सिंहस्थ से प्रारंभ होगा
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सिंहस्थ से प्रारंभ होगा

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Nov 4, 2004, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 04 Nov 2004 00:00:00

युग परिवर्तन-डा. प्रणव पण्डाअन्तरराष्ट्रीय प्रमुख, गायत्री परिवारभारत की प्राचीनतम महानगरियों में से एक महाकालेश्वर की उज्जयिनी विगत तीन माह से पुन: चर्चा में है। इतिहास, धर्म-दर्शन, आयुर्वेद, ज्योतिष, योग, वेद-वेदान्त, चमत्कार एवं साम्प्रदायिक सद्भाव की विलक्षण नगरी है उज्जयिनी। यह भारत के ह्मदय “मालवा” अर्थात मालव प्रदेश में स्थित है। वृहत्तर भारत (हिंगलाज माता, बलूचिस्तान से श्यामदेश तक) की नाभि उज्जयिनी को ही माना जाता है। यहां इस वर्ष अप्रैल-मई माह में सिंहस्थ महाकुम्भ है। हालांकि प्रयाग, नासिक, हरिद्वार एवं उज्जयिनी को यह सौभाग्य प्राप्त है कि प्रति बारह वर्ष में इन स्थानों पर महाकुम्भ रूपी ज्ञानयज्ञ, बाजपेय महायज्ञ आयोजित होते हैं, जिनमें लाखों-करोड़ों लोगों की श्रद्धा का चमत्कार देखने को मिलता है। साथ ही आध्यात्मिक स्तर पर विकसित महापुरुषों का समागम भी। किन्तु भारत की प्राचीन “नाभिस्थल” मानी जाने वाली उज्जयिनी का सिंहस्थ एक विशेष महत्व रखता है।कुम्भ की कथा तो विख्यात है ही। समुद्रमंथन से निकले अमृत-कलश को दानवों के हाथ जाने से बचाने में छलका अमृत तत्व कुछ बूंदों के रूप में इन चार स्थानों पर गिरा एवं इस क्षेत्र को ही नहीं, यहां की गंगा, यमुना, सरस्वती, गोदावरी, क्षिप्रा नदियों को भी अमृतमयी बना गया। उज्जयिनी में कुम्भ पर्व के साथ सिंहस्थ होने के कारण से इसका विशिष्ट महत्व है। दस ज्योतिर्विज्ञान परक योग-बैसाख मास, शुक्ल पक्ष पूर्णिमा, मेष राशि पर सूर्य, तुला राशि पर चन्द्र, सिंह राशि पर बृहस्पति, स्वाति नक्षत्र, व्यतीपात योग, सोमवार एवं उज्जयिनी की पावन भूमि इसे महत्वपूर्ण बना देते हैं। सिंह राशि में गुरु की स्थिति को यहां परम तेजस्वी माना गया है, इसी कारण यहां के बारह वर्षीय महाकुम्भ का नाम सिंहस्थ है। संवत 2012 में अन्य नौ योग थे पर सिंह में गुरु के न होने से यहां सिंहस्थ नहीं मनाया गया। 17 अप्रैल, 2004 से 16 मई, 2004 तक में दसों विशिष्ट योग यहां सम्पन्न होने जा रहे हैं।भारतीय मनीषियों ने आदिकाल से अपने इतिहास, महत्वपूर्ण घटनाक्रमों एवं व्यक्तियों को सदैव स्मरण में रखने के लिए न केवल इतिहास और साहित्य की रचना की अपितु उन्हें जनजीवन के साथ भी जोड़ दिया। उन्हें सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक परम्पराओं के रूप में स्थापित कर दिया। रामनवमी, कृष्ण जन्माष्टमी, पूर्णमासी, चतुर्थी आदि के व्रत हमारे पूर्वजों के कार्यों की स्मृति दिलाते हैं। वैदिक काल से लेकर आज तक की प्रमुख घटनाओं, व्यक्तित्वों और उनके आदर्शों-सिद्धांतों को भारतीय मनीषा ने जनजीवन के लिए नित्य, नैमित्तिक कर्म के रूप में समाहित कर लिया है। इतिहास एवं संस्कृति के सागर को एक गागर में भरकर, उस गागर के कुम्भ को बुद्धिमतापूर्वक हर भारतीय के कंधे पर रखा गया है। इसी अमृतकुम्भ का प्रभाव है कि हर भारतीय अपने को अमृतपुत्र मानता है।कुम्भ पर्व हमारे इतिहास की एक महान घटना की स्मृति संजोए हुए है। दो संस्कृतियों, दो विचारधाराओं, दो जीवनपद्धतियों के युगपरिवर्तनकारी संघर्ष एवं फलदायी परिणाम की स्मृति। असुरत्व पर देवत्व की विजय, भौतिकवाद पर अध्यात्मवाद का वर्चस्व, मृत्योऽर्मा अमृतंगमय की यात्रा, मृत्यु को जीतकर अमरत्व की प्राप्ति के संकल्प की कथा, नश्वर से ऊपर उठकर ईश्वरत्व को पाने का मानवी सत्साहस। हम सबके जीवन में नित्य देवासुर संग्राम प्रतिबिम्बित होता रहता है। कुम्भ हमें बताता है कि जो देवों को प्रिय हैं, अमृत उन्हें ही मिलना चाहिए। जीवन मूल्यों की टकराहट के इस युग में कहीं आसुरी संस्कृति, पाश्चात्य सम्पदा विजयी न हो जाए, इसका स्मरण दिलाने का पर्व है यह कुम्भ। यह हमें याद दिलाता है कि हमें दोनों को समानुपाती बनाकर साथ चलना है। कहीं ऐसा न हो कि विज्ञान पर भोगवादी, आसुरी पक्ष हावी हो जाए। ज्ञान और विज्ञान को जीवन में स्थान देने की प्रेरणा देते हैं ये कुम्भ महापर्व।शास्त्रों में कुम्भ पर्व की महिमा अर्थ और काम रूपी लौकिक (विज्ञान परक) तथा धर्म और मोक्षपरक पारलौकिक (आध्यात्यमिक) जीवन के चार पुरुषार्थों की प्राप्ति के रूप में बतायी गयी है। तीर्थ स्नान, पर्वकालीन व्रत-दान, पाठ-पूजा, यज्ञ-यज्ञादि धर्म प्रदान करते हैं यानी इससे पाप कटते हैं। कर्म संस्कार क्षीण होते हैं एवं प्रारब्ध सुधरता है। मोक्ष का मार्ग भी इसमें भागीदारी से प्रशस्त होता है। हमारी बुद्धि निर्मल हो जाती है, प्रज्ञा का विकास होता है एवं व्यवस्थित बुद्धि से युक्त व्यक्ति ज्ञान समागम द्वारा एक कुशल, कार्यक्षमता सम्पन्न व्यक्ति बनता है। धनार्जन के अवसर बढ़ते हैं, अत: अर्थ भी प्रचुर मात्रा में प्राप्त होता है। विद्वत्समाज की गोष्ठियों व ज्ञान-चर्चाओं में सामाजिक समस्याओं के समाधान ढूंढे जाते हैं। इससे समाज को स्फूर्ति मिलती है। मनोरंजन के अनेक साधन उपलब्ध होने के कारण काम अर्थात् उल्लास का विधेयात्मक नियोजन होता है। इस समागम में अपनी अंत:ऊर्जा का सार्थक सुनियोजन करने हेतु अनेक आयाम सीखने को मिलते हैं। कामबीज का रूपान्तरण ज्ञानबीज में होता है। यही विशेषता है कुम्भपर्व की, इनमें पुरुषार्थ चतुष्टय का भलीभांति सम्पादन होता है।सिंहस्थ उज्जयिनी में होने से कई विलक्षण योग एक साथ मिल जाते हैं। महाकालेश्वर की यह नगरी सुरम्य क्षिप्रा तट पर बसी है। नगर के पास एक पहाड़ी से गिरती क्षिप्रगति से चलने वाली यह नदी मालवा में अपनी पवित्रता बिखेरती हुई चम्बल में समा जाती है। क्षिप्रा का स्मरण मात्र ही पापमुक्त कर देता है, ऐसा हमारे पुराण कहते हैं। समुद्रतट से 1658 फीट की ऊंचाई पर 23.9 अंश अक्षांश एवं 74.75 अंश पूर्व रेखांश पर बसी यह नगरी शिवलिंगों से युक्त है। यहां 84 महादेव हैं, 64 योगिनियां तथा अनेक देवियां हैं। पृथ्वी पुत्र मंगल की उत्पत्ति भी यहीं हुई मानी जाती है। प्राचीन मान्यतानुसार उज्जयिनी एक सिद्धपीठ है, जिसे चारों तरफ से देवियों का सुरक्षा कवच पहनाया गया है। नगरकोट की महारानी गढ़कालिका एवं हरसिद्धि देवी इसकी रक्षा करती हैं। विक्रमादित्य, कालिदास एवं भर्तृहरि की यह नगरी तंत्रसाधना में विशेष स्थान रखती है। यहां अष्टभैरव एवं छत्तीस सौ भैरव मंदिर हैं। छह प्रख्यात विनायक तथा अनेक हनुमान मंदिर यहां विद्यमान हैं। यहां वृद्ध महाकालेश्वर हैं तो युवा महाकालेश्वर भी। द्वादश ज्योतर्लिंगों में दक्षिणामुखी ज्योतिर्लिंग होने का सौभाग्य मात्र इन्हीं महाकालेश्वर को प्राप्त है। वराहमिहिर के अनुसार लंका से सुमेरु पर्वत तक जो देशान्तर रेखा गयी है वह महाकाल के ऊपर से जाती है एवं वर्ष में एक बार (21 मार्च के दिन) सूर्य को महाकालेश्वर के ठीक मस्तक पर विद्यमान देखा जाता है। सूर्य की यह स्थिति उज्जयिनी के अतिरिक्त दुनिया के किसी भी अक्षांश पर नहीं है। यहां का काल और समय का निर्धारण सबसे सरल एवं सही माना जाता है।कार्तिक मेला, शनिश्चरी अमावस्या, सोमवती अमावस्या, त्रिवेणी मेला, श्रावण की सवारी, चिंतामन की यात्रा, पंचकोशी यात्रा एवं उससे भी ऊपर सिंहस्थ पर्व इसे चारों कुम्भ स्थानों में श्रेष्ठ स्थान सिद्ध करते हैं। इसे एक जाग्रत, जीवन्त तीर्थ बना देते हैं। देश-विदेश से करोड़ों व्यापारी यहां आदिकाल से आते रहे हैं तथा उज्जयिनी व्यवसाय का एक प्रमुख केन्द्र रही है। जैन,बौद्ध और शैव तीर्थों में एक मानी जाने वाली यह नगरी तब साम्प्रदायिक सद्भाव का केन्द्र बन जाती है जब महाकाल की सवारी में मुस्लिम बैण्ड चलते हैं एवं मत्स्येन्द्र नाथ की समाधि पर हिन्दू-मुस्लिम शारदोत्सव मनाते हंै। सभी मतों सम्प्रदायों को मानने वाले साधु-संत व अखाड़े यहां एकत्र होते हैं।अखिल विश्व गायत्री परिवार, जिसका मुख्यालय हरिद्वार के शान्ति कुञ्ज गायत्री तीर्थ में है, प्रत्येक महाकुम्भ पर्व, सिंहस्थ पर विशिष्ट आयोजन करता है। इसके अन्तर्गत प्रतिदिन प्रात: से सायं तक 108 कुण्डीय यज्ञ एवं ज्ञान-चर्चाएं चलती हैं। इसमें आने वाले प्रत्येक श्रद्धालु को जाति, पंथ, मत, लिंग के भेद से परे नि:शुल्क भाग लेने की छूट है। इसके साथ षोड्स संंस्कार भी यहां सम्पन्न किए जाते हैं। प्रतिदिन पुंसवन, मुण्डन, नामकरण, अन्नप्राशन, यज्ञोपवीत एवं श्राद्ध-तर्पण आदि संस्कार शान्तिकुंज के वरिष्ठ कार्यकर्ताओं के मार्गदर्शन में नि:शुल्क सम्पन्न होते हैं। भारतीय संस्कृति एवं कुम्भ के महात्म्य का कैसे अधिक से अधिक लाभ लें, इसकी परिचायक एक प्रदर्शनी भी यहां लगायी जाती है।इस सिंहस्थ में उज्जैन में गायत्री शक्तिपीठ अंकपात के तत्वावधान में एक विराट ज्ञानयज्ञ सम्पन्न होने जा रहा है, जो चार सप्ताह तक चलेगा। इसमें एक और विशेषता जोड़ी जा रही है, धर्मधुरन्धरों-महाकालेश्वरों के इस समागम में संभवत: कुम्भ के इतिहास में पहली बार आठ ब्राह्मवादिनी बहनों के माध्यम से यहां नारी सम्मेलन भी आयोजित हो रहा है। ये बहनें शांतिकुञ्ज की कार्यकर्ता हैं। वे यह प्रतिपादित करेंगी कि ऋषिगणों के साथ ऋषिकाएं भी समान रूप से धार्मिक कार्यों में भाग लेती रही हैं एवं स्त्री को भी गायत्री जप, यज्ञ एवं यज्ञोपवीत धारण करने-कराने का समान अधिकार है।यह सिंहस्थ एक युगपरिवर्तनकारी अवधि में आया है, जब सारा राष्ट्र आगामी पांच वर्षों के लिए अपने प्रतिनिधि चुन रहा है एवं सारे विश्व में भारत का डंका बज रहा है। भारतीय संस्कृति आने वाले दिनों में विश्वव्यापी होने जा रही है। कभी सारे विश्व को शांति एवं संस्कार का, योग एवं ज्ञान का संदेश भारत वर्ष ने ही दिया था। अब पुन: वह इतिहास दोहराया जाने वाला है। उन्नीसवीं सदी विज्ञान के उद्भव की, रसायन शास्त्र के जन्म की तथा विस्तार की सदी थी। बीसवीं सदी विज्ञान के विकास की-भौतिक शास्त्र, गणित एवं इलेक्ट्रानिक्स, कम्प्यूटर्स के विस्तार की सदी बनी। इक्कीसवीं सदी पूर्णत: अध्यात्मप्रधान व विज्ञान के संतृप्तीकरण की, जैव प्रौद्योगिकी के प्रसार की, मानव में देवत्व के उभार की एवं हिन्दुत्व के विश्व विस्तार की सदी होने जा रही है। सारा विश्व भारतमय होने जा रहा है। वृहत्तर भारत के निर्माण की संभावनाएं प्रबल होती दिखाई दे रही हैं। आगामी पंद्रह वर्षों में भारत का सांस्कृतिक नवोन्मेष होने जा रहा है एवं सारा विश्व उस चेतना से ओतप्रोत होगा। हम सभी ज्योतिर्विज्ञान की दृष्टि से इस उभार को इसी सिंहस्थ से और प्रचण्ड बल पकड़ता देखेंगे। इस महाकुम्भ की महिमा अनन्त रूपों में गायी जाएगी, क्योंकि यहीं से युग प्रत्यावर्तन का शुभारंभ हो रहा है। विगत तीन सौ वर्षों में जन्में हमारे सन्तों-ऋषियों का तप सार्थक होने जा रहा है एवं विश्वभारती का वैभव पुन: लौटकर भारत जगद्गुरु बनने जा रहा है। हम स्थूल रूप से न सही, सूक्ष्म तप से इस कुम्भपर्व में संकल्प स्नान कर स्वयं को इस दिशा में चलने हेतु तैयार करें, यहीं युगधर्म है।5

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