर भी ब-इरादये-फासिद बादशाहत-लखनऊ फौज के साथ था।” अर्थात् मौलवी अहमदुल्ला सन् 1857 में जो भी संघर्ष अंग्रेजों के विरुद्ध कर रहे थे, वह सत्ता-प्राप्ति यानी शासक बनने के लिए ही थी। परन्तु सैयद कमालुद्दीन हैदर की यह टिप्पणी नितान्त झूठ का ही पर्याय थी, क्योंकि मौलवी अहमदुल्ला शाह फैजाबाद को अंग्रेजों से आजाद कराकर 30 जून, 1857 को कुकरायल पहुंचे थे। उस समय उनके साथ 15 हजार क्रांतिकारी थे। हनुमान जी के मंदिर के पास ही उस दिन कैप्टन लारेन्स से मौलवी का भीषण संग्राम हुआ, जिसमें अहमदुल्ला शाह ने लारेन्स को पराजित कर मार भगाया। मौलवी अहमदुल्ला शाह ने लखनऊ में अंग्रेजों को लोहे के पुल तक खदेड़ा और उस समय युद्ध करते हुए 111 अंग्रेज परलोक भेज दिए। ये आंकड़े स्वयं तत्कालीन अंग्रेज कैप्टन हैण्डर्सन ने दिए हैं। मौलवी ने अंग्रेजों से अनेक तोपें छीनकर कब्जे में कर ली थीं। अलबत्ता गोली लगने से मौलवी का एक पैर जख्मी हुआ, पर वह वीर पुरुष तब भी अंग्रेजों पर वार करता रहा और उसने तब तक विराम न लिया, जब तक अंग्रेजों को लखनऊ की बेलीगारद तक न खदेड़ दिया। हजारों की संख्या में अंग्रेज प्राण भय से भागकर बेलीगारद में जा छिपे। क्रांतिकारियों ने बेलीगारद पर घेरा डाल लिया। एक तरह से उस दिन लखनऊ से अंग्रेजों का राज्य उखड़ गया। अनन्त: 1 जुलाई, 1857 को अहमदुल्लाह शाह ने “मच्छी भवन” पर भी चढ़ाई कर दी। उस युद्ध में लखनऊ के आम लोगों ने भी भाग लिया। हर आदमी अस्त्र-शस्त्रों के साथ अंग्रेजों से लड़ा। परन्तु अफसोस “कैसरुतवारीख” के लेखक सैयद कमालुद्दीन हैदर की नजर में वे सब हिन्दू-मुसमलान लड़ाकू क्रांतिकारी “शोहदे” और “फसादी” ही थे। लानत है ऐसे अंग्रेजपरस्त लेखक पर। पश्चात् 2 जुलाई, 1857 को मौलवी अहमदुल्ला शाह के नेतृत्व में क्रांतिकारी सेना ने बेलीगारद पर धावा बोल दिया। तभी बेलीगारद में छिपे हेनरी लारेन्स पर तोप का गोला गिरा, जिससे वह बुरी तरह क्षत-विक्षत होकर एक दिन बाद मर गया। मौलवी अहमदुल्ला शाह की क्रांतिकारी सेना में हिन्दू सैनिक कम नहीं थे। पर विप्लवी सेना ने अपना प्रधान मौलवी अहमदुल्ला शाह को ही चुना था। यह मौलवी सत्ता से दूर रहा। गद्दी की कभी चाह नहीं की। आजादी के ही लिए उसने फकीरी ली थी। लखनऊ के घासमंडी मुहल्ले का यह मौलवी विजयी होकर भी फकीरी ही ओढ़े रहा। एक इतिहासकार मुहम्मद अजमत अलवी ने अपने इतिहास-ग्रंथ “मुरक्कये” में विस्तार से प्रकाश डाला है कि मौलवी अहमदुल्ला शाह खुदगर्जी और पदलिप्सा से किस तरह दूर रहे। वरना चाहते तो वे वजीरे-आजम बन सकते थे। फरवरी, 1857 तक इसी मौलवी ने मेरठ-दिल्ली-पटना-कलकत्ता आदि छावनियों तक फकीर के रूप में ही दौरा करके क्रांति की अलख जगाई थी।
ये अपने साथ नगाड़ा और झण्डा रखने से “नक्कारा शाह” कहे जाते थे। मूल निवासी ये दक्षिणस्थ अर्काट (चेन्नई) के थे। लखनऊ के मुहाफिजखाने के “बस्ता-गदर नंबर-1” में यह प्रसंग दर्ज है कि जब मौलवी को फैजाबाद में पकड़कर अंग्रेजों ने फरवरी, 1857 में फांसी की सजा सुनाई थी, तब जेल में मौलवी को एक चिकित्सक नजफ अली ने हुक्का पीने दिया। इस, जुर्म पर उसको भी 14 साल कालेपानी की सजा दी गई। पर क्रांतिकारी सेना ने 8 जून, 1857 को फैजाबाद जेल से मौलवी और चिकित्सक को आजाद करा लिया था। लखनऊ से निष्कासित होने के बाद वह मौलवी फैजाबाद में रहने लगे थे। उसके बाद ही उन्होंने रुहेलखण्ड तक में जाकर अंग्रेजों से युद्ध किया और अंग्रेज कमाण्डर कालिन कैम्पबेल तक को पराजित किया। स्वातंत्र्यवीर वीरसावरकर ने लन्दन में लिखेे अपने क्रांति इतिहास ग्रंथ “भारत का प्रथम स्वातन्त्र्य संग्राम” में मौलवी अहमद अली शाह (अहमदुल्ला शाह) की वीरता और जुझारूपन की मुक्तकण्ठ से सराहना की है। अंग्रेजों ने यह ग्रंथ सन् 1907 में प्रकाशित होने से पूर्व ही जब्त कर लिया था।
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