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ईसाई इतिहास से पहले के पंथ एकजुट होने लगे<p style=f

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Nov 7, 2004, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 07 Nov 2004 00:00:00

ईसाई इतिहास से पहले के पंथ एकजुट होने लगे

दुनिया के देशज पंथों ने एकस्वर में कहा-

विविधताओं का सम्मान हो

रूस के प्रतिनिधि एलेक्जेंडर पेत्सको रूसी पारम्परिक पद्धति से सागर देवता का आह्वान करते हुए

पवित्र शिला एक्रेपोलिस पर स्थित ग्रीक मंदिरों के जीर्णोद्धार का कार्य चल रहा है। मन्दिर में बने शिल्प को सहेजते हुए शिल्पकार

देवी एथीना के वाहन उल्लू की प्रतिमा, हवन सामग्री और सूर्य भगवान के प्रतीक के साथ पारम्परिक ग्रीक पद्धति से देवताओं का आह्वान करते हुए ग्रीक पुजारी प्रतिनिधि

एथीना देवी के भव्य मन्दिर के अवशेष। इसे दुनिया का सबसे सुघड़ वास्तुशिल्प का नमूना कहा जाता है। एथीना को विद्या की देवी माना जाता है।

जोनास त्रिकुनास डा. टी.एच. चौधरी श्याम परांडे

पारम्परिक वाद्य बजाते हुए लिथुवानिया के प्रतिनिधि

सहभागी प्रतिनिधि

नाम देश

जोनास तिंकुनास लिथुवानिया

वेसिलिस त्सांतिलास ग्रीस

पेड्रो ओरटेगा स्पेन

कुर्त और्तेल जर्मनी

इसाबेल जौस जर्मनी

श्याम परांडे भारत

माइकल स्ट्रमिस्का अमरीका

इनिजा तिंकुनीने लिथुवानिया

मारीना प्साराकी ग्रीस

जैस्सी कौर सिंह आस्ट्रेलिया

व्लासिस रास्सीयाज ग्रीस

गुंटर स्टींनेक्के जर्मनी

लोरेन्जा मिंटो इटली

जरजेन वंदेबोटरमेट बेल्जियम

एलेक्जेंडर पेत्सको रूस

डा. टी.एच.चौधरी भारत

डा. रेक्युल सीजास कोस्टा स्पेन

पेनाजिओटिस न्टाउफास ग्रीस

बालकृष्ण चौधरी यू.के.

स्टीफान वान देन इंदे बेल्जियमम

ज्यां लियोंनेल मांक्सावत फ्रांस

सुरिन्दर पाल अत्री अमरीका

आइजा स्वीलेन लात्विया

कोनराड लोग्गे बेल्जियम

प्रतीम एस. रंगर यू.के.

क्लाउडियो सिमीयोनी इटली

रामन्त्स जैनसन्स लात्विया

राजिन्दर सिंह यू.के.

एक्विजा साप्रोस्का लात्विया

-प्रतिनिधि

कोई निर्गुण का उपासक है तो कोई सगुण का, कोई सूर्य की पूजा करता है तो किसी पंथ में चंद्र-स्तुति की जाती है। दुनिया में विभिन्न उपासना पद्धतियां हैं और उनके उपासक विभिन्न रूप-रंग के हैं। इसे ही कहते हैं विविधता। और ऐसे ही विविध देशज पंथों के प्रतिनिधियों का 7वां सम्मेलन ऐतिहासिक ग्रीक नगरी एथेन्स में गत 4-6 जून तक सम्पन्न हुआ। ग्रीस में ज्ञान की देवी एथीना के मंदिर और एक्रोपोलिस की पवित्र शिला के निकट सम्पन्न हुआ यह सम्मेलन तथाकथित विकसित राष्ट्रों व अन्य यूरोपीय देशों में मानवीय और पांथिक अधिकारों के हनन के विरुद्ध एक सशक्त अभिव्यक्ति जैसा रहा। विभिन्न देशज पंथों के इस समागम में बाल्टिक क्षेत्र की अपनी वैदिक परम्पराओं पर गर्व करने वाले लिथुवानियाई और लात्वियाई थे तो बेल्जियम के असात्रु भी, स्पेन और इटली के पंथों के प्रतिनिधि थे तो फ्रांस और जर्मनी के देशज भी रूसी थे और ग्रीक प्रतिनिधि भी। यू.के. और अमरीका से पहुंचे हिन्दू प्रतिनिधियों के अलावा भारत से भी हिन्दू प्रतिनिधि इस सम्मेलन में शामिल हुए थे। पश्चिमी सोच यानी जीवन का आनंद लेते हुए दुनिया को एक खूबसूरत और उमंगपूर्ण स्थान मानने के पीछे वस्तुत: ग्रीक भाव का प्रभाव रहा है, जबकि पूरब की संस्कृति भारतीय भाव पर आधारित है। भारतीय और ग्रीक विचारों के समन्वय ने मानव जीवन को संचारित किया है और पूर्व काल का गहन संभ्रम दूर किया है। इस पृष्ठभूमि में सम्मेलन में भारत से पहुंचे हिन्दू प्रतिनिधियों की सहभागिता महत्वपूर्ण थी। अपने द्वारा प्रस्तुत शोध पत्रक और विभिन्न मुद्दों पर विचारों के कारण प्रज्ञा भारती (आंध्र प्रदेश, भारत) के अध्यक्ष डा. टी.एच. चौधरी खासे चर्चित रहे।

सेवा इंटरनेशनल संस्था के महासचिव श्री श्याम परांडे ने हिन्दू-धर्म और भारतवर्ष का वास्तविक स्वरूप प्रस्तुत किया। सम्मेलन में आए देशज पंथों के प्रतिनिधियों के भाषणों से साफ जाहिर था कि वे ईसा-पूर्व की अपनी पुरातन जड़ों की ओर लौटने को उत्सुक हैं। वहां प्रस्तुत प्रपत्रों से इस तथ्य की भी पुष्टि हुई कि अब इन सूक्ष्म समूहों में पर्याप्त साहस है और वे किसी भी दबाव के आगे झुकने को तैयार नहीं। जर्मनी के एक प्रतिनिधि ने “हीदन” परम्परा का उल्लेख किया। यह नाम उन पर सदियों पहले आक्रमणकारी शक्तियों द्वारा थोपा गया था और स्थानीय पम्पराओं को रौंदकर उन्हें ईसाई बना दिया गया था। सम्मेलन का विषय था “उच्च नैतिक मूल्य और प्राचीन परम्पराएं”। इसमें देशज पंथों से जुड़े अनेक मुद्दों पर चर्चा हुई।

सम्मेलन में प्रस्ताव पारित करके आज की दुनिया में देशज परम्पराओं की अर्थपूर्ण प्रस्तुति का आह्वान किया गया, यूरोप में मूलभूत मानवीय और पांथिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहने तथा दुनिया में पारंपरिक और पांथिक विविधता बनाए रखने की बात कही गई। कुल मिलाकर 5 प्रस्ताव पारित किए गए।

यूरोप में ज्ञानोदय काल का विस्मरण अनुचित

यूरोपीय संघ के अध्यक्ष बर्टी अहर्न को सम्बोधित इन प्रस्तावों में पहले प्रस्ताव के जरिए सम्मेलन के प्रतिनिधियों ने शीघ्र बनने जा रहे यूरोपीय संविधान में यूरोपीय सभ्यता की संभावित “ईसाई जड़ों” के उल्लेख के प्रति विरोध दर्ज किया।

प्रस्ताव में कहा गया है, “इस तरह का संदर्भ एक बहुत बड़ी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक भूल होगी जो यूरोपीय पहचान को रक्तरंजित मतान्तरण, ग्रंथों को जलाने और अपराध तय करने के कालखण्ड तक संकुचित कर देगी। साथ ही, यह न केवल यूरोपीय ज्ञानोदय की शरारतपूर्ण अनदेखी कर देगी बल्कि ईसा पूर्व के उज्ज्वल यूरोपीय काल को भी विस्मृत कर देगी।”

प्रस्ताव में आगे कहा गया, “बीता हुआ वह उज्ज्वल समय, जिसके हम जीवंत विस्तार हैं, विभिन्न स्वदेशी, जातीय, प्राकृतिक और जैविक बहुदेववादी पंथों तथा प्रकृति के उपासक और स्वाभिमान तथा निर्बाध स्वतंत्रता को सम्मान देने वाले वंशज यूरोपीय लोगों की परम्पराओं से परिपूर्ण रहा। साथ ही, इनमें से कुछ पंथ और परम्पराओं विशेष रूप से हेलेनिक और रोमन ने मानववाद के विचार का सूत्रपात किया और उनका संवद्र्धन किया। यह न केवल यूरोपीय ज्ञानोदय

के लिए एक आदर्श जैसा रहा, बल्कि प्रत्येक सभ्य समसामयिक व्यक्ति के लिए भी एक महान आदर्श के समान रहा है।

एक विशेष कानून

इस प्रस्ताव में ग्रीक सरकार से अपील की गई कि वह, लिथुवानिया में जैसा किया गया, ग्रीस में भी एक विशेष कानून के तहत देशज हेलेनिक पंथ की सुरक्षा करे।

“रोमूवा” को मान्यता

इस प्रस्ताव के तहत लिथुवानिया के स्थानीय पंथ “रोमूवा” को लिथुवानिया का पारंपरिक पंथ मानते हुए उसे राज्य की ओर से मान्यता प्रदान करने की अपील लिथुवानिया सरकार से की गई है।

डा. मनमोहन सिंह को शुभकामना

चौथे प्रस्ताव में सम्मेलन के प्रतिनिधियों ने डा. मनमोहन सिंह को भारत के पहले सिख प्रधानमंत्री बनने पर शुभकानाएं दीं।

लात्विया का मुद्दा

पांचवें प्रस्ताव में लात्विया सरकार से यह मांग की गयी है कि वह लात्वियावासियों को बिना किसी बाहरी दखल के अपने पूर्वजों के आध्यामिक मुद्दे सुलझाने की छूट दे। इन प्रस्तावों पर सम्मेलन में आए सभी प्रतिनिधियों ने हस्ताक्षर किए। (हस्ताक्षरकर्ता प्रतिनिधियों के नाम अलग से बाक्स में दिए गए हैं।)

सम्मेलन में भाग लेने आए प्रतिनिधियों ने एथीना व पासीडोन के मंदिरों की यात्रा की, जो एथेन्स से 40 कि.मी. दूर गहरे नीले भूमध्यसागर के निकट स्थित हैं। सभी ने वहां अपने रीति-रिवाजों के अनुसार पूजा-अर्चना की। 8वें सम्मेलन में बेल्जियम में फिर से मिलने के संकल्प के साथ यह आयोजन सम्पन्न हुआ।

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