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प्रतिनिधिउज्जैन में समय-समय पर अनेक तरह की साधनाएं, उपासना एवं पूजा-अर्चना की जाती है, क्योंकि भूतभावन श्री महाकालेश्वर देव-दानव दोनों के ही आराध्य रहे हैं। ज्योतिर्लिंगों में महाकाल की दक्षिणमुखी प्रतिमा का तांत्रिक परम्परा में विशिष्ट स्थान रहा है। श्री महाकालेश्वर मंदिर स्थित गर्भगृह की भव्य व अलौकिक प्रतिमा दक्षिणमुखी होने के कारण तांत्रिक साधना में सिद्धि के लिए अपना विशिष्ट स्थान रखती है। भगवान महाकाल तांत्रिक उपासना के देवता माने जाते हैं। इस नगरी के धार्मिक, आध्यामिक एवं सांस्कृतिक आयोजनों में भी तंत्र साधनाओं की छाप कहीं न कहीं परिलक्षित होती है। उज्जयिनी कौल, कापालिक, पशुपतमत, तांत्रिक अभिचारों, वैष्णव मतवादों, नाथ संप्रदायों की हठयोगी साधनाओं तथा संतों-सूफियों की सहज आराधनाओं के प्राचीन प्रस्थानों की लीलाभूमि रही है।भूतभावन महाकाल की उपासना से जहां साधकों को सिद्धि की प्राप्ति होती है, वहीं उनके अनेक स्वरूपों का ज्ञान होता है। पुराणों में शिवरात्रि का महापर्व इस तांत्रिक साधना के लिए उपयुक्त बताया गया है। भगवान शिव को भूतनाथ भी कहा गया है, उनके इस स्वरूप को तांत्रिक अनुष्ठानों द्वारा प्रसन्न कर सिद्धियां व मनोकामनाएं प्राप्त की जाती हैं।सिद्धों के लिए महाकाल की सिद्धि उज्जयिनी में वर्षभर तांत्रिकों-मांत्रिकों-यांत्रिकों के आने का सिलसिला चलता रहता है। विश्वभर के तांत्रिक यहां आकर अपने साधना शिविर लगाते हैं। विशेषरूप से महाशिवरात्रि एवं सिंहस्थ महापर्व पर साधकों का आना बढ़ जाता है।उज्जैन नगर में तांत्रिक परम्परा बड़ी समृद्ध रही है। शिवरात्रि पर महाकाल की पूजा-अर्चना का विशेष महत्व है। इस दिन चार-बार पूजाएं, अभिषेक और आरती होती है। शिवरात्रि वर्ष में एकमात्र ऐसा महापर्व है, जिसमें दिन में सेहरा उतरने के बाद भस्मार्ती होती है। भगवान महाकाल कालचक्र के प्रवर्तक भी माने गए हैं।”तंत्र” शब्द के अनेक अर्थ हैं, उन्हीं में एक अर्थ है ऊमा अर्थात् शिव शक्ति की पूजा का विधान करने वाला शास्त्र। इसीलिए भगवान महाकाल की पूजा के विधान को तंत्र कहा जाता है।आगतं शिववक्त्तेभ्यो गतं च गिरिजा मुखे।मतं च वासुदेवस्य तत आगम उच्यते।।तंत्र का पर्यायवाची शब्द आगम है, जिसका अर्थ “आ-ग-म” इन तीन वर्णों के आधार पर शिव के मुख से आना, गिरिजा-पार्वती के मुख में पहुंचना और वासुदेव-विष्णु के द्वारा अनुमोदित होना प्रतिपादित है। वस्तुत: तंत्रों के प्रथम प्रवक्ता भगवान शिव-महाकाल ही हैं। इसीलिए महाकाल की यह नगरी सिद्ध पीठ मानी जाती है।अवन्तिखण्ड में उल्लेख है कि-श्मशानमूषरं क्षेत्रं, पीठं तु वनमेव च।पश्चैकत्र न लभ्यन्ते, महाकालवनाद् ऋते।।अर्थात् श्मशान, ऊबर, क्षेत्र, पीठ और वन ये पांचों साधनोपयोगी स्थल महाकाल वन के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं होते हैं।परमपिता परमात्मा से शक्ति उत्पन्न हुई तथा शक्ति से नाद और नाद से बिन्दु की उत्पत्ति हुई। परमात्मा शिव सगुण और निर्गुण दोनों स्वरूपों में हैं। उनके सगुण स्वरूप से ही शक्ति चैतन्य रूप में उत्पन्न हुई है। ये तीनों शक्तियां जहां स्थित हैं, वहीं बिन्दुओं से बना ज्योति स्वरूप प्रथम नाम “ॐ” है और इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि महाकाली ने विष्णु को इच्छा-शक्ति, ब्राह्मा को क्रिया-शक्ति और शिव को ज्ञान-शक्ति प्रदान की। वास्तव में निराकार महाज्योतिस्वरूपा जगत माता ने इस प्रकृति में सगुण स्वरूप दो रूप उत्पन्न किए हैं। प्रथम स्वरूप शिव का दूसरा शक्ति का। शिव स्वयं शक्ति के बिना शव के समान हैं। इसीलिए शक्ति की आराधना करने के लिए तंत्र साधना की जाती है। मानव ऊध्र्वगामी हो सकने की क्षमता प्राप्त कर सके, इसके लिए उसे आन्तरिक ऊर्जा मिलती है, तथा उदात्त प्रवृत्तियों का जागरण होता है।उत्तरवाहिनी क्षिप्रा का पूरा किनारा शिव उपासना में वैदिक और तांत्रिक दोनों विधियों के साधक के लिए बहुत महत्वपूर्ण रहा है। युगों से चले आ रहे इस साधना पथ में वैदिक मंत्र-संहिताओं से चयन किए गए मंत्र-संग्रह, रुद्राष्टाध्यायी, रुद्रसूक्त, नमक-चमकाध्याय, महा-मृत्युन्जय-मंत्र धन आदि प्रचलित हैं, वहीं तंत्र-प्रक्रिया से अभिषेक भी होता है। भगवान महाकाल शिव समस्त मंत्रागमों के उद्धारक तथा प्रवक्ता हैं। उज्जयिनी तांत्रिक-मांत्रिक और यांत्रिक परम्पराओं की पोषक और जननी रही है। इसके अन्त:स्थल में यह धारा आज भी अक्षुण्ण बह रही है। सिंहस्थ महापर्व पर उज्जैन के श्मशान घाट, क्षिप्रा नदी तट व चैतन्य स्थलों पर इन साधकों को साधना में लीन देखा जा सकता है। इस अर्थ में तांत्रिक परम्परा की सिद्धस्थली है उज्जयिनी और यहां के सिद्ध देव महाकाल हैं।22
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