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तिरंगा, गांधीजी और सोनिया कांग्रेससिद्धान्तहीन, सत्तालोलुप और विभाजनकारी राजनीतिक टोले केशिकंजे से तिरंगे और गांधीजी को मुक्त कराना आवश्यक है।देवेन्द्र स्वरूपक्या हो गया है संन्यासिनी उमा भारती को? इस राजनीतिक वातावरण में जब प्रत्येक छुटभैया राजनीतिज्ञ सत्ता के टुकड़े पाने के लिए तरह-तरह की जोड़तोड़ कर रहा है, दल बदल रहा है, पाप कर रहा है, चरण-वंदना कर रहा है, उस समय इस संन्यासिनी ने बड़े परिश्रम से स्वयं अर्जित मुख्यमंत्री पद को ठोकर मार दी। वे तिरंगा हाथ में और गांधी जी का नाम जिह्वा पर लेकर भारत परिक्रमा के लिए निकल पड़ीं। आखिर, उनका तिरंगे और गांधी जी से लेना-देना क्या है? तिरंगे और गांधी जी के नाम पर कांग्रेस अपना एकाधिकार मानती आई है। क्या उमा जी इस एकाधिकार का अपहरण करना चाहती हैं या वे किसी बड़े को पाने के लिए छोटे के त्याग का नाटक कर रही हैं? क्या उनकी दृष्टि मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से आगे प्रधानमंत्री पद पर लगी है? क्या मीडिया में उनके आलोचकों का यह कहना ठीक है कि उनके मन में तिरंगे और गांधी जी के प्रति श्रद्धा का भाव नहीं है, यह सिर्फ उनके कंधों पर सवार होकर अपने कद को बड़ा करने का एक तमाशा मात्र है? उमा जी के मन में है क्या?पहले हम यह सोचें कि तिरंगा ध्वज और गांधी जी का नाम स्मरण हमें कहां ले जाते हैं। गांधी जी दक्षिण अफ्रीका से 1915 में भारत लौटे और 1920 में भारतीय राजनीति के शिखर पुरुष बन गए। 1930 में असहयोग आंदोलन के समय उन्हें लगा कि भारत का अपना एक राष्ट्रीय ध्वज होना चाहिए जो भारत के यथार्थ और आदर्श को प्रतिबिम्बित करता हो और जो भारतीय जन-मन को स्वतंत्रता आंदोलन के लिए अनुप्राणित कर सके। 13 अप्रैल, 1921 को यंग इंडिया में उन्होंने लिखा, “झण्डा सभी राष्ट्रों के लिए अनिवार्यता है। लाखों इसके लिए मर चुके हैं। निस्संदेह यह एक प्रकार की मूर्ति पूजा है, जिसको खंडित करना पाप होगा क्योंकि झंडा एक आदर्श का प्रतिनिधित्व करता है।”ध्वज का इतिहासपर, क्या भारत के पास उस समय कोई झंडा नहीं था? अति प्राचीनकाल में देखें तो राजा लोग विजय अभियान पर निकलने के पूर्व इन्द्र ध्वज की पूजा करते थे, महाभारत में अर्जुन के रथ पर स्वयं हनुमान ध्वज बनकर उपस्थित थे। सत्रहवीं शताब्दी में समर्थ गुरु रामदास ने छत्रपति शिवाजी को भगवा ध्वज भेंट किया था, जिसे हाथ में लेकर मराठा वीरों ने पूरे भारत में विदेशी शासन को ध्वस्त किया था, कटक से अटक तक हिन्दू पद पादशाही की स्थापना की थी। बीसवीं शताब्दी के प्रवेश द्वार पर बंगाल के विभाजन के विरुद्ध स्वदेशी आंदोलन में जहां वंदेमातरम् राष्ट्रभक्ति का मंत्र बन कर गूंजा था, वहीं राष्ट्रीय ध्वज की खोज भी आरंभ हो गई थी। स्वामी विवेकानन्द की शिष्या भगिनी निवेदिता ने एक राष्ट्रीयध्वज की कल्पना की, जिसमें भगवे रंग के चौकोर वस्त्र के चारों किनारों पर दीप श्रृंखला, मध्य में इन्द्र का वज्र और बंगला लिपि में वंदेमातरम् अंकित था। खोज इससे आगे बढ़ी और बंगभंग के विरुद्ध बायकाट आंदोलन के घोषण दिवस पर स्वामी विवेकानन्द के छोटे भाई भूपेन्द्रनाथ दत्त ने एक नया ध्वज सुरेन्द्र नाथ बनर्जी को भेंट किया, जिसमें हरे, पीले और लाल रंग की तीन पट्टियां थीं। ऊपर हरे रंग की पट्टी में आठ कमल पुष्प, बीच में पीले पर नीले रंग में देवनागरी लिपि में “वन्देमातरम्” और नीचे लाल पट्टी के एक कोने में सूर्य और दूसरे सिरे पर तारारहित चन्द्र के चित्र अंकित थे। भारत की राष्ट्रीय एकात्मता का यह प्रमाण है कि लगभग उसी समय सन् 1907 में विदेशों में भारतीय क्रांतिकारियों ने बहुत थोड़े अन्तर के साथ ऐसे ही ध्वज को जर्मनी के स्टुगर्ट नामक नगर में मादाम कामा के हाथों भारत का राष्ट्रीय ध्वज फहराया।आगे चलकर एनी बेसेन्ट ने अपने होमरूल लीग आंदोलन के लिए मांडले जेल से वापस लौटे लोकमान्य तिलक के साथ मिलकर एक नया ध्वज तैयार किया जो औपनिवेशिक स्वराज्य के आदर्श को प्रतिबिंबित करता था। इसे पांच लाल पट्टियों के बीच चार हरी पट्टियों को जोड़कर तैयार किया गया था। उसके एक कोने पर ब्रिटिश यूनियन जैक को स्थान मिला था, जो प्रदर्शित करता था कि हम ब्रिटिश साम्राज्य में बने रहेंगे। उसके पास चांद और तारे का चित्र और नीचे सात तारे दिखाए गए थे। यह ध्वज स्वतंत्रता प्राप्ति की भारत की आकांक्षा से मेल नहीं खाता था अत: यह बिल्कुल लोकप्रिय नहीं हो सका।अनेक मस्तिष्क उसका विकल्प खोजने में जुट गए। इनमें आंध्र के एक नवयुवक पिंगले वेंकय्या का नाम सर्वोपरि है। वेंकय्या सन् 1916 से ही राष्ट्रीय ध्वज का एक उपयुक्त और सर्वमान्य नमूना खोजने में जुटा हुआ था उसने “भारत के लिए राष्ट्रीय ध्वज” शीर्षक पुस्तिका भी लिखी। गांधी जी का मस्तिष्क भी इस दिशा में सक्रिय था। अप्रैल, 1921 में आंध्र के बेजवाड़ा (विजय वाड़ा) नगर में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक के समय वेंकय्या गांधी जी को मिला। उसने गांधी जी को एक नमूना भेंट किया जिसमें लाल और हरे रंग की केवल दो पट्टियां थीं और दोनों पट्टियों पर बड़े आकार में गांधीजी का प्रिय चरखा अंकित था। उन दिनों गांधी जी की मुख्य चिंता थी भारत में विभिन्न मतावलम्बी समूहों को राष्ट्रीयता के धरातल पर एकत्र लाना। वे चाहते थे कि एकता का यह भाव राष्ट्रीय ध्वज में प्रतिबिम्बित हो। उनकी दृष्टि में लाल रंग हिन्दुओं का और हरा रंग मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करता था। शेष अल्पसंख्यक वर्ग भी प्रतिनिधित्व की मांग कर रहे थे, जैसे ईसाई, सिख आदि। गांधी जी को लगा कि सफेद रंग की पट्टी उनका प्रतिनिधित्व करे। इसलिए उनकी कल्पना के ध्वज में सफेद पट्टी सबसे ऊपर, उसके नीचे हरी और सबसे नीचे लाल रंग की पट्टी रहे। चरखा तीनों पट्टियों पर छपा रहे। ध्वज के इस रूप को कांग्रेस ने प्रस्ताव पारित करके अधिकृत मान्यता तो नहीं दी, किन्तु 1921 से 1931 तक यही ध्वज सब कार्यक्रमों और अवसरों पर फहराया जाता रहा। राष्ट्रीय ध्वज के रूप में यह काफी लोकप्रिय हो गया। किन्तु विचारशील राष्ट्रभक्तों के मन में प्रश्न भी उठते रहे। पहला प्रश्न था कि क्या भारत की राष्ट्रीयता विभिन्न मतावलम्बियों की जोड़तोड़ का नाम है? क्या हमारा राष्ट्रीय ध्वज इस कृत्रिम संख्यात्मक एकता का प्रदर्शन करे? फिर, इस ध्वज में भारतीय राष्ट्र के आध्यात्मिक आदर्श का प्रतीक भगवा या केसरिया रंग कहां है? चारों ओर से मांग आने लगी कि ध्वज में भगवे रंग को स्थान मिलना ही चाहिए।आखिर, कांग्रेस कार्यसमिति ने 2 अप्रैल, 1931 को अपनी कराची बैठक में डा. पट्टाभि सीतारमैया के संयोजकत्व में सात सदस्यों की एक ध्वज समिति नियुक्त की। इस समिति में सरदार पटेल, जवाहरलाल नेहरू, मौलाना आजाद, मास्टर तारा सिंह, डा. एन.एस. हर्डीकर और डी.बी. कालेलकर को सम्मिलित किया गया। डा.पट्टाभि ने समिति के सभी सदस्यों एवं देश के प्रमुख विचारकों व राजनेताओं को पत्र लिखकर उनके सुझाव मांगे। जवाहरलाल नेहरू ने 12 अप्रैल, 1931 को पट्टाभि को जो उत्तर भेजा वह अनेक दृष्टियों से बहुत महत्वपूर्ण है। उन्होंने लिखा कि हमारे ध्वज का स्वरूप साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व पर कदापि आधारित नहीं होना चाहिए। उसमें सफेद रंग की जगह बासन्ती या हल्के भगवा रंग को स्थान मिलना चाहिए क्योंकि यह प्राचीन भारतीय रंग है और हमारे विगत इतिहास के बलिदानों व त्याग से जुड़ा हुआ है। साथ ही भारतीय नारी को इस रंग में गहरी श्रद्धा है।राष्ट्रीय ध्वज की विकास यात्रा का यह महत्वपूर्ण तथ्य है कि कांग्रेस कार्यसमिति द्वारा नियुक्त ध्वज समिति ने प्राप्त सभी सुझावों पर विचार करके केवल भगवे रंग की पट्टी पर चरखे के चित्र को राष्ट्र ध्वज के रूप में स्वीकार किया।आदर्श सूचकध्वज समिति के इस निर्णय पर कांग्रेस कार्यसमिति ने बम्बई में 5 और 6 अगस्त, 1931 को विचार-मंथन किया। समिति के कई सदस्य कार्यसमिति के भी सदस्य थे। लम्बे विचार के बाद तय हुआ कि तीन रंगों की पट्टी वाला ध्वज पिछले दस वर्ष तक व्यापक प्रयोग के कारण बहुत अधिक लोकप्रिय हो चुका है अत: इस समय इतना बड़ा परिवर्तन करना उचित नहीं होगा। तय हुआ कि लाल रंग की जगह भगवा रंग रहेगा और भगवा रंग सबसे ऊपर बीच में सफेद रंग और सबसे नीचे हरा रंग रहेगा। चरखा केवल सफेद पट्टी में सीमित रहेगा। उसका चक्र ध्वज दंड की ओर और बाहरी सिरे की ओर रहेगा। सबसे महत्वपूर्ण निर्णय यह था कि रंग विभिन्न समुदायों का द्योतक होने के बजाय हमारे राष्ट्रीय आदर्शों के सूचक होंगे।भगवा रंग साहस और त्याग का, सफेद रंग सत्य और शान्ति का व हरा रंग श्रद्धा और वीरता का सूचक होगा।ये आदर्श हमारे राष्ट्रीय आदर्श हैं और जो लोग इस समय सेकुलरिज्म की आड़ में घोर साम्प्रदायिक राजनीति का खेल खेल रहे हैं वे संन्यासिनी उमा भारती और भारतीय जनता पार्टी पर साम्प्रदायिकता का आरोप लगाकर कहे कि उन्हें तिरंगे झंडे के प्रयोग का अधिकार नहीं है तो यह उल्टा चोर कोतवाल को डांटने वाली स्थिति है। वस्तुत: तिरंगा और गांधी जी हमें स्वातंत्र्य आंदोलन की मूल प्रेरणाओं से जोड़ते हैं। और इसमें कोई संदेह नहीं कि नेहरू जी के नेतृत्व में स्वाधीन भारत की यात्रा गांधी जी की मूल प्रेरणा और विचारधारा से भटकाव की यात्रा है। स्वाधीन भारत को इस भटकाव से बाहर निकाल कर स्वतंत्रता आंदोलन की मूल प्रेरणाओं से जोड़ने के लिए तिरंगे और गांधी जी को उनके वास्तविक रूप में देशवासियों के सामने रखना बहुत आवश्यक है।गांधी जी ने मुसलमानों को राष्ट्रीय धारा में लाने के लिए जीवन भर अथक प्रयास किया और अंत में अपने प्राणों की आहुति भी दी किन्तु इसके लिए उन्होंने अपनी जड़ों को नहीं नकारा। 1921 में जब वे राष्ट्रीय ध्वज के रंगों को सम्प्रदायों से जोड़ कर देख रहे थे और ध्वज को साम्प्रदायिक एकता के रूप में देख रहे थे, उन्हीं दिनों 12 अक्तूबर, 1921 के यंग इंडिया में घोषणा की कि “मैं स्वयं को सनातनी हिन्दू कहता हूं, क्योंकि-मैं वेदों, उपनिषदों, पुराणों और अन्य हिन्दू शास्त्रों में और इसीलिए अवतारों व पुनर्जन्म में विश्वास करता हूं।वर्णाश्रमधर्म का सिद्धान्त मुझे स्वीकार्य है, किन्तु आज के विकृत और भोंडे रूप में नहीं, अपितु मूल वैदिक रूप में।गोरक्षा के प्रति मेरा सामान्य से अधिक आग्रह है।मूर्ति पूजा में मुझे अविश्वास नहीं है।”हिन्दुत्व के बिना कुछ नहींएक सप्ताह पूर्व 6 अक्तूबर, 1921 के यंग इंडिया में उन्होंने लिखा,”हिन्दू धर्म के प्रति मेरी भावना वैसी ही है जैसे अपनी पत्नी के प्रति है। अन्य स्त्री मेरे मन में वैसी भावनाएं नहीं जगाती जैसी मेरी पत्नी करती है। उसमें कुछ दोष हो सकते हैं किन्तु उसका मेरा बंधन अटूट है। इसी प्रकार हिन्दू समाज में भी अनेक दोष हैं। किन्तु तुलसी की रामायण और गीता के संगीत से मुझे जो आनंद मिलता है, वह कहीं और से नहीं मिलता। मैं आमूलचूल सुधार का हामी हूं, किन्तु सुधार के जोश में मैं हिन्दू धर्म की मूल मान्यताओं को नहीं ठुकरा सकता।” 2 मई, 1933 को यरवदा सेन्ट्रल जेल से जवाहरलाल नेहरू को एक पत्र में उन्होंने स्पष्ट लिखा कि “यदि हिन्दुत्व ने मुझे निराश किया तो मेरा जीवन बोझ बन जायेगा। हिन्दुत्व को मुझसे छीन लो तो मेरे पास कुछ नहीं रह जाता। यदि मैं इस्लाम और ईसाई धर्म को प्यार करता हूं तो अपने हिन्दुत्व के कारण ही।”गांधी जी ने कांग्रेस पार्टी की स्वतंत्रता की लड़ाई के मंच की अधिक उपयोगिता नहीं समझी। इसीलिए अपनी मृत्यु के एक दिन पूर्व उन्होंने कांग्रेस पार्टी को भंग करने का लिखित आग्रह किया। लेकिन कांग्रेस का नाम जीवित रखा गया। पर वह कांग्रेस गांधी की नहीं, नेहरू जी की कांग्रेस थी। सरदार पटेल की दिसम्बर, 1950 में मृत्यु के बाद तो कांग्रेस पं. नेहरू की पारिवारिक पार्टी बन गई। प्रत्येक विभाजन के बाद परंपरागत कांग्रेसी कांग्रेस से बाहर जाते रहे और परिवार के चाटुकार उसमें भरते गए। आज कांग्रेस के नाम पर जो राजनीतिक टोला बना है उसका गांधी जी की कांग्रेस से कोई रिश्ता नहीं है। उसे तिरंगे और गांधीजी का नाम लेने का कोई अधिकार नहीं है। यह वंशवादी पार्टी है जो भारत में वंशवादी शासन स्थापित करना चाहती है, जिसने वंशवाद के पिछले दरवाजे से एक विदेशी महिला को अपने कंधों पर उठा लिया है जो सोनिया के बाद राहुल व प्रियंका व उनकी संतान के आगे देख ही नहीं सकती। वे सोनिया कांग्रेसी जिन्हें भगवे रंग से चिढ़ है, गांधी जी की उस कांग्रेस के उत्तराधिकारी कैसे हो सकते हैं जो भगवे रंग को राष्ट्र ध्वज बनाना चाहती थी। ऐसे सिद्धान्तहीन, सत्तालोलुप और विभाजनकारी राजनीतिक टोले के शिकंजे से तिरंगे और गांधी जी को मुक्त कराना आवश्यक है। उमा भारत की तिरंगा और गांधी यात्रा राष्ट्रीय आन्दोलन के नए चरण का शंखनाद है। (1-10-2004)33
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