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कही-अनकही

by
Nov 4, 2004, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 04 Nov 2004 00:00:00

दीनानाथ मिश्रकांग्रेस से लोकतंत्र घटाओ तो मिले सोनियापत्रकारों ने पूछा- “क्या प्रियंका गांधी भी लड़ेंगी? और लड़ेंगी तो कहां से लड़ेंगी?” कांग्रेस प्रवक्ता ने जवाब में कहा- “वह चुनाव लड़ेंगी या नहीं लड़ेंगी और लड़ेंगी तो कहां से लड़ेंगी, इसका फैसला वह स्वयं करेंगी।” क्यों भई, पार्टी में कोई संसदीय बोर्ड नहीं है क्या, जिसको टिकट देने या न देने का अधिकार है? भले ही औपचारिकता के लिए ही सही, कम से कम संसदीय बोर्ड का ढांचा तो होना चाहिए। प्रियंका गांधी को यह अधिकार कहां से मिल गया कि वह अपने टिकट का फैसला स्वयं कर ले? वह कांग्रेस की लगती क्या है? क्या वह कांग्रेस कार्यसमिति की सदस्य या पदाधिकारी है? फिर यह विशेषाधिकार कहां से मिला उसे? कितना बेकार-सा सवाल है? कांग्रेस में पार्टी के अन्दर लोकतंत्र की जरूरत ही क्या है? पार्टी है ही क्या? सिर्फ व्यक्तिगत जागीर? वोट जनता का, वोट पर दैवी अधिकार खानदान का।कभी संसार भर में राजाओं और सम्राटों का राज चलता था। राजा के बाद राजा का बेटा राजा होता था। एक से एक नाकाबिल और जुल्मी शासकों को संसार की जनता झेलती रहती थी। पागल बादशाहों से संसार का इतिहास भरा पड़ा है। बहुत बार जब राजा बूढ़ा हो जाता और युवराज को शासन नहीं सौंपता था तो बेटा बर्दाश्त नहीं कर पाता था। बेटे को “मजबूरन” उन्हें दुनिया से विदा करना पड़ता था। ऐसे लोगों में एक नाम औरंगजेब का भी है। वह “नरम” दिल इन्सान था। उसने सिर्फ भाइयों को संसार से विदा किया और पिता को कैदखाने में बंद कर दिया।राजशाही हो, सम्राटशाही हो, शेखशाही हो- सब के सब खानदानवाद को आगे बढ़ाने वाले होते थे। राजा के पसंदीदा लोगों का इतिहास चांदी ही चांदी काटने का रहा है। अलबत्ता भारत में गणराज्यों के भी उदाहरण हैं। हजारों साल से पंचायत की महिमा है। अभी भी जातीय पंचायतों का अच्छा या बुरा फैसला कहीं-कहीं पर चल जाता है।पिछले तीन-चार सौ वर्षों में किसी तरह लोकतंत्र का विकास हुआ। लोकतंत्र का एक अर्थ यह है कि कुछ लोगों के राजनीतिक विशेषाधिकारों का अन्त। भाई लोग तर्क देते हैं कि जब अभिनेता की सन्तान अभिनय क्षेत्र में आ सकती है, जब प्राध्यापक का बेटा प्राध्यापक बन सकता है, तब राजनेताओं की संतान को राजनीतिक उत्तराधिकार क्यों नहीं मिल सकता?जी हां, तर्क तो दुरुस्त है। लेकिन एक शल्य चिकित्सक का बेटा शल्य चिकित्सक बने तो यह उसकी मर्जी की बात है। अगर वह अच्छा शल्य चिकित्सक नहीं है तो कोई रोगी अपनी जान उसके हवाले नहीं करेगा। पायलट का बेटा पायलट बनना चाहे तो बन सकता है। मगर जहाज तो फिर उसे ही उड़ाना पड़ेगा। बाकी सब धन्धों में सब स्वतंत्र हैं। अपना-अपना धन्धा चुनने के मामले में। मगर राजनीति की बात अलग है। राजनीति में आने के लिए न्यूनतम योग्यता की कोई सीमा- रेखा नहीं। यहां तो रसोई घर से निकलकर कोई राबड़ी सीधे मुख्यमंत्री बन जाती है। एक नहीं, कई राज खानदान हैं। शेख अब्दुल्ला, फारुख अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला अर्थात् तीन पीढ़ियां। मगर लोकतंत्र ने उन्हें पराजित कर दिया।नेहरू-गांधी राज-खानदान की बात ही अलग है। एक तो उनकी दावेदारी देश के सबसे बड़े पद की है। पार्टी उनकी जागीरदारी है। उसके नम्बर एक, नम्बर दो, नम्बर तीन पद पर भी खानदान का ही व्यक्ति चाहिए। आज कांग्रेस में दूसरे, तीसरे नम्बर का नेता कौन है?” कोई नहीं बता सकता। बताएगा तो राहुल गांधी को बताएगा, प्रियंका गांधी को बताएगा। उसके बाद… दसवीं पायदान पर दो-चार नेता गिनाए जा सकते हैं। सारे फैसले सोनिया गांधी के मोहताज हैं। काम-काज ऐसे चलता है जैसे संसदीय बोर्ड की पार्टी को कोई जरूरत ही नहीं है। दल के अंतर्गत लोकतांत्रिक कामकाज नहीं, तो राजकाज में भी लोकतंत्र अपना अर्थ खो देता है। अब राहुल गांधी की बात लीजिए। मालूम नहीं उन्होंने उस कोलम्बियाई लड़की से शादी कर ली है या करने वाले हैं, जिसके साथ हाल ही में उन्होंने केरल के कुमारगम में कई हफ्ते एक साथ गुजारे। एक और विदेशी बहू के शुभागमन के लिए देश को तैयार होना है। अभी से उन्हें भावी प्रधानमंत्री के रूप में कुछ अखबारों ने देखना चालू कर दिया है। इसलिए यह व्यक्तिगत मामला नहीं है।23

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