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प्रतिनिधिपुण्य सलिला क्षिप्रा मालवांचल की मोक्षदायिनी गंगा है, जिसके तट पर हर बारह वर्ष में सिंहस्थ आयोजित होता है। क्षिप्रा सिर्फ नदी नहीं है, वरन् देशभर के करोड़ों श्रद्धालुओं की आस्था, विश्वास व अनुभूतियों की प्रतीक है, जिसमें अवगाहन कर श्रद्धालु अपने जीवन की मुक्ति और मोक्ष की कामना करता है।क्षिप्रा का उद्गम इन्दौर के पास स्थित महू नगर से उन्नीस किलोमीटर दूर विन्ध्यांचल पर्वत की एक पहाड़ी से हुआ है। यहीं से यह अपने तटों पर बसे विभिन्न जंगलों, पहाड़ियों, जमीनों और ग्रामवासियों को सुन्दर, सुरम्य एवं खुशहाल बनाती हुई 260 किलोमीटर की यात्रा तय कर चम्बल में विलीन हो जाती है। क्षिप्रा का उल्लेख वेदों में भी हुआ है। क्षिप्रा के लिए लिखा है:- “क्षिप्रे: अवे पय:।” साथ ही महाभारत, श्रीमद्भागवत तथा अन्य पुराणों में इसका अलग-अलग ढंग से उल्लेख किया गया है। महाकवि कालिदास ने क्षिप्रा का काव्यमय वर्णन किया है – “क्षिप्रावात: प्रियतम इव प्रार्थना चाटुकार:।” ऋषि वशिष्ठ के शब्दों में क्षिप्रा-स्नान मोक्षदायक है-महाकाल श्री क्षिप्रा गतिश्चैव सुनिर्मला।उज्जयिन्या विशालाक्षि वास: कस्य न रोचते।।स्नानं कृत्वां नरो यस्तु महानद्यां हि दुर्लभम्।महाकालं नमस्कृत्य नरो मृत्युं न शोचते।।इसका क्षिप्रा नाम क्षिप्र सरोवर से निकलने के कारण पड़ा है। तेज बहने वाली नदी के कारण इसको क्षिप्रा कहा गया है। इसके अन्य नामों का उल्लेख भी मिलता है। इस पुण्यसलिला क्षिप्रा को वैकुण्ठ में क्षिप्रा, स्वर्ग में ज्वरघ्नी, यमद्वार में पापघ्नी तथा पाताल में अमृतसंभवा कहा गया है। वामनपुराण के अनुसार भक्त प्रह्लाद ने क्षिप्रा में स्नान करने के उपरांत ही भूतभावन भगवान महाकाल और भगवान विष्णु के दर्शन किए थे। क्षिप्रा के उद्भव की अनेक पौराणिक कथाएं हैं। एक कथा इस प्रकार है-एक बार शिवजी ने आवेश में आकर ब्रह्मा का सिर काट दिया था। उनका कपाल लेकर सारे भूमण्डल में घूमने पर भी उन्हें कहीं भिक्षा नहीं मिली, तब उन्होंने भगवान विष्णु के पास वैकुण्ठ लोक पहुंच कर कपाल में भिक्षा मांगी। भगवान विष्णु ने अपना हाथ ऊ‚पर उठाकर तर्जनी अंगुली दिखाते हुए कहा, “शिव! भिक्षा ग्रहण करो।” विष्णुजी का अंगुली उठाना शिवजी को सहन नहीं हुआ। उन्होंने तुरन्त उस पर अपने त्रिशूल से आघात कर दिया, जिससे रक्त की धारा बह निकली। उससे ब्राह्म पात्र भर गया और उसके चारों ओर रक्त की धारा बह निकली। वही धारा वैकुण्ठ से क्षिप्रा नदी के रूप में प्रादुर्भूत हुई। अनेक पौराणिक महत्वों से रेखांकित क्षिप्रा के पवित्र तट पर अनेक ऋषि मुनियों, तपस्वियों, कवियों एवं साधकों ने साधना कर सिद्धि प्राप्त की है। भगवान श्रीकृष्ण, बलराम एवं सुदामा ने अपने गुरु महर्षि सांदीपनि से तथा योगीराज राजेश्वर भर्तृहरि ने अपने गुरु मत्स्येन्द्र नाथ से इसी नदी के किनारे शिक्षा प्राप्त की थी। क्षिप्रा के तट पर ही भारत सम्राट विक्रमादित्य के समय महाकवि कालिदास ने शकुन्तला, रघुवंश और मेघदूत जैसी महान सुन्दर रचनाएं की थीं। बाण की कादम्बरी, चारूदत्त का मृच्छकटिकम्, कल्हण की राजतरंगिणी आदि दुर्लभ ग्रंथरत्नों की रचना इसी नदी के तट पर हुई थी। राजा विक्रमादित्य की प्रेरणास्त्रोत रही है मां क्षिप्रा। पुराणों में उल्लेख है कि इसके तट पर, वसुगण, आदित्यगण, अश्विनीकुमार, रुद्र, पवन आदि दैविक विभिूतियां संध्याकाल सेवनार्थ आते थे। महर्षि भृगु एवं अगस्त जैसे वेद-मर्मज्ञ ऋषियों ने इसके तट पर तपस्या की है।ऐसी ऐतिहासिक क्षिप्रा के पूर्व भाग पर भारत का प्राचीन सुप्रसिद्ध तीर्थस्थल उज्जैन बसा हुआ है जिसकी गणना हिन्दुओं की सात पवित्र पुरियों (नगरों) में होती है। क्षिप्रा नदी ने सारे शहर को अपने आलिंगन में समेट रखा है। उत्तरवाहिनी क्षिप्रा के दोनों ओर के तट प्राकृतिक सौन्दर्य और सुन्दर मंदिरों के कारण दर्शनार्थियों के आकर्षण का केन्द्र हैं। इसके तटों पर जहां मंदिर, आश्रम, गुफाएं, वेधशाला और महल बने हैं, वहीं क्षिप्रा इस नगर के गौरव में श्रीवृद्धि भी करती है। उज्जैन में इस नदी के किनारे बसे प्रमुख 28 तीर्थ हैं – कर्कराज तीर्थ, नृसिंह तीर्थ, संगमस्नान तीर्थ , पिशाचमुक्त तीर्थ, गंधर्व तीर्थ, केदार तीर्थ, सोम तीर्थ, चक्र तीर्थ, देवप्रयाग तीर्थ, वेणी तीर्थ, कपिल तीर्थ, घृतकुल्या तीर्थ, मधुकुल्या तीर्थ, उखर तीर्थ, मंगल तीर्थ, खर्गता संगम तीर्थ, भक्ष तीर्थ, शक्तिभेद तीर्थ, पापमोचन तीर्थ, प्रेतशीला तीर्थ, नवनदी संगम तीर्थ, मंदाकिनी तीर्थ और पितामह तीर्थ। इसके किनारे शनि मन्दिर, नवग्रह मन्दिर, नृसिंहघाट, रामघाट, दत्त अखाड़ा, चक्रतीर्थ, कालभैरव, भर्तृहरि गुफा, गंगाघाट, मंगलनाथ, सिद्धवट, कालियादह महल तथा सूर्य मन्दिर आदि दर्शनीय स्थल हैं। इसके तट पर जगह-जगह विशाल घाट एवं छत्रियां बनी हुई हैं। ज्येष्ठ मास में गंगा-दशहरा का उत्सव, वर्षभर भजन-कीर्तन-पूजन एवं आरती होती रहती है। कार्तिक मास में इसमें स्नान का पौराणिक महत्व है। वैशाख मास में हजारों श्रद्धालुजन पुण्य स्नान हेतु इकट्ठे होते हैं। इसी क्षिप्रा में स्नान के साथ सांस्कृतिक एवं धार्मिक वैभव लिए 122 किलोमीटर लम्बी पंचकोशी (पंचेशानी) यात्रा भी होती है, जिसमें हजारों श्रद्धालु नर-नारी मालवा की इस मोक्षदायिनी गंगा में डुबकी लगाते हैं।16
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