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माटी का मन

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Oct 10, 2004, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 10 Oct 2004 00:00:00

डा.रवीन्द्र अग्रवालकैसे मिले ग्रामीणों को रोजगारसंयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार को समझ नहीं आ रहा है कि गांव वालों को दिए 100 दिन के निश्चित रोजगार का आश्वासन कैसे पूरा किया जाए। चुनाव से पहले कांग्रेस ने और सरकार बनाते समय गठबंधन ने न्यूनतम साझा कार्यक्रम में हर परिवार को निश्चित रूप से न्यूनतम 100 दिन का रोजगार दिलाने का आश्वासन दिया था। इस आश्वासन को अमलीजामा पहनाने के लिए जब योजना आयोग को जिम्मेदारी सौंपी गयी तो उसने संसाधनों की कमी की बात कह दी। उसने बताया कि इस महत्वाकांक्षी योजना के लिए 21 हजार से 41 हजार करोड़ रुपए तक की जरुरत होगी। कहां से आएगा इतना पैसा? समस्या वास्तव में विकट है। बिना पैसे के रोजगार देना सम्भव नहीं। अब सरकार या तो कमरतोड़ कर लगाए या फिर वायदे को वायदा ही रहने दे। विश्व बैंक के विदेशी सलाहकार भी इस मामले में असहाय हैं। समस्या का एक पहलू तो गांव-गांव में फैली बेरोजगारी है, वहीं इसका एक पक्ष यह भी है कि यह बेरोजगारी बढ़ी क्यों? जब तक बेरोजगारी के कारणों को नहीं समझा जाता तब तक 41 हजार करोड़ नहीं एक लाख करोड़ रुपए भी खर्च कर दें, बेरोजगारी की समस्या वैसी ही बनी रहेगी। ठीक वैसे ही जैसे 500 करोड़ रुपए खर्च करने के बाद भी दिल्ली में यमुना साफ नहीं हो पाई।बेरोजगारी के कारणों को समझने के लिए कुछ पीछे जाना जरूरी है। महामहिम राष्ट्रपति डा. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने देश की दुरावस्था के कारणों को समझने के लिए पीछे झांकने का साहस दिखाया। मौका था जामिया मिलिया विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह का। मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह भी वहां मौजूद थे। इस अवसर पर महामहिम राष्ट्रपति ने ब्रिटिश संसद में लार्ड मैकाले के फरवरी, 1835 के भाषण को उद्धृत किया। मैकाले ने अपने भाषण में कहा था कि वे भारत का एक छोर से दूसरे छोर तक दौरा कर चुके हैं। परन्तु उन्हें कहीं भी एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिला जो चोर हो, भिखारी हो। जिस क्षमता के ये लोग हैं उसे देखकर लगता है कि हम कभी इस देश को जीत नहीं पाएंगे। यह तभी सम्भव है जब उनकी सभ्यता और संस्कृति की रीढ़ को तोड़ पाएं और इसके लिए आवश्यक है उनकी प्राचीन शैक्षिक व्यवस्था को समाप्त करना, जिससे भारत के लोग स्वयं को दीन-हीन समझ कर इंग्लैंड को श्रेष्ठ समझने लगें।बात बहुत स्पष्ट है कि 1835 में जिस देश में गरीबी और भुखमरी नहीं थी, बेकारी नहीं थी, उस देश में आज गांव-गांव में बेरोजगारों की फौज क्यों? विडम्बना यह है कि जिन गोरों ने हमें यह रोग दिया है उन्हीं से हम इस रोग का इलाज पूछ रहे हैं। अरे, अगर उन्हें बेरोजगारी दूर करने का रास्ता पता होता तो अमरीका में तो एक भी व्यक्ति बेरोजगार नहीं होना चाहिए था। रोजगार की गारन्टी कोई सरकारी कार्यक्रम नहीं हो सकता। क्या लिज्जत पापड़ के माध्यम से हजारों महिलाओं को किसी योजना आयोग के बनाए फार्मूले से रोजगार मिला है? सरकार यदि वास्तव में रोजगार पैदा करना चाहती है तो उसे अपनी आर्थिक नीतियां, कर प्रणाली उसके अनुरूप बनानी होगी। ऐसा माहौल बनाना होगा कि युवा नौकरी की बजाय स्वरोजगार अपनाएं। यदि सरकारी तंत्र स्वरोजगार करने वालों को अपनी आसामी समझेगा और अनावश्यक कायदे-कानून की बेड़ियां उसके आड़े आएंगी तो कौन पहनना चाहेगा यह बेड़ियां? इसमें तो वह नौकरी पाना ही बेहतर समझेगा। क्या सरकार समाप्त कर पाएगी ये बेड़ियां? इन बेड़ियों को काटने के लिए पैसों की नहीं, साहस की जरूरत है।12

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